पुनर्जीवित अरावली अब पुनः विनाश की दिशा में है – राजेंद्र सिंह

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Aravali

Rajendra Singh

रावली बचाओ आंदोलन ने देश को पानीदार बनाने की प्रक्रिया शुरू की थी। 80 के दशक में जब पूरा अरावली खनन के दबाव में पिस रहा था, तब पश्चिम की हवा के साथ अरावली के 12 गैप में से रेत दिल्ली की तरफ बढ़ रही थी। 10 साल के बाद जब 1991 में अरावली की खदानें बंद हुईं, तो अरावली पुनर्जीवित होना शुरू हुई। खदाने बंद होने से जो लोग बेरोजगार हुए थे, वे सब जल संरक्षण के काम में जुट गए।

राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में समुदायों ने मिलकर पानी बचाने का काम शुरू किया, इसके परिणामस्वरूप अरावली में हरियाली बढ़ने लगी थी। खनन बंद होने के बाद खदानें पानी के बैंक जैसी बन गईं।

वर्ष 2014 के बाद फिर से अरावली में अवैध खनन का काम तेजी से आगे बढ़ा। इस खनन ने अरावली को फिर से नंगा करना शुरू किया है। जिसके कारण फरीदाबाद का पूरा इलाका जो 1980-90 में खदानें बंद होने के कारण हरा-भरा होने लगा था, वे पहाड़ियां अब नंगी हो गई हैं। इससे राजस्थान की तरफ से आने वाली गर्म हवाएं, अब दिल्ली की तरफ तेजी से बढ़ने लगी हैं। इन हालातों को देखते हुए ऐसा लगता है कि अब अरावली फिर अपने पश्चिम की रेत को पूरब की तरफ लाने में मदद करेगी। दिल्ली के फेफड़ों का काम अरावली के जंगल करते थे, वह फेफड़े अब बेकार होकर, अरावली व दिल्ली को बीमार करेंगे।

हमें यह समझने की जरूरत है कि, जिस प्रकार 1991 के बाद अरावली में खदानों को बंद होने से, अरावली पुनर्जीवित हुई और अरावली में जल संरक्षण का काम तेज हुआ था, वैसे ही अब दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के लोगों को भी एक बार फिर करने व आवाज उठने की जरूरत है। उस जमाने में भारत की संसद के लोकसभा अध्यक्ष स्वयं ज्ञापन लेने व अरावली बचाओ आंदोलनकारियों से मिलने आए थे। उसके 6 महीने के बाद ही सरकार ने कानून बनाकर, 7 मई 1992 को नोटिफिकेशन जारी किया था। अब फिर से अरावली बचाओ 1980 के आंदोलन को पूरे दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में शुरू करने की जरूरत है।

मेरी आंखों में वर्ष 1980 में जयपुर की झालाना डूंगरी के खनन से नष्ट होती अरावली पर्वतमाला का कष्ट बहुत चुभ रहा था। जयपुर के भवन निर्माण कार्य अरावली के पत्थरों से ही हो रहे थे। झालाना डूंगरी, जयपुर के विकास के नाम पर विनाश का प्रतीक बन गया था। तब मैं भी खनन को विकास ही मानता था। 1988 में पालपुर गाँव के जन्सी मीणा, तिलवाड के गोपी कुम्हार और तिलदह के रूपनारायण जोशी व अन्य कई लोगों ने शाम के वक्त आग तापते हुए कहा कि खनन हमारे कुएं में पानी नहीं होने देगा। कुओं से ज्यादा गहरी खानें हैं। तुम जितना जल संरक्षण करोगे, वह सब खदानों में ही चला जायेगा। हमारे कुएँ तो सूखे ही रहेंगे। खदानों को बंद कराना, आपके बस की बात नही है। आपकी औकात नहीं है, खान मालिकों से लड़ना। वे तुम्हे मार देंगे या मरवा देंगे। इनसे जो टकराता है, वह नष्ट हो जाता है। खदान मालिक सोचते है, जब हम पहाड़ खोद सकते है, तो आदमी की औकात क्या जो हमसे टकरायेगा।

