
— रवींद्र गोयल —
अगले साल होनेवाले राज्य के चुनावों के मद्देनजर ही सही, राजस्थान सरकार ने इस बजट में जनवरी 2004 से नियुक्त सरकारी कर्मचारियों के लिए नयी पेंशन योजना के अंतर्गत पेंशन देने की जगह पुरानी पेंशन देने की घोषणा की है। जब से यह घोषणा हुई है कुछ बुद्धिजीवियों, विशेषज्ञों ने इस घोषणा की तीखी आलोचना शुरू कर दी है। इनके द्वारा इस घोषणा के विरोध का कारण यह भी है कि राजस्थान तो महज शुरुआत है।
नयी पेंशन योजना की अनिश्चित पेंशन राशि के भुगतान-आश्वासन के मुकाबले निश्चित भुगतान के आश्वासन वाली पुरानी पेंशन योजना के पक्ष में मुखर आवाजें देश भर में पहले से ही उठ रही थीं। खबर है कि अभी 3 मार्च को हिमाचल प्रदेश में पुरानी पेंशन योजना के समर्थन में सरकारी कर्मचारियों ने बड़ा प्रदर्शन किया है। छत्तीसगढ़ की सरकार ने भी ऐलान किया है कि वो 13 मार्च को आनेवाले बजट में पुरानी पेंशन योजना को लागू करने की घोषणा कर देगी। और भविष्य में यदि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार आती है तो संभव है वहां भी पुरानी पेंशन योजना लागू हो जाए। और ऐसी भी खबरें आ रही हैं कि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह के नेतृत्ववाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार भी पुरानी योजना को बहाल करने के लिए दबाव में है। यह दबाव ने केवल विपक्ष का है बल्कि कुछ भाजपा सांसद भी इसके पक्ष में हैं।
अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने तो इस फैसले की आलोचना में सम्पादकीय ही लिख दिया है। कलमघिस्सू विशेषज्ञों ने इस फैसले पर ‘राजकोषीय तबाही’ का फतवा भी जारी कर दिया है। ये विशेषज्ञ क्या कहते हैं और उनकी सोच कहाँ तक सही है, उनके चिंतन का वैचारिक आधार क्या है और जनपक्षधर ताकतों का इस सवाल पर क्या रुख होना चाहिए आदि सवालों पर चर्चा करने से पहले आइए समझते हैं कि ये दोनों योजनाएं क्या हैं।
पुरानी पेंशन योजना को पूर्व निर्धारित पेंशन योजना कहते हैं।इस योजना के अंतर्गत कर्मचारी सेवानिवृत्ति के उपरांत अपनी सेवानिवृत्ति के समय मिलनेवाले वेतन पर आधारित एक निश्चित दर से पूरी जिन्दगी पेंशन पाने का हकदार होता है। और उसकी मृत्यु के उपरांत पेंशन प्राप्तकर्ता के पति या पत्नी को भी पेंशन मिलती है। इसके विपरीत नयी पेंशन योजना (एनपीएस) में नियोक्ता या काम पर रखनेवाला मालिक काम के दौरान ही निश्चित योगदान करके अपनी पेंशन की जिम्मेवारी से मुक्ति पा लेता है। इस पैसे को निर्धारित नियमों के अनुसार शेयर बाजार में लगाया जाएगा और उससे जो भी लाभ होगा उससे सेवानिवृत्ति के बाद कर्मचारी को पेंशन दी जाएगी। वो कम हो या ज्यादा, इससे पेंशन देने के लिए जिम्मेवार नियोक्ता का कोई सरोकार नहीं रहेगा।
हिंदुस्तान में सरकारी कर्मचारियों को अधिकारिक तौर पर पेंशन उपलब्ध है।1990 में नवउदारवादी आर्थिकी के स्वीकार करने के बाद ही पेंशन सुधार के नाम पर पूर्व निर्धारित पेंशन योजना को त्यागकर उसके बदले नयी पेंशन योजना लागू करने का दबाव सरकार पर बना हुआ था। दुनिया में टैक्स आधारित सरकारी खजाने से दी जानेवाली पेंशन योजना को रद्द कर उसके बदले शेयर बाजार में पेंशन फंड्स के निवेश द्वारा मिली आय से ही पेंशन का भुगतान आज के दौर में प्रभावी नवउदारवादी आर्थिकी का एक आवश्यक स्तम्भ है। इसके पक्ष में यह दलील दी जाती रही है कि इस परिवर्तन के द्वारा सरकारी खजाने पर आर्थिक दबाव कम होगा और भविष्य में ही सही, पूंजीपतियों को सरकारी खजाने से सुविधाएँ लेना आसान होगा। इसके अलावा वित्तीय पूँजी को शेयर बाजार को ऊँचा करने और इसमें प्रभावी लोगों के हितसाधन के लिए शेयर बाजार में उलटफेर करने के लिए विशाल धनराशि का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण स्रोत मिल जाता है जिसको वो अपनी सुविधा अनुसार इस्तेमाल कर सकते हैं।
