प्रोफ़ेसर यशपाल की सबसे बड़ी खाशियत ये है कि वे छोटे से छोटे बच्चे से भी जब विज्ञान के बारे में बात करते थे तो उसके स्तर पर आकर करते थे। वे चाहते थे कि लोग उनसे सवाल करें। कोई भी व्यक्ति उनसे कैसा भी सवाल पूछ सकता था और वे सभी को बहुत प्यार से जवाब देते थे, चाहे वो सवाल कितना ही बेतुका क्यों न हो।
26 नवंबर 1926 को झांग (वर्तमान पाकिस्तान) में उनका जन्म हुआ। देश के बंटवारे की घड़ी में प्रो. यशपाल का परिवार दिल्ली पहुंचा था। पिता लाहौर में सरकारी मुलाजिम थे और यशपाल उस वक्त पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर में बीएससी( भौतिकी) के विद्यार्थी। बंटवारे की दहशत को उन्होंने अपनी आंख से देखा था।
1947 के अगस्त में पाकिस्तान से शरणार्थी झुंड के झुंड दिल्ली चले आ रहे थे।सांप्रदायिक तनाव अपने चरम पर था। दिल्ली के किंग्सवे कैंप के पास लगे एक शरणार्थी शिविर के आस-पास कुछ गड़बड़ी मची। पास के अस्पताल पर सांप्रदायिक तत्वों ने हमला किया, कुछ लोग मारे गये। किसी को पता नहीं था कि हत्या किसने की है। शक किंग्सवे कैंप में लगे शरणार्थी शिविर के बाशिन्दों पर था।
अफरा-तफरी के उसी माहौल में जवाहरलाल नेहरु वहां कार से पहुंचे। कार से उतरते ही कहा- कहां है, कैंप का कमांडेट? क्या इसी दिन को देखने के लिए हमने आजादी की लड़ाई लड़ी थी? क्या हम ऐसा ही देश बनाना चाहते हैं ? देश-निर्माण के अपने लहूलुहान स्वप्न को बचाने की पीड़ा और क्रोध से सने नेहरू के ये बोल नौजवान प्रो. यशपाल ने अपनी कानों से सुने थे।
आगे के जीवन ये लिए नेहरु के यही बोल उनके मार्गदर्शक रहे। देश की आजादी के जंग को करीब से देखने वाले प्रो. यशपाल ने आजाद भारत में अपनी बहुविध भूमिका निभाने से पहले हर बार अपने से यह सवाल पूछा—‘क्या हम ऐसा ही देश बनाना चाहते हैं, क्या हमने इसी के लिए आजादी की लड़ाई लड़ी थी ?
वे कहते थे कि विज्ञान में कोई भी नई बात चाहे कितनी भी चमत्कारी क्यों न हो अंततः पूर्व ज्ञान पर ही टिकी रहती है। जटिल वैज्ञानिक समस्याओं में कुछ सामान्य बातें भी होती हैं । हालांकि हर वैज्ञानिक तथ्य अपने आप में अद्वितीय होता है।
प्रोफेसर यशपाल ने जीवन के प्रति आशा, इंसान की बुनियादी अच्छाई , प्रेम और सहिष्णुता गांधी और नेहरू से सीखी । वे बड़ों से ज्यादा बच्चों से अधिक बात करते थे। यह गुण गांधी-नेहरू युग के हरेक व्यक्ति में स्वभाविक तौर पर होता है। नेहरू में एक तरह का अधैर्य था लेकिन गांधी उसे भी मनुष्यता का हिस्सा ही मानते थे।
विभाजन के दिनों में जब वे लाहौर से दिल्ली आए, तो शहर उथल-पुथल और मानवीय त्रासदी से भरा था। इसी समय उन्होंने किंग्सवे कैंप में शरणार्थियों की सेवा शुरू की—एक ऐसा अनुभव जिसने उनके जीवन और दृष्टि को गहराई से प्रभावित किया।