सभी में भय व्याप्त था, डर रहे थे। मैं बिना डरे खनन बंद कराने में जुट गया। सबसे पहले नीलकंठ मन्दिर पर सभी का तीन दिन तक एक शिविर रखने हेतु, बैठक बुलाई गई। इसमें जितने बुलाए, उससे दोगुना ज्यादा लोग आए। जब शिविर शुरू किया तो सब डरे हुए ही बात कर रहे थे। बातचीत के बाद ही तो हम कुछ करने की तैयारी करें। शिविर के अंत में तय हुआ कि लोगों के डर को खत्म करने के लिए सबसे पहले खनन क्षेत्र में अखंड रामायण पाठ करेंगे, फलस्वरुप 22 स्थानों पर अखंड रामायण पाठ शुरू हुआ। इसमें खान मालिक, वन विभाग, ग्रामीण सभी शामिल हुए। सभी ने अपनी-अपनी बातें अखण्ड पाठ से समय निकाल कर की। इसके बाद सभी को बुलाकर इसका प्रभाव जाना, समझा और अंत में पर्यावरण संरक्षण यज्ञ तय किया गया।

भर्तृहरी में यह यज्ञ एक सप्ताह तक चला। पर्यावरण यज्ञ में भी सभी आगे आए। मैंने इस यज्ञ के दौरान पूछा कि खनन से क्या बिगाड़ हो रहा है? इस पर लंबी चर्चा हुई। यज्ञ की अंतिम आहुति में खनन बन्द कराने का संकल्प हो गया इस संकल्प में फतेह सिंह राठौड़ तथा कई अन्य अधिकारियो को मैने बुलाया था, पर वन विभाग के अधिकारी नही आये। खैर वन विभाग की तरफ से बातों का जबाव नहीं मिला।

खनन क्षेत्र को वन क्षेत्र सिद्ध करने में मुझे बहुत कठिनाई हुई। अंत में जब सिद्ध हुआ कि खनन क्षेत्र ही वन क्षेत्र है, तब उच्चतम न्यायालय से खनन बंद कराने का आदेश मिल गया।

उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन कराना बहुत कठिन रहा, असंभव लग रहा था। मेरे ऊपर जानलेवा हमले होने लगे। उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित समिति के सामने ही मुक्त जानलेवा हमला हुआ। उस समय के जिला अधिकारी की गाड़ी में बैठाकर मुझे भेजा तो वह गाड़ी तोड़ दी गई और मुझे गंभीर चोटें आयीं। इसकी प्रतापगढ़ पुलिस स्टेशन में रपट लिखवाने पहुंचा, तो मेरे साथ चल रहे अधिकारी रिपोर्ट लिखवाने से मना करने लगे। समिति के अध्यक्ष न्यायमूर्ति ने कहा कि राजेन्द्र सिंह जी आप तो सामाजिक कार्यकर्ता हैं, तो माफ कर सकते हैं। तब मैने कहा कि मैं तो माफ कर दूंगा परंतु आप सभी न्यायमूर्ति, भारत सरकार व राजस्थान सरकार के उपस्थित अधिकारी कैसे माफ करेंगे। आप माफ करें।

तभी राजस्थान के प्रधान मुख्य वन संरक्षक ने कहा कि हम माफ नहीं करेंगे। हमारी वन भूमि पर कब्जा करने वालों ने राजेंद्र सिंह के ऊपर हमला किया है। यह हमारी जमीन, हमारे ही वन विभाग को दिलाने का ही काम कर रहे हैं, हमारा विभाग इनके साथ है। अपराधी को दंड मिलना चाहिए। तब न्यायमूर्ति चुप हुए। तब जिला अधिकारी ने भी थानेदार से रिपोर्ट लिखने को कहा। रिपोर्ट में कुछ भी उलटा सीधा लिखवाते तो तत्कालीन प्रधान वन संरक्षक जोर-जोर से कहते थे कि हमने हमलावरों को, हमला करते समय देखा है। उनका नाम भी बता दिया और मौके पर मौजूद हमलावरों को वहीं पकड़ा दिया था। उच्चतम न्यायालय में इस घटना को न्यायमूर्ति एड. राजीव धवन ने उठाया और हमलावर को सजा दिलाई। इससे खदान मालिको में डर बढ़ गया और खदानें रुक गई।
उसके बाद खदान मजदूरों को तालाब, जोहड़ बांध बनाने के काम में लगा दिया। उस जमाने में हजारों जगहों पर जल संरक्षण का कार्य शुरू हो गया। मजदूर भी तरुण भारत संघ के साथ काम में जुट गए। आरंभ में खदान मालिकों ने मजदूरों को तरुण भारत संघ के खिलाफ भड़का दिया था, इसलिए वे काम पर आने से रुक गए थे। लेकिन जब खनन और मजदूरों के भविष्य का योग मजदूरों को समझाया गया, तो वे जल संरक्षण और खेती के काम में जुड़ने लगे। इस प्रकार उनमें मजदूर से मालिक बनने का भाव पैदा हुआ और हजारों मजदूरों को किसान बनना अच्छा लगने लगा था। उसके बाद तो बड़ी संख्या में किसान शिविरों में आने लगे थे। शिविरों में जल संरक्षण हेतु स्थान चयन से लेकर जोहड़, चैकडैम, एनिकट, बांध, बनाना सीखने लगे थे।

