
— किशन पटनायक —
असीमित संपत्ति की अवधारणा हमारी बुद्धिहीनता का परिचायक है। हवा, कोयला, जल, जमीन दुनिया के सभी संसाधन सीमित हैं। जब सारे संसाधन सीमित हैं तो संपत्ति कैसे असीमित हो सकती है? संपत्ति के संबंध में अवैज्ञानिक धारणा प्रचलित होती जा रही है कि मनुष्य की संपत्ति अनंत काल तक बढ़ती जाएगी। बढ़ने की सीमाएं हैं। इसलिए सीमित वस्तुओं के आधार पर सुख की कल्पना करनी चाहिए। समाज को सुख की परिभाषा नए सिरे से करनी पड़ेगी।
आधुनिक टेकनोलाजी ने गरीबों की हड्डियों पर समृद्धि के कुछ छोटे-छोटे द्वीप बनाए हैं। ऐसा लगता है कि विकासशील की यही नियति है कि वे भयानक गरीबी के साथ-साथ समृद्धि के छोटे-छोटे द्वीप बनाएं। मिर्जापुर के कुछ हिस्सों को समृद्धि वहां के मूल निवासियों को विस्थापित करने पर मिली है। आधुनिक टेकनोलाजी ने विध्वंस के मामले में ही चमत्कार दिखाया है। विकास की दृष्टि से इसकी कोई चमत्कारिक उपलब्धि नहीं है। आधुनिक विज्ञान ने एक दिन में लाखों लोगों को मारने का कौशल तो पा लिया है, परंतु किसी ऐसी क्षति की पूर्ति के तत्काल उपाय उसके पास नहीं हैं।
इस बार दिल्ली में आया तो सीएनजी (प्रेस्ड नैचुरल गैस) को देखा। जल्दी-जल्दी बदलती हुई दिल्ली को देखकर भय होता है। आधुनिक टेकनोलाजी के साथ कदम मिलाकर चलना इतना खर्चीला है कि एक दिल्ली को बनाने के लिए पूरे देश का पैसा झोंकना होता है। तीन चौथाई आबादी की गरीबी पर एक चौथाई आबादी की संपन्नता बरदाश्त नहीं की जानी चाहिए।
भोजन के लिए प्राकृतिक संसाधनों की नहीं, संस्कृति की कमी है, जिसके चलते हर व्यक्ति को भोजन नहीं मिल पाता। यह एक अपसंस्कृति का हिस्सा है। हर मनुष्य को भोजन मिलना कोई सपना नहीं होना चाहिए। इसे आज ही पूरा किया जाना चाहिए। ऐसा देखा जाता है कि भूखे-नंगे लोगों के सामने भोजन करने में हम शर्म महसूस करते हैं। इसके पीछे एक संस्कृति है। अगर हम भूखे-नंगे लोगों के बीच बेझिझक भोजन करते हैं तो हम खुद और समाज दोनों की नजर में बेशर्म करार दिए जा सकते है। इसी कारण हर संस्कृति संपन्न व्यक्ति को यह सोचना होगा कि धरती पर उसका हिस्सा कितना होना चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी हों या अंबानी, हर व्यक्ति की आय का कोई नजदीकी संबंध भारत की आय से होना चाहिए।
अपसंस्कृति निश्चित तौर पर विषमता पैदा करती है। इसके विपरीत संस्कृति की केंद्रीय अवधारणा यह है कि मनुष्य मात्र समाज है। आधुनिक सभ्यता को सभ्य कहा जाए या नहीं? कुछ खाते-पीते लोगों के सामने अगर भूखे-नंगे लोगों की अनगिनत तादाद खड़ी हो तो सांस्कृतिक कसौटी पर समाज को सभ्य नहीं कहा जा सकता। वह समाज अपसंस्कृति वाला समाज होगा। परिवार ऐसी संस्था है जिसमें समानता का मूल्य सबसे ज्यादा होता है। लेकिन अब परिवार सिकुड़ता जा रहा है। परिवार तीन आदमी का होता जा रहा है। यानी तीन आदमी से ज्यादा आप समानता की बात नहीं कर सकते हैं। और परिवार धन संचय करनेवाली संस्था बन गया है। दुख की बात है कि मनुष्य में आपसी समानता का भाव कम होता जा रहा है।
संस्कृति के साथ मूल्य जुड़े होते हैं। परंतु मूल्यों को कैसे समझा जाए, यह समस्या है। अगर आप जीवन को मानते हैं तो जीवन जिन बातों से सुरक्षित होता है, वही एक मूल्य है। बाइबिल में एक कथा है। एक आदिम व्यक्ति अपने भाई की हत्या कर देता है। देवदूत द्वारा अपनी भर्त्सना किए जाने पर आदिम आदमी पूछता है : क्या मैं अपने भाई का रक्षक हूँ। क्या एक भाई दूसरे भाई का रक्षक है। यहीं से पहला मूल्य शुरू होता है। परस्परता के इसी भाव के लिए ईश्वर की ईजाद की गयी होगी। इस संदर्भ में सभी ईश्वर की संतान हैं यानी भाई हैं।
प्रकृति में प्राणियों में इतनी विषमता नहीं है। एक मादा बिल्ली और नर बिल्ली में कितना फर्क है?
(जनसत्ता, 2001)
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