एक दिन सरदार पटेल और महात्मा गांधी कैंप का दौरा करने आए। भीड़ का गुस्सा इतना बढ़ा हुआ था कि भय था कहीं लोग गांधीजी पर हमला न कर दें। युवा यशपाल, जो तब केवल सेवा-भाव से प्रेरित एक स्वयंसेवक थे, ने तुरंत पास खड़ी एक खाट तोड़ी और उसका डंडा हाथ में लेकर गांधीजी की रक्षा के लिए खड़े हो गए। यह क्षण उनके भीतर मानवीय कर्तव्य, साहस और नैतिकता की नई चेतना जगाने वाला था।
प्रो यशपाल ने अपने कैरियर की शुरुआत टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च से की थी। उन्हें भारत में अंतरिक्ष विज्ञान का जनक कहा जाता है। वे 1973 में स्पेस एप्लीकेशन सेंटर के पहले डायरेक्टर बने। उनका वैज्ञानिक शोध कॉस्मिक किरणों पर गहरे अध्ययन के लिए जाना जाता है। 1993 में बच्चों की शिक्षा में बस्ते के बोझ के मुद्दे पर भारत सरकार ने प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई, जिसे यशपाल कमेटी का नाम दिया गया। 2009 में यूनेस्को ने उन्हें कलिंग पुरुस्कार से सम्मानित किया।उन्हें 1976 में पद्म भूषण और 2013 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया। प्रोफेसर यशपाल दूरदर्शन पर टर्निंग प्वाइंट नाम के साइंटिफिक प्रोग्राम को होस्ट भी करते थे, जो काफी लोकप्रिय था। 2007 से 2012 तक प्रोफेसर यशपाल JNU के वाइस चांसलर रहे। उन्होंने UGC के मुखिया के तौर पर भी काम किया।
प्रोफेसर यशपाल की सबसे बड़ी सहजता यह थी कि वे खुद बच्चों से प्रश्न आमंत्रित करते थे। वे कहते थे कि जब तुम मुझसे वैज्ञानिक सवाल करते हो तो हो सकता है कि एक निश्चित प्रश्न का निश्चित जवाब न हो । क्योंकि एक वैज्ञानिक से जब प्रश्न किया जाता है तो वह तुरंत उत्तर न देकर उसके उत्तर के लिए जूझता है। प्रश्न करने और उत्तर देने के बीच की जूझन में ही वैज्ञानिक चेतना उत्पन्न होती है।
प्रोफेसर यशपाल का काम मुख्यतः कॉस्मिक किरणों पर था। इसलिए उनके सोचने और चिंतन करने का तरीका और जीवन को मापने का पैमाना भी कॉस्मिक मिजाज का ही था। उन्होंने अपनी पूरी ताकत वैज्ञानिक चेतना और वैज्ञानिक सम्वेदना के लिए समर्पित कर दीं। वे अद्भुत कल्पनाशील थे। वे कहते थे कि एक अच्छा वैज्ञानिक एक अच्छा कलाकार भी हो सकता है। अगर एक वैज्ञानिक में कला के प्रति संवेदना नहीं है तो उसकी वैज्ञानिकता पर भी संदेह होना चाहिए।
25 जुलाई 2017 को जब प्रोफेसर यशपाल जीवन की आख़िरी सांस ले रहे थे, जब उनके सभी अंगों ने काम करना बंद कर दिया तब भी शायद उनकी आंखों ने एक बार अनन्त अंतरिक्ष को दूर-दूर तक देखा होगा। उनके सुपर कम्प्यूटर दिमाग ने कल्पना की आखिरी छलांग लगाने की भरपूर कोशिश की होगी। एक अनन्त आशावादी वैज्ञानिक अपने शरीर के बाहर सोचता है। वह किसी भूखंड पर जन्म जरूर लेता है, लेकिन उसकी मृत्यु उसे आकाशगंगा का नागरिक बना देती है।
प्रोफेसर यशपाल को उनके जन्मदिन पर दिल से नमन।
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इस तरह का भ्रामक प्रचार के वैज्ञानिक दृष्टिकोण क्यों जरूरी प्रोफेसर यशपाल जी पहले बताएं बहुत सारे लोग बहुत पहले से ही कहते आ रहे हैं की वैज्ञानिक दृष्टिकोण आवश्यक है।