लेकिन यह फैसला तुरंत लागू न किया जा सका। अटल बिहारी की सरकार नयी पेंशन योजना 1 जनवरी 2004 से ही या उसके बाद केन्द्र सरकार की सेवा में भर्ती कर्मचारियों के लिए अनवार्य रूप से लागू कर पायी। इस फैसले में सशस्त्र बलों को छोड़ दिया गया। शायद नयी पेंशन योजना में होनेवाली अनिश्चित पेंशन राशि के भुगतान आश्वासन की वजह से सरकार उनके विरोध का जोखिम लेने को तैयार नहीं थी। केंद्र सरकार ने नयी पेंशन योजना को राज्यों के लिए अनिवार्य नहीं किया था। इसके बावजूद धीरे-धीरे अधिकतर राज्यों ने इसे अपना लिया। फिलहाल पश्चिम बंगाल को छोड़कर सभी राज्यों ने नयी पेंशन योजना को अपना लिया है।
सेवानिवृत्त कर्मचारियों को पुरानी पेंशन न देने की दुहाई मुख्यतः इस तर्क पर दी जाती है कि इस योजना का बोझ बर्दाश्त करना सरकारी क्षमता से बाहर है। केंद्रीय रिजर्व बैंक के अनुसार 20-21 में सरकारी खजाने पर (केंद्र और राज्य सरकार दोनों को मिलाकर) पेंशन का भार 3.86 लाख करोड़ रु. था। और भविष्य में यदि पुरानी पेंशन योजना चलती रहती है तो यह भार और भी बढ़ेगा। ऊपरोल्लिखित कलमघिस्सू विशेषज्ञ, जिन्होंने पुरानी पेंशन योजना पर ‘राजकोषीय तबाही’ का फतवा चस्पां किया है, का तर्क यह भी है कि पुराने पेंशन निज़ाम के चलते राज्य सरकारों को उपलब्ध धन का बड़ा हिस्सा केवल वेतन और पेंशन में ही खर्च हो जाता है तथा अन्य विकास कार्यों के लिए पैसा बचता ही नहीं है।
नवउदारवादी आर्थिकी का जनविरोधी चरित्र तो जग-उजागर है पर धन के अभाव का पुरानी पेंशन योजना को त्यागने का तर्क कितना लचर है उसे तथ्यों के आलोक में भी समझा जा सकता है। इस देश की राष्ट्रीय आय करीब 200 लाख करोड़ रुपया है जिसमें करीब 35 लाख करोड़ केंद्र और राज्य सरकारों दोनों के खजाने में टैक्स के रूप में आता है। (2) इस कुल राशि में से 3.86 लाख करोड़ की पेंशन देनदारी (यानी कुल टैक्स आय का मात्र 10 प्रतिशत) को भारी बोझ या राजकोषीय तबाही कहना बौद्धिक बेईमानी और मक्कारी नहीं तो क्या है! न जाने क्यों, मुक्तिबोध के शब्दों में ‘रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध’ इन विशेषज्ञों की कलम को यह बताते हुए जंग भी लग जाता है कि दुनिया में हमारे जैसे अन्य देशों में टैक्स-जीडीपी अनुपात 20.9 प्रतिशत है जबकि हमारे देश में यह अनुपात 17.1 प्रतिशत ही है। यानी यदि हम अपने देश में टैक्स चोरी को खत्म कर दें और अपने जैसे देशों जितना ही टैक्स हम भी लगाएं तो आसानी से 8 लाख करोड़ रुपये का, आज की पेंशन की देनदारी से दोगुना अतिरिक्त टैक्स आसानी से जुटा सकते हैं। और विश्वस्तर के आंकड़े देखें तो पाएंगे कि यूरोप के कई देशों में टैक्स-जीडीपी अनुपात 40 प्रतिशत है। यानी कि हम अपने देश में जनहितैषी कार्यों के लिए पैसा आसानी से जुटा सकते हैं यदि हुक्मरानों की नीयत सही हो और नेता लोग धनकुबेरों की दलाली छोड़ें।
संक्षेप में कहें तो राजस्थान सरकार का पुरानी पेंशन बहाल करने का फैसला किसान आन्दोलन की तरह नवउदारवादी आर्थिक चिंतन के बढ़ते कदमों में एक महत्त्वपूर्ण अवरोध खड़ा कर सकता है और यह जनहितैषी फैसला है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेसी मुख्यमंत्री अपने संगठन की नवउदारवादी आर्थिकी के प्रति प्रतिबद्धता के बावजूद इस फैसले को कहाँ तक लागू कर पाते हैं।
(1) देखें https://indianexpress.com/article/opinion/columns/why-rajasthan-govt-decision-return-old-pension-scheme-fiscal-disaster-7798082/
(2 ) यह हिसाब देश की राष्ट्रीय आय में टैक्स के हिस्से के प्रतिशत के आधार पर लगाया गया है। इसे अर्थशास्त्र की भाषा में टैक्स-राष्ट्रीय आय अनुपात या टैक्स-जीडीपी रेशियो कहते हैं। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 2018-19 में केंद्र और राज्य दोनों का संयुक्त टैक्स-जीडीपी रेशियो 17.1 प्रतिशत है।
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