भगतसिंह का लेख – धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम

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(शहीद भगतसिंह का यह लेख पंजाबी पत्रिका किरती के मई 1928 के अंक में प्रकाशित हुआ था। उसी साल अप्रैल में अमृतसर में राजनीतिक कान्फ्रेंस और नौजवान सभा की कान्फ्रेंस हुई थी, जिसका जिक्र इस लेख में आता है। धर्म पर और सांप्रदायिक समस्या पर भगतसिंह के नजरिये की झलक देता यह लेख चमनलाल द्वारा संपादित पुस्तक भगतसिंह के संपूर्ण दस्तावेज से लिया गया है।)

मृतसर में 11-12-13 अप्रैल को राजनीतिक कान्फ्रेंस हुई और साथ ही युवकों की भी कान्फ्रेंस हुई। दो-तीन सवालों पर इसमें बड़ा झगड़ा और बहस हुई। उनमें से एक सवाल धर्म का भी था। वैसे तो धर्म का प्रश्न कोई न उठाता, किन्तु सांप्रदायिक संगठनों के विरुद्ध प्रस्ताव पेश हुआ और धर्म की आड़ लेकर उन संगठनों का पक्ष लेनेवालों ने स्वयं को बचाना चाहा। वैसे तो यह प्रश्न और कुछ देर दबा रहता, लेकिन इस तरह सामने आ जाने से स्पष्ट बातचीत हो गयी और धर्म की समस्या को हल करने का प्रश्न भी उठा। प्रान्तीय कान्फ्रेंस की विषय समिति में भी मौलाना जफर अली साहब के पाँच-सात बार खुदा-खुदा करने पर अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल ने कहा कि इस मंच पर आकर खुदा-खुदा न कहें। आप धर्म के मिशनरी हैं तो मैं धर्महीनता का प्रचारक हूँ। बाद में लाहौर में भी इसी विषय पर नौजवान सभा ने एक मीटिंग की। कई भाषण हुए और धर्म के नाम का लाभ उठानेवाले और यह सवाल उठ जाने पर झगड़ा हो जाने से डर जानेवाले कई सज्जनों ने कई तरह की नेक सलाहें दीं।

सबसे जरूरी बात जो बार-बार कही गयी और जिस पर श्रीमान् भाई अमरसिंह जी झबाल ने विशेष जोर दिया, वह यह थी कि धर्म के सवाल को छेड़ा ही न जाए। बड़ी नेक सलाह है। यदि किसी का धर्म बाहर लोगों की सुख-शांति में खलल न डालता हो तो किसी को भी उसके विरुद्ध आवाज उठाने की क्या जरूरत हो सकती है? लेकिन सवाल तो यह है कि अब तक का अनुभव क्या बताता है? पिछले आंदोलन में भी धर्म का यही सवाल उठा और सभी को पूरी आजादी दे दी गयी। यहाँ तक कि कांग्रेस के मंच से भी आयतें और मंत्र पढ़े जाने लगे। उन दिनों धर्म में पीछे रहनेवाला कोई भी आदमी अच्छा नहीं समझा जाता था। फलस्वरूप संकीर्णता बढ़ने लगी।

जो दुष्परिणाम हुआ, वह किससे छिपा है? अब राष्ट्रवादी या स्वतंत्रता- प्रेमी लोग धर्म की असलियत समझ गए हैं और वही उसे अपने रास्ते का रोड़ा समझते हैं।

बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करने तक पहुँचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतंत्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमागी गुलामी का नाम देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है- बच्चे को हमेशा के लिए कमजोर बनाना है। उसके दिल की ताकत और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है। लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो भी हमें नजर आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है। मसलन हम चाहते हैं कि सभी लोग एक से हों। उनमें पूँजीपतियों के ऊँच-नीच के छूत-अछूत के कोई विभाजन न रहें। लेकिन सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है। बीसवीं सदी में भी पंडित, मौलवी जी जैसे लोग भंगी के लड़के के हार पहनाने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं और अछूतों को जनेऊ तक देने की इंकारी है। यदि इस धर्म के विरुद्ध कुछ न कहने की कसम ले लें तो चुप कर घर बैठ जाना चाहिए, नहीं तो धर्म का विरोध करना होगा। लोग यह भी कहते हैं कि इन बुराइयों का सुधार किया जाए। बहुत खूब! छूत-अछूत को स्वामी दयानन्द ने जो मिटाया तो वे भी चार वर्णों से आगे नहीं जा पाए। भेदभाव तो फिर भी रहा ही। गुरुद्वारे जाकर तो सिख राज करेगा खालसा गाएं और बाहर आकर पंचायती राज की बातें करें, तो इसका मतलब क्या है?

धर्म तो यह कहता है कि इस्लाम पर विश्वास न करनेवाले काफिर को तलवार के घाट उतार देना चाहिए और यदि इधर एकता की दुहाई दी जाए तो परिणाम क्या होगा? हम जानते हैं कि अभी कई और बड़े ऊँचे भाव की आयतें और मंत्र पढ़कर खींचतान करने की कोशिश की जा सकती है, लेकिन सवाल यह है कि इस सारे झगड़े से छुटकारा ही क्यों न पाया जाए?धर्म का पहाड़ तो हमें हमारे सामने खड़ा नजर आता है। मान लें कि भारत में स्वतंत्रता संग्राम छिड़ जाए, सेनाएँ आमने-सामने बंदूकें ताने खड़ी हों, गोली चलने ही वाली हो और यदि उस समय कोई मुहम्मद गौरी की तरह- जैसी कि कहावत बताई जाती है- आज भी हमारे सामने गाएँ, सूअर, ग्रंथ साहिब, वेद-कुरान आदि चीजें खड़ी कर दी जाएँ, तो हम क्या करेंगे? यदि पक्के धार्मिक होंगे तो अपना बोरिया-बिस्तर लपेटकर घर बैठ जाएँगे। धर्म के होते हुए हिंदू-सिख गाय पर और मुसलमान सुअर पर गोली नहीं चला सकते। धर्म के बड़े पक्के इंसान तो उस समय सोमनाथ के कई हजार पण्डों की तरह ठाकुरों के आगे लोटते रहेंगे और दूसरे लोग धर्महीन या अधर्मी- काम कर जाएंगे। तो हम किस निष्कर्ष पर पहुँचे? धर्म के विरुद्ध सोचना ही पड़ता है। लेकिन यदि धर्म के पक्षवालों के तर्क भी सोचे जाएं तो वे यह कहते हैं कि दुनिया में अंधेर हो जाएगा, पाप बढ़ जाएगा। बहुत अच्छा, इसी बात को ले लें।

रूसी महात्मा टाल्सटाय ने अपनी पुस्तक Essay  and  Letters में धर्म पर बहस करते हुए इसके तीन हिस्से किये हैं-

1. Essentiais of Religion, यानी धर्म की जरूरी बातें अर्थात् सच बोलना, चोरी न करना, गरीबों की सहायता करना, प्यार से रहना, वगैरा।

2. Philosophy of Religion, यानी जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, संसार रचना आदि का दर्शन। इसमें आदमी अपनी मर्जी के अनुसार सोचने और समझने का यत्न करता है।

