इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका – एम.एन. राय : अंतिम किस्त

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एम.एन. राय (21 मार्च 1887 - 25 जनवरी 1954)

(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)

म्राट हर्षवर्धन की मृत्यु सातवीं शताब्दी के मध्य में हो गई थी। इस प्रकार भारत का राजनीतिक विघटन इस्लाम के उत्थान के साथ समानांतर रूप में चल रहा था। कोई भी सम्राट चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसकी मृत्यु से इतिहास में मोड़ नहीं आता है। विघटन की प्रक्रिया उसके पहले कई शताब्दियों से चल रही थी। बौद्ध क्रांति ने उसे कुछ समय के लिए रोक दिया था, लेकिन उसके पराजित होने पर वह विघटन की प्रक्रिया बढ़ी, तेज हुई और आगे बढ़ी। निस्संदेह बौद्ध धर्म के मठों में पतन हुआ और उससे संपूर्ण भारतीय समाज पर विघटनकारी प्रभाव पड़ा जिससे मुसलमानों की विजय को सहायता मिली, जिस प्रकार अन्य देशों में ईसाई मठों के पतन के कारण वहाँ ऐसा हुआ था।

महमूद गजनवी के आक्रमण के संबंध में अपने विचार व्यक्त हुए हावेल लिखता है : उसकी सेनाओं को प्रायः हर स्थान पर विजय मिली, इससे उसकी प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई और उसके प्रभाव में पश्चिमोत्तर प्रांत की अनेक लड़ाकू जातियों ने इस्लाम को स्वीकार कर लिया। उनके लिए युद्ध करना और विजय प्राप्त करना ही धर्म था और युद्ध क्षेत्र में विजय प्राप्त करना उनके लिए इस्लाम ग्रहण करने का सबसे बड़ा प्रमाण माना गया। (हावेल – आर्यन रूल इन इंडिया)। महमूद के आक्रमण से हिंदू देवताओं के तीर्थस्थल लड़खड़ा गए, जहाँ अतीत काल से भक्त लोग पूजा-उपासना के साथ दान-दक्षिणा देते थे। इन आक्रमणों के फलस्वरूप उन देवी-देवताओं में विश्वास करने वाले धर्म को गहरा धक्का लगा और उनके विश्वास टूटे।  उन परिस्थितियों में सामान्य धार्मिक भावनाओं और आध्यात्मिक रुचि वाली जनता ने अपने शक्तिहीन देवताओं पर विजय प्राप्त करने वाले धर्म को अंगीकार कर लिया और नए धर्म को स्वीकार करने पर उन्हें लाभ भी बहुत अधिक हुआ।

युगों से लाखों लोग थानेश्वर, मथुरा और सोमनाथ के देवताओं की दैवी और आध्यात्मिक शक्तियों पर विश्वास करते थे। उनके पुजारियों ने असीमित संपदा और धन का संग्रह कर लिया था क्योंकि उन्होंने लोगों में इस विश्वास को बढ़ाया था कि वे लोग देवता की कृपा श्रद्धालुओं के लिए अर्जित कर सकते थे। इस्लामी आक्रमण से एकाएक विश्वास और परंपरा का वह महल कच्चे भवन की भांति चरमराकर टूट गया। जब महमूद की सेनाएं मंदिर के निकट पहुंची तो पुजारियों ने लोगों को समझाया कि देवता आक्रमणकारियों