सच्चिदा बाबू नहीं रहे….!

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Socialist thinker Sachchidanand Sinha

— प्रेमकुमार मणि —

लेखक, पत्रकार और प्रखर समाजवादी चिन्तक सच्चिदानन्द सिनहा नहीं रहे. इन पंक्तियों के लिखने के कुछ समय पहले मुजफ्फर पुर के निकट अपने गाँव मनिका में उन्होने आखिरी सांस ली. उम्र 95 पार की थी और इस हिसाब से वह दीर्घजीवी थे, लेकिन प्रिय लोगों की कोई उम्र नहीं होती. सच्चिदा बाबू के होने का मतलब था. आज के संकट भरे वातावरण में उनका जाना कुछ अधिक पीड़ादायक है.

1929 में जन्मे सच्चिदा बाबू ने छात्र जीवन से ही राजनीतिक अभियानों में हिस्सा लेना शुरू किया था. वह समाजवाद से प्रभावित हुए और बाद में अपनी सोच से समाजवाद को प्रभावित भी किया. राममनोहर लोहिया के व्यक्तित्व से वह कुछ अधिक प्रभावित थे. उनकी एक किताब ही है ” मार्क्सवाद की लोहियावादी व्याख्या. ” बाद के दिनों में किशन पटनायक के साथ मिल कर समाजवादी संघर्ष और चेतना को बनाए रखने की भरसक कोशिश की. किशन जी विकल्पों को लेकर कभी निराश नहीं रहे. सच्चिदा बाबू की लाइन भी वही थी. संस्कृति विमर्श, मानव सभ्यता और राष्ट्र, निहत्था पैगम्बर, नक्सली आन्दोलन का वैचारिक संकट आदि उनकी चर्चित किताबें हैं. वह ऐसे समय में समाजवाद के विचार को मांजते रहे जब लोग उसकी विदाई की घोषणा कर चुके थे.

कोई तीन साल पूर्व उनके गाँव जा कर मिला था. मुज़फ्फर पुर शहर से कुछ ही किलोमीटर दूर एक छोटी-सी झील के किनारे अवस्थित उनका गाँव मनिका भारत के अन्य गाँवों की तरह ही है. कुछ उदास और सुस्त. यह मुशहरी प्रखण्ड के तहत है जहाँ 1970 के आसपास जयप्रकाश जी ने नक्सली समस्या के समाधान केलिए कैम्प किया था. इसी गाँव में ग्रामीण संकरी सड़क किनारे ही एक उजाड़-सी जगह पर एक कोठरी में टूटे हुए कुछ उपस्करों के बीच वह अकेले पड़े थे. मेरे साथ एक स्थानीय प्रोफेसर थे. मुझे देखते ही चहक उठे. उठ कर बाहर आए. कुर्सियां मंगवाईं. एक आदमी चाय भी दे गया. और फिर सच्चिदा बाबू की बातें शुरू हुईं. दुनिया-जहान की बातें. बदलते सामाजिक-राजनीतिक जीवन में समाजवादी मूल्यों के महत्व पर वह बोलते रहे. उनका नजरिया स्पष्ट था. लोकतांत्रिक मूल्यों के अध:पतन पर वह चिन्तित थे, लेकिन निराश नहीं थे. मेरे यह पूछने पर कि क्या भारतीय समाज और उसके राजनीतिक परिद्रिश्य पर फासीवाद की आहटें सुनाई दे रही हैं, उन्होने स्पष्ट किया भारत में यह संकट नहीं आएगा. जनता एक हद से अधिक नहीं बर्दास्त करेगी. उन्होने यह भी कहा कि भारत का मध्यवर्ग भले ही फासीवाद के वैचारिक प्रभाव में आ जाय, भारत का किसान और मिहनतकश वर्ग इसके प्रभाव में नहीं आएगा. इस तबके पर आज भी गाँधी के व्यक्तित्व का बहुत प्रभाव है. यह प्रभाव उन्हें फासीवादी होने से रोकेगा. यह इटली जैसा छोटा देश नहीं है. यहाँ कोई मुसोलिनी या हिटलर हीरो नहीं हो सकता.

समाजवाद के प्रति वह आशान्वित थे. उनकी दृष्टि में आज भी देश और दुनिया की समस्याओं का समाधान केवल समाजवाद के पास है और लोग आखिरकार इस तथ्य को स्वीकार करेंगे. मार्क्स, गाँधी, लोहिया के प्रति उनका विश्वास अडिग रहा. दुर्भाग्यपूर्ण यह था कि देश के लोगों ने उनके महत्व को नहीं समझा.

आज वह नहीं हैं. इस समाजवादी साधु को यदि हम भूल गए तो हमारे समाज की त्रासदी होगी. उनके विचार हमें प्रभावित करते रहेंगे. किशन पटनायक के अवसान के बाद समाजवादी आन्दोलन को यह दूसरी बड़ी क्षति है. उनकी स्मृति का नमन. उन्हें विनम्र श्रद्धान्जलि.


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