3. Rituals of Religion, यानी रस्मो-रिवाज वगैरा। मतलब यह कि पहले हिस्से में सभी धर्म एक हैं। सभी कहते हैं कि सच बोलो, झूठ न बोलो, प्यार से रहो। इन बातों को कुछ सज्जनों ने Individual Religion कहा है। इसमें तो झगड़े का प्रश्न ही नहीं उठता। वरन् यह कि ऐसे नेक विचार हर आदमी में होने चाहिए। दूसरा फिलासफी का प्रश्न है। असल में कहना पड़ता है- Philosophy is out-come of Human weakness, यानी फिलासफी आदमी की कमजोरी का फल है। जहाँ भी आदमी देख सकते हैं वहाँ कोई झगड़ा नहीं। जहाँ कुछ नजर न आया, वहीं दिमाग लड़ाना शुरू कर दिया और खास-खास निष्कर्ष निकाल लिये। वैसे तो फिलासफी बड़ी जरूरी चीज है, क्योंकि इसके बगैर उन्नति नहीं हो सकती, लेकिन इसके साथ-साथ शांति होनी भी बड़ी जरूरी है। हमारे बुजुर्ग कह गये हैं कि मरने के बाद पुनर्जन्म भी होता है, ईसाई और मुसलमान इस बात को नहीं मानते। बहुत अच्छा, अपना-अपना विचार है। आइए, प्यार के साथ बैठकर बहस करें। एक-दूसरे के विचार जानें। लेकिन मसला-ए-तनासुक पर बहस होती है तो आर्यसमाजियों व मुसलमानों में लाठियाँ चल जाती हैं। बात यह कि दोनों पक्ष दिमाग को, बुद्धि को, सोचने-समझने की शक्ति को ताला लगाकर घर रख आते हैं। वे समझते हैं कि वेद भगवान में ईश्वर ने इसी तरह लिखा है और वही सच्चा है। वे कहते हैं कि कुरान शरीफ में खुदा ने ऐसे लिखा है और यही सच है। अपने सोचने की शक्ति को छुट्टी दी हुई होती है। सो जो फिलासफी हर व्यक्ति की निजी राय से अधिक महत्त्व न रखती हो तो एक खास फिलासफी मानने के कारण भिन्न गुट न बनें, तो इसमें क्या शिकायत हो सकती है।

अब आती है तीसरी बात– रस्मो-रिवाज। सरस्वती-पूजा वाले दिन, सरस्वती की मूर्ति का जुलूस निकलना जरूरी है और उसमें आगे-आगे बैण्ड बाजा बजना भी जरूरी है। लेकिन हैरीमन रोड के रास्ते में एक मस्जिद भी आती है। इस्लाम धर्म कहता है कि मस्जिद के आगे बाजा न बजे। अब क्या होना चाहिए?नागरिक आजादी का हक कहता है कि बाजार में बाजा बजाते हुए भी जाया जा सकता है। लेकिन धर्म कहता है कि नहीं। इनके धर्म में गाय का बलिदान जरूरी है और दूसरे में गाय की पूजा लिखी हुई है। अब क्या हो? पीपल की शाखा कटते ही धर्म में अंतर आ जाता है तो क्या किया जाए? तो यही फिलासफी व रस्मो-रिवाज के छोटे-छोटे भेद बाद में जाकर National Religion बन जाते हैं और अलग-अलग संगठन बनने का कारण बनते हैं। परिणाम हमारे सामने है।

सो यदि धर्म पीछे लिखी तीसरी और दूसरी बात के साथ अंधविश्वास को मिलाने का नाम है, तो धर्म की कोई जरूरत नहीं। इसे आज ही उड़ा देना चाहिए। यदि पहली और दूसरी बात में स्वतंत्र विचार मिलाकर धर्म बनता हो, तो धर्म मुबारक है।

लेकिन अलग-अलग संगठन और खाने-पीने का भेदभाव मिटाना जरूरी है, छूत-अछूत शब्दों को जड़ से निकालना होगा। जब तक हम अपनी तंगदिली छोड़कर एक न होंगे, तब तक हममें वास्तविक एकता नहीं हो सकती। इसलिए ऊपर लिखी बातों के अनुसार चलकर ही हम आजादी की ओर बढ़ सकते हैं। हमारी आजादी का अर्थ केवल अँग्रेजी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतंत्रता का नाम है– जब लोग परस्पर घुल-मिलकर रहेंगे और दिमागी गुलामी से भी आजाद हो जाएंगे।         

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