जब ये अरावली क्षेत्र के लोग जल संरक्षण करके, पानीदार बने तो वे दूसरों को भी चंबल, उदयपुर, अजमेर ,बीकानेर, टोंक, पाली, चित्तौड़गढ़ ,दौसा, सवाई माधोपुर, करौली, कोटा ,धौलपुर आदि जिलों में गांव-गांव जाकर पानी का काम सिखाने लगे। खनन से लोगों का रुझान कम हुआ और खेती में बढ़ने लगा। इस प्रक्रिया से हिंसक समाज अहिंसामय बन गया।

अब इन लोगों का पूरा जीवन चक्र बदलने लगा। यह बदलाव पहले लोगों में आया और फिर धरती पर भी बदलाव दिखने लगा। पत्थर फोड़ने को छोड़कर, अरावली के सफेद संगमरमर , डोलामाईट, ग्रेनाइट, लाइम स्टोन, यूरेनियम, तांबा सभी तरह के खनिज पदार्थ इस अरावली पर्वतमाला में मौजूद है। इन खदानों को बंद हुए 33 वर्ष हो गए है। जब इस पर्वतमाला को बचाने की न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों की इच्छा दिखाई दी, तब खान मालिक भी अपनी खानों को बंद करने लगे और शांत हुए।
अरावली में जल, जंगल संरक्षण की यह प्रक्रिया 1991 में आरंभ हुई थी। इसी कारण जहां-जहां जल, जंगल, जंगली जीव, जंगलवासी और जैव विविधता संरक्षण कार्य हुए, वहां-वहां हरियाली बढ़ने व अरावली पर्वतमाला के पुनर्जीवित होने से जलवायु परिवर्तन, अनुकूलन और उन्मूलन के अच्छे काम समाज में और धरती के ऊपर स्पष्ट दिखाई देने लगे थे।

वर्ष 2014 के बाद से फिर अरावली पर्वतमाला के ऊपर संकट के बदल मंडराने लगे। पहले अरावली पर्वतमाला की परिभाषा बदलने का दौर शुरू हुआ। उसके बाद 100 मीटर से ऊंची पहाड़ी ही अरावली है, यह कहा जाने लगा। हमने कहा कि पहाड़ों की पहचान उनकी ऊंचाई मात्र से नहीं होती, उनके मूल तत्त्व, बनावट, जैव विविधता आदि बहुत-सी जैव-विविधता सामग्री की मौजूदगी से पहाड़ों की पहचान बनती है।

सरकार अब सत्ता के उन्माद में संवेदनहीन होकर, उसे जो अनुकूल लगता है, वही करती रहती है। बहुत कुछ बोलने पर भी सरकारों ने नहीं सुना। अब तो भारत सरकार ने 10 किलोमीटर बाघ परियोजना से खनन की दूरी घटाकर 100 मीटर से 1 किलोमीटर तक की दूरी पर लाकर छोड़ा है। आजकल तो अरावली की वन भूमि को भी उद्योगभूमि में बदलने की पूरी स्वीकृति देना शुरू कर दिया है। अब तो ऐसा लगता है कि सरकार केवल उद्योगपतियों व खदान मालिकों के लिए ही काम कर रही है। भारत के वर्तमान और भविष्य की चिंता दिखाई नहीं देती।

भारत की आस्था तो पर्यावरण रक्षा है इसीलिए हम कभी पूरी दुनिया के गुरु थे। आजकल तो हम ही खनन करने वालों को संरक्षण दे रहे हैं। ऐसा करने से हमारी पहचान भी हमारे पड़ोसी देशों की जैसे ही बन रही हैं, जो अपनी अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण करने वाली विधियों के विशेषज्ञों के रूप में जाने-जाते हैं।

