दिल और दिमाग की दोस्ती: मामा बालेश्वर दयाल

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Mama Baleshwar Dayal

(मामा बालेश्वर दयाल यानि मध्यप्रदेश , राजस्थान, गुजरात क्षेत्र के भीलों के लिए समर्पित व्यक्ति यही समझा जाता है। बालेश्वर दयालु -बालेश्वर दयाल -मामा बालेश्वर दयाल या दीक्षित ब्राह्मण से भील बनने की की यात्रा के दौरान वे विचारक और संगठन कर्ता रहें। लोहियाजी द्वारा सम्पादित ‘जन’, ‘चौखम्भा’ जैसी पत्रिकाओं के सम्पादन मंडल में रहें।उनकी की पुस्तिकाएं भी प्रकाशित हुई। वे पार्टी के अध्यक्ष रहते राजनीति के चाणक्य भी माने जाते रहे। उनका लेखन आज भी प्रासंगिक हैं। विवेक मेहता इन दिनों उनके लेखों को पुस्तकार में संग्रह के रूप में सामने लाने के प्रयास में लगे हैं। यह लेख विवेक मेहता के सौजन्य से हम प्रकाशित कर रहे हैं।)

राज या समाज की उलझन में, दैविक या भौतिक परेशानी में इन्सान अवसर छोटी छोटी उलझनों में फंस कर पहाड़ जैसी चिन्ता महसूस करता है। उससे निकलने का रास्ता जानते हुए भी राह खोजता फिरता है। चाहता है कि मुसीबत से पिंड छूटे, पर बुद्धि पर विश्वास नहीं करता। जिन्दगी के इस अन्तर्द्वन्द या मानसिक क्लेश को समझने के लिये दिल और दिमाग के बीच का फर्क समझना जरूरी है। यही बारीक फर्क चाह और राह में लम्बी खाई पैदा कर देता है।
भूत की वे रूढ़ भावनायें (जो नई रोशनी या सभ्यता से इन्कार करती हैं) और अनादि की परम्पराओं से भरा मन्डोल ही शरीर-पिण्ड का वह हिस्सा है, जिसे हृदय या दिल कहते हैं, पिण्ड के साथ ही यह जन्म लेता है और नित नई सामग्री आस-पास के वातावरण से बटोरता रहता है; काम, क्रोध, लोभ, मोह की जन्मजात पूंजी इसके पास रहती है। अनादि की परम्परा और भूत के पूंजी बाद ने इस पूंजी का काफी फैलाव किया है। सत्ता और सम्पत्ति के केन्द्रीकरण का युग ज्यों ज्यों फलता फूलता गया इस पूंजी में उतनी ही तरक्की होती रही, यहां तक कि आगे चल कर खुद ही चाह एक विकराल नदी, पर्वत या बियावान जंगल बन कर जिन्दगी की राह को रोक देती है।

दिमाग का चैतन्य ही प्रौढ़ जीवन की उपज है। प्रौढ़ का अर्थ है, संसार की अन्दरूनी और बाहरी हालतों का मानवोचित संतुलन, जगत के चढ़ाव उतार में रस्सा-कस्सी करता हुआ, औरों के साथ खुद भी जिन्दा रहने की धुन में वह अपने को बदलता और सम्भालता हुआ आगे चलना चाहता है। बुद्धिशील वातावरण पाकर वह जब अनन्त आनन्द की खोज करता है तब दिल को कहीं तो समझाकर और कभी बरबस उसे साथ बटोरता हुआ आगे बढ़ता है, बौद्धिक क्रिया में जब दिमाग मंजिल तक जाने के लिये दिल को भी राहगीर बना लेता है, तब समता, स्वतंत्रता, और मानवता उसके कर्मजात गुण बन जाते हैं। इसी साधना में वह जन्मजात काम, क्रोध, लोभ, मोह, की तंग घाटियों को पार करता हुआ जीवनपथ को सरल और सुन्दर बना लेता है।

काल व क्षेत्र के अनुसार यह क्रिया एक अरसे से चली आई है, बुद्धियोग और हठयोग के युग से लेकर आधुनिक लोकतंत्र या एकतंत्र के समर्थकों में उसी विचारधारा की शक्लें बदलती रही हैं। इसी अभ्यास को किसी युग में साधु और फकीर की प्रतिष्ठा मिलती रही, वही स्थिति आज की बदली हुई जीवन-लीला में कार्यकर्ताओं की है। हठयोग अल्पसंख्यक (मुट्ठी भर का) साध्यगुण है, बुद्धियोग बहुजन साध्य है। शरीर और आत्मा में जो बारीक या विशाल नाता-रिश्ता है, वही पिण्ड के अन्तर्गत दिल और दिमाग के बीच है। एक के बिना दूसरे की गुजर नहीं और दूसरे के बिना पहले का वजूद नहीं। दिल चाह का सर्जक और दिमाग राह का दर्शक है, गोकि जीवनलीला के क्षेत्र में दोनों एक दूसरे के पूरक है, और बराबरी की अहमियत रखते हैं।

राजकीय……. (१) दिल जब मस्ती पर आता है, अपने आराम और हराम की ऊँचाई समझने के लिये नीचे की ओर देखता है, तो पाता है कि अगणित प्राणी उसकी जड़ में गणतन्त्र के लिये सुरंगें लगाने में तन तोड़ परिश्रम कर रहे हैं, दिल कहता है कि ऊपर से कुचल दो; काम, क्रोध, मोह, लोभ के शस्त्रागार का इस्तेमाल करो, तब सचेतन दिमाग कहता है कि चाण्डाल मत बनो, नीचे उतर कर सबके साथ स्वरसुख का आनन्द लो; एकाकी नर्क में कितने दिन जिन्दा रहोगे, भय और आतंक से अनन्त का आनन्द असंभव है। जिन्दा रहना ही तो जीवन का लक्ष्य नहीं, बल्कि लीला ही जीवन का लक्ष्य है, और वह लीला तो हिले-मिले लाखों की ललित हिलोरों में ही मुमकिन है।

२-दिल मचलता है, थकान महसूस करता है कि इतने अथक परिश्रम के बावजूद सरकार को नहीं हिला सके; अब दो ही रास्ते हैं या तो वैराग्य लो, या फिर बैरी का ही राग अलापना शुरू करो। दिमाग झिड़कता है, कि चाह तुम्हारी दुरुस्त है पर राह गलत है, व्यक्ति और उसकी आकांक्षायें थकती हैं, शक्ति कभी थकती नहीं; यह तुम्हारी थकान इसी कारण है कि तुम मनुष्य को अपनी आकांक्षा का सिर्फ साधन मान रहे हो, यह पूंजीवादी तन्त्र का दृष्टिकोण है। असल में राजकीय बदलाव का मूल लक्ष्य मनुष्य है, तन्त्र तो साधन मात्र है; जिनके लिये तुम राज पर कब्जा चाहते हो, उनकी चाह की समझो, उन्हीं से राह पूछो, अपनी जिद छोड़ो, तो तुम्हारी मंजिल भी दूर नहीं है।

३- दिल ललचाता है कि दांवपेंच जमाकर मिलाई-जुलाई की चतुराई मे दुश्मन पर कब्जा कर ले, इसमें शक्ति और समय कम खर्च होगा। दिमाग झकझोरता है कि दिवालिये की तरह शक्ति का रोना क्यों रोते हो ? शक्ति तो अनन्त है, बटोरने वाले की जरूरत है, समय भी असीम है, उसका दिवाला कभी निकला ही नहीं, समय की कुतर्क देकर कुसमय मौत क्यों बुला रहे हो? शक्ति को समेट कर अधिकार छीननेवाला अमर और अजेय ही रहता आया है।

४–कभी कभी दिल अहंकार के उतार में ठण्डी सांस लेता है कि पारिवारिक सुख हराम करके औरों के लिये क्यों और कितने दिन मुसीबत को गले में रखें, दिमाग ताना मारता है कि ऐसा ही था तो किसी मठ या मसजिद के मसीहा बन कर आराम की जिन्दगी गुजारनी थी; इस ताने के साथ तसल्ली भी देता है कि भगवान और शैतान के दोनों छोर छोड़ कर इन्सानी हस्ती की बुलन्दी के लिये इतने दिन तपस्या की, तो आधुनिक युग के अमरत्व से भी सबक सीखो। हवा पानी चीरकर आकाश में हल्की उड़ान से ही इन्सान सन्तुष्ट नहीं रहा, अब वह १८००० मील फी घंटा की चाल से चन्द्रलोक और दीगर ग्रहों में भी सैर-सपाटे के जतन में लीन है। तुम तो पृथ्वी और प्रकृति के स्वामी हो, मिथ्या आराम के गुलाम मत बनो, गति ही जीवन है, शून्य का नाम मृत्यु है।

सामाजिक……. (१) थकान के पहले अक्सर हृदय को क्लेश होता है कि आकांक्षा या सेवा भावना के लिये आखिर अनिश्चित आर्थिक संकट से गृहस्थी की परेशानी का पाप क्यों झेलूं। पाप तो सचमुच है क्योंकि दिल के रिश्तों का लक्ष्य तो सिर्फ सांसारिक रूढ़िजात सुखों का भोग हुआ करता है। उनका दिमाग आप जैसा तभी बनेगा जब दैनिक रिश्तों में ऐसा व्यवहार हो कि आपकी भावना के संसार का उन्हें आकर्षण पैदा हो। कुछ दिन बाद आर्थिक व्यवस्था लूली-लंगड़ी ही भले रहे, पर मानसिक क्षेत्र में तो परिवार मन का धनी बन जाये, तब दिमाग से भी वे आपके साथ होंगे और पारिवारिक आनन्द का आप अनुभव करने लगेंगे।
(२) कलेक्टर की कचहरी से ठुकराये जाकर चारों किसान ब्राह्मण, गूजर, राजपूत और चमार, एक जैसा बागी दिल लेकर घर लौटते हैं, रास्ते भर गाड़ी मोटर में साथ बैठते और खाना-पीना करते हैं। एक ही नल का पानी पीते आये, पर गांव में पैर रखते ही दिमाग से जुदा हो जाते हैं। दिल और दिमाग का मेलजोल कायम रहा होता तो मौजूदा राजतंत्र कभी का उलट गया होता। आज की सोशलिस्ट पार्टी में भी अनेक ब्राह्मण या राजपूत नेता हैं जो कांग्रेसी ब्राह्मण या राजपूत के ज्यादा करीब हैं, बजाय उस गूजर या चमार के, जिसके साथ वह कई बार जेल भोग चुके, और आज तक गांव के जमींदार के सामने वे चारो एक ही मोर्चे पर खड़े हैं। पुराने कानून टूट जायें, पुराने कर्जे खारिज हों, टूटा मकान और फटे कपड़े बदल जाय, पर सड़ी गली जात-पांत की दीवारों में कहीं दरार भी न पड़े, ऐसी चाह वाले राह कैसे खोज लेंगे; गरीबी अमीरी के बीच फर्क तोड़ने के लिये तो खूनी क्रांति की भी बात ठोंक देंगे, पर दिल और दिमाग के बीच के फर्क दूर करने के लिये बौद्धिक क्रान्ति का एक कदम भी आगे बढ़ाने के लिये तैयार नहीं।

दैविक… (१) यही हाल दैविक और भौतिक परेशानियों का है; दैविक परेशानियों का कारण दिल का वही पुराना आचार बन्धन है जो आदतों की परिपक्वावस्था से धर्म या रूढ़ि रूप में कठोर बन गया है, पर जिन्हें दिमाग खोलना है, उन्हें तो अपनी बुद्धि पर विश्वास करना होगा कि वह युग बीत चुका, जब पानी की जरूरत पूरी करने के लिये इन्द्र और वरुण की पूजा होती थी, आज इस देश में तो नहीं पर इसी पृथ्वी पर इन्सान जब जी चाहे तब बारिश गिरा लेता है, गंगा जमुना के पानी को घर घर और खेत-खेत लिये फिरता है, जादू मंत्र का युग अज्ञान के अन्धकार से डूब चुका है; यंत्र का युग है, ज्ञान की लालिमा में छिपा खजाना चमक उठा है। अब दैविक परेशानियों से निपटने के लिये दिल के रूढ़िगत प्रयोगों से आगे बढ़ कर दिमाग से काम लेने की बातें सोचो ।
२- भौतिक, परेशानी जैसे लड़की की ससुराल में अनबन और बेटे बहू से रोज-मर्रा का झगड़ा वगैरह।

परेशानी पीते रहने से काम नहीं चलेगा। नये दिमाग से दिल की दोस्ती जोड़ कर ही निपटारे की राह खोजी जा सकती है; तुम अपनी जवानी में बीवी के साथ जो ललित सम्बन्ध जोड़ने का दिमाग रखते थे, वहीं उन्हें महसूस हो रहा है या तो उन्हें उतनी छूट दो या फिर वह सम्बन्ध छोड़ कर नये सम्बन्ध जोड़ने दो, क्योंकि इस विज्ञान के युग में यह देश कोई ऐसा टापू नहीं रहा है कि बाहर की हवा को यहां आने से रोक दिया जाये; उस दूरी और लाचारी को विज्ञान ने तोड़ दिया है, और इन्सान को एक रूप होने की सुविधाएं दी हैं। असल में सन्तानों से आशा तगड़ी होती है पर पैसा इतना लंगड़ा होता है कि आशा और पैसा के द्वन्द्व में दोनों एक दूसरे से विमुख हो जाते हैं, हृदय के इस द्वन्द्व में प्रौढ़ दिमाग का फैसला बहुत साफ होता है कि (१) यह रोग व्यापक है इसलिये या तो यह विश्वास कर लो कि १०-२० वर्ष बाद यहां कोई भी औलाद मां बाप के पैगाम का पालन नहीं करेगी या फिर (२) रूढ़िगत आदत बदलो और कहो कि जो इस देश या क्षेत्र की तमाम आबादी की व्यवस्था की पूरी जिम्मेदारी-रूहानी, जिस्मानी-ले उसी को हम सरकार मानेंगे वरना नहीं, और यही संस्कार सन्तान में भरना शुरू करो, किस्मत और कुदरत के भरोसे जिन्दा रहने की आदत सदा के लिये दफनाओ।

यानी दिल और दिमाग के इस फर्क को ठीक से न समझने के कारण ही मनुष्य मशीन की तरह किसी गैर के लिये काम करता रहता है, और अपने को क्षणभंगुर या पानी का बुदबुदा मानता हुआ निराशा की ठण्डी सांस पूरी कर रहा है, दुःख सुख का जवाबदार खुद को नहीं मानता। ऊपर जहां दिल और दिमाग का शब्द-चित्र दिया है, वह सचेतन दिमाग या उसकी प्रौढ़ता की अवस्था का है। जहां से दिमाग तंग सीमा पार करके व्यापक और विश्व भर के हालात पर सोचना और फैसला लेना शुरू करता है। दिल कहीं रूढ़िगत संस्कारों से मुक्त हो गया, तो दिमागी अप्रौढ़ता में भी एक मजबूत दिल कुछ अच्छे लक्षण भी पेश किया करता है, यद्यपि मूल लक्ष्य से दूर जरूर रहता है, जैसे किसी बालक का स्वभाव है कि अगर कोई उसे अकारण एक तमाचा मार दे, तो वह तुरत उसे दो तमाचे मार देगा। प्रौढ़ दिमाग की दोस्ती के बिना भी दिल का यह स्वभाव एकदम तो गलत नहीं है, क्योंकि जुल्म के प्रतिकार की भावना तो मनुष्य मात्र में जरूरी है।

