नेहरू का विरोध जरुरी है या मजबूरी? – राकेश अचल

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Is opposing Nehru necessary or a compulsion?

Rakesh Achal

कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी का ये सुझाव काबिले गौर है कि भाजपा पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू पर अपनी शिकायतों और नेहरू जी की गलतियों की एक फेहरिस्त बनाकर उनके बारे में एकमुश्त बहस कर ये अध्याय हमेशा के लिए बंद कर दे.

पंडित जवाहरलाल नेहरू भाजपा की आंख की एक ऐसी किरकिरी हैं जो पलकों में फंसकर रह गये हैं और जब चाहे तब भाजपा को रुला देते हैं. पंडित जवाहरलाल नेहरू को गये 61साल हो गये हैं. वे भारतीय ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय मानस में एक हीरो की तरह बसे हुए हैं किंतु भाजपा एक ऐसा दल है जो पंडित नेहरू को खलनायक मान बैठा है.

नेहरू की रीति नीति से भाजपा के पूर्वजों की भी असहमति रही लेकिन कोई भी नेहरू के सामने और पीठ पीछे भी उन्हें खलनायक नहीं कह सका. यहाँ तक कि नेहरू के साथ रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी तक नेहरु के सामने हथियार डालते रहे. लेकिन आज की भाजपा नेहरू को पानी पी -पीकर कोसती है, इस वजह से न संसद के भीतर काम हो पा रहा है और न संसद के बाहर. स्थिति ये है कि नेहरू कांग्रेस के मंचों से ज्यादा भाजपा के मंचों पर छाए हुए हैं.

संसद में वंदेमातरम की 150 वीं साल पर बहस के दौरान भी नेहरू का नशा भाजपा के सिर से उतरा नही है. नेहरू हैं ही ऐसे. कोई करे भी तो क्या करे ? नेहरू से निजात पाने के दो ही तरीके हैं. पहला जो प्रियंका गांधी ने सुझाया और दूसरा ये कि भारत के इतिहास से पंडित जवाहरलाल नेहरू को विलोपित कर देश दुनिया में उनके बुतों को नेस्तनाबूत कर दिया जाए. मुश्किल ये है कि भाजपा दोनों तरीकों का इस्तेमाल करने का साहस नहीं जुटा पा रही है.

भारतीय राजनीति में भाजपा पहला और शायद आखरी ऐसा राजनीतिक दल होगा जो नेहरू नाम से इतनी घृणा करता है. समाजवादी और वामपंथी भी नेहरू के आलोचक रहे लेकिन नेहरू से घृणा किसी ने नहीं की. नेहरू बनना आसान नहीं. नेहरू को जैसा राजनीतिक प्रशिक्षण मिला वैसा आज असंभव है. नेहरू ने जितना समय तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध संघर्ष करते हुए जेल में काटा उतना अब शायद किसी को मौका मिले. मेरे खयाल से नेहरू त्याग, तपस्या की भट्टी में तपी एक जीवित प्रतिमा थे. वे आज की भाजपा और कल के भाजपा के पुरखों को ठीक उसी तरह खटकते थे जैसे कि महात्मा एमके गांधी. गांधी की तो एक गोडसे ने हत्या कर दी किंतु नेहरू को कोई गोडसे मार नही सका.

बहरहाल अब मुझे लगने लगा है कि भाजपा दिग्भ्रमित है. उसे कांग्रेस मुक्त भारत चाहिए या नेहरू मुक्त भारत ? भाजपा को नेहरू और कांग्रेस में से किसी एक को चुनना पडेगा. दो-दो मोर्चों पर लडकर तो भाजपा के देवतुल्य कार्यकर्ता और अवतारी नेता थक जाएंगे. वे न देश को नेहरू मुक्त बना पाएंगे और न कांग्रेस मुक्त..

सवाल ये है कि क्या नेहरू का विरोध ज़रूरी है… या सत्ता की मजबूरी?क्योंकि ये जो रोज़-रोज़ “नेहरू-नेहरू” जाप होता है,कभी-कभी लगता है जैसे देश नहीं, एक ही आदमी अब भी शासन चला रहा हो।

कहते हैं—कहानी में खलनायक न हो, तो कहानी नहीं चलती। भाजपा की राजनीति भी यही मान बैठी है।जो काम पहले पाकिस्तान करता था,अब वो काम… नेहरू कर देते हैं। महंगाई? नेहरू की गलती।बेरोज़गारी? नेहरू की गलती। ट्रैफिक जाम हो जाए?नेहरू ने ही सड़कें कम चौड़ी छोड़ी होंगी।यानी आज का मुद्दा कोई भी हो,नाम वहीं का वहीं नेहरु रहना चाहिए।
दर असल राजनीतिक मशीनरी का पेट भावना से चलता है।जब तक जनता भावुक न हो—राजनीति का इंजन स्टार्ट नहीं होता। नेहरू का नाम लेते ही एक तरफ तिलमिलाहट, दूसरी तरफ श्रद्धा—और बस, स्क्रीन पर टीआरपी की लहरें दौड़ जाती हैं।सत्ताधारी दल के लिए नेहरू परमानेंट पंचिंग बैग हैं,और विपक्ष के लिए परमानेंट देवप्रतिमा।

सच यह है जवाहरलाल नेहरु अब प्रधानमंत्री नहीं रहे,लेकिन बहस के प्रधानमंत्री अभी भी वही हैं।महंगाई पर बोलिए—नेहरू।ध्रुवीकरण पर बोलिए—नेहरू।विदेश नीति पर बोलिए—नेहरू।यहाँ तक कि सोशल मीडिया का अल्गोरिद्म भी सोच रहा होगा—“नेहरू डालो, व्यूज मिलेंगे।”

और यह सब इसलिए चलता है,क्योंकि इससे जनता वास्तविक मुद्दों पर सवाल करना भूल जाती है।नेहरू इसलिए नहीं याद आतेक्योंकि उनसे कुछ सीखना है—नेहरू आए इसलिए क्योंकि आज के सवालों के जवाब देना मुश्किल है।
मैं सोचता हूँ कि नेहरू का विरोध ज़रूरी बिल्कुल नहीं है लेकिन ये अब राजनीतिक मजबूरी सौ फ़ीसदी है।क्योंकि आज की राजनीति का असली फार्मूला यही है:“नेहरू बोलो, आज का जवाब टालो।”और यही कारण है किमरने के बाद भी नेहरू जिंदा हैं. संसद में, सडक पर, दिलो दिमाग में.


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