भारत ने पूरी दुनिया में प्रकृति प्रेमी के रूप में अपनी पहचान बनाई थी, पर आज वैसी पहचान नहीं रही। अब दुनिया के देश हमें भी प्रकृति के दुश्मन मानने लगे हैं, जबकि हम तो प्रकृति प्रेमी हैं। अरावली पर्वतमाला के साथ हमारे बुरे व्यवहार ने हमारी पहचान को दुनिया में बुराई की तरफ बदला है। अब बुराई में बदलने के सरकारी प्रयास और अधिक तेज हो रहे हैं, इसकी भारी चिंताएं बढ़ती जा रही हैं।अरावली में अब विनाश कार्य तेजी से शुरू हो रहे हैं। उन्हें रोकना बड़ी चुनौती है। अरावली विनाश की चुनौतियों को अवसर में बदलने हेतु जनता को ही तैयार होना होगा।

आज से 35 वर्ष पूर्व जब अरावली बचाओ आंदोलन की नींव डाली थी, तब मन में था कि, हमने अच्छा कार्य शुरू किया है, तो जनता भी आगे करा लेगी। हमने काम शुरू किया और अंतिम छोर तक लड़कर अरावली को बचाने की लड़ाई पहुंचाई थी, लेकिन अब वह उलट हो रही है। सरकार अरावली को बचाने के बजाय, उल्टा नष्ट करने के लिए कानून बना रही है। अब वन संरक्षण अधिनियम केवल अधिसूचित जंगल को ही जंगल मानेगा।

7 मई 1992, में अरावली को अरावली में सात तरह की भूमि, जैसे बीड़, बंजर, रखतबनी,राड़ा, रूँध आदि को वन भूमि माना था, उस पर भी अब शंका है। वन भूमि को व्यापारिक लाभ के लिए खुलेआम छूट देकर सरकार ने नई मान्यता “उद्योगपतियों की ही सरकार है-भारत की जनता की अब सरकार नहीं है।“ स्थापित कर दी है, लेकिन काम करने के लिए भारत उद्योगपतियों के लिए उद्योगपतियों का देश हो रहा है, लोकतंत्र केवल नाम मात्र है।

अरावली की जल संरचनाएं, जंगल, जमीन सभी जगह बिगाड़ हो रहा है। इस बिगाड़ को रोकने हेतु न्यायपालिका के निर्णय की पालना करना, अब सरकार ने बंद कर दिया है। भारत की न्यायपालिका सर्वोत्तम कही जाती है, परंतु अब वह अपने निर्णय पालना करने में बहुत कमजोर पड़ गई है।

वर्ष 2024 तक आते-आते अब पर्यावरण सुरक्षा हेतु लोग न्यायपालिका में जाते हुए भी डरने लगे हैं। न्यायपालिका अब बड़े लोगों और सरकारी साठ-गांठ की बातें अधिक सुनाने लगी है। न्यायपालिका तो भारत के गरीबों को न्याय दिलाती थी, अब केवल समझौते करती है। समझौते में तो सक्षम ही सफल रहता है, इसलिए अरावली के विनाश को देखकर भी लोग चुप हैं।
मैं जब भी न्यायपालिका के द्वार पर पहुंचा, देर तो हुई, लेकिन न्याय मिला है। तभी तो अरावली पर्वतमाला को बचाने हेतु उच्चतम न्यायालय से न्याय और भारत सरकार से कानून बनवाकर, राज्य सरकार द्वारा पालन करने में सफल रहा था। अब अरावली की गुहार कोई सुने और इसे बचाने के लिए आगे आए।

अरावली का जंगल बचेगा, तो दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात पानीदार बनेगा। जंगल पानी को पकड़ कर, धरती के पेट को भरते हैं, बादलों को बुलाकर बरसाते हैं। जब पहाड़ियों पर जंगल नहीं होता, खदानें होती हैं तो वहां गर्म हवायें चलने लगती हैं। बादल रूठ जाते है, बरसते नहीं है। तभी अरावली के गांवों के लोग लाचार, बेकार होकर शहरों की तरफ जाते है।
अरावली का जल, जंगल, जमीन बचाने के लिए अब अरावली के लोगों को 90 के दशक जैसा ‘‘अरावली बचाओ आंदोलन’’ ही खड़ा करना होगा। इस काम हेतु युवाओं को पानीदार बनने के लिए अरावली पर्वतमाला को पुनजीर्वित करने की प्रक्रिया पुनः शुरू करनी होगी।


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