जब प्रौढ़ दिमाग की दोस्ती का संयोग उमे मिल जायेगा तब उसे सिर्फ अपनी राह बदल लेनी होगी, क्योंकि वह चाह उसमें है जो जीवन का लक्ष्य है। ऐसे मामलों में बच्चे और ऐसे प्रौढ़ों के बीच कोई अन्तर नहीं रहता, जो बच्चे की तरह सीमित दायरे में सोचते और अमल करते हैं। इस देश तथा दुनिया में भी ऐसी कई जातियां हैं जिन्हें पिछड़े वर्ग, आदिवासी, जरायम, या हब्शी के नाम से पहचानते हैं, जो संसारी हलचलों से नामसझ हैं कि उनके अमुक व्यवहार का मानव समाज पर दूर जाकर क्या भला बुरा असर होगा। ऐसे गिरोहों का दिल और दिमाग एक जैसी नासमझी का नेतृत्व करता है, उन्हें सिर्फ उस दुनिया की खबर है जिसमें लक्कड़ का बदला पत्थर से चुकाये जाने की प्रतिष्ठा होती रही; राम कृष्ण जैसी सभ्यताओं को उन्होंने सुना है, जहां नाइन्साफी का बदला इसी तरह चुकाया जाता था;

उसके बाद की गांधी सभ्यता की समझ उन्हें कभी नहीं मिली, जिसमें प्रतिकार के द्वारा प्रेम उभारने और विजय पाने के बहुजन साध्य प्रयोग ने सफलता की सीढ़ियाँ पार करनी शुरू की हैं। अगर हमारे अनेक सचेतन साथी उनके दिमागी सर-परस्त बन कर उनके बीच बस जायें तो करोड़ों के दिल दिमाग को एक साथ बड़ी तेजी से आगे दौड़ा सकते हैं। ऊपर जो दिल दिमाग का फर्क बताया है उसमें अधिकांश उस दुनिया का इशारा है जो नई रोशनी को जानते हैं। १० या २० वर्ष बाद बननेवाली इन्सानी तस्वीर की उन्हें खबर है पर हृदय-पेटु (स्वार्थी पन) का स्वभाव दिमाग पर इस कदर हावी हो गया है कि दिमाग भी पेटू बन गया। दिमाग तो ज्ञानेन्द्रियों का राजा है; वह जब इस तरह कर्मेन्द्रियों का गुलाम बन जाता है तब समूचा शरीर एकांगी होकर जड़वत् मशीन की तरह काम करता है, ऐसे पेटू तथा पढ़े-लिखों के दिमागी स्कूल निहायत जरूरी हैं क्योंकि ये लोग जान-बूझ कर पेट का काम दिमाग से लेने की व्यापक अव्यवस्था फैला रहे हैं। जो अज्ञान के कारण उलझ रहे हैं उनके दिमागी स्कूल भी वर्ग संगठनों को चलाना लाजमी है। समाजवादी संस्थाएं अगर वैज्ञानिक गठन करना चाहती हैं तो दिल और दिमाग के अज्ञान और अन्तर्द्वन्द से निपटनेवाली व्यवस्थाओं पर पूरा जोर देना होगा-समाज और राज के आधुनिक दर्शन को अनन्त के मन पर बिछाना होगा, तभी यह देश समाजवाद को एक नई दिशा देने में काम-याब हो सकता है, जिससे विदेशों के परस्पर विरोधी समाजवादी नमूने का शुद्धिकरण होगा, कोटानुकोटि कंठों से गूंजेगा एक बुलन्द नाद (राजकीय सभ्यता का समाजीकरण) इस सुखद कल्पना में इकबाल की ये पंक्तियां रह रह कर गुदगुदी पैदा करती है:-
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है ए-दुश्मन, दौरे जमां हमारा”
(जन में प्रकाशित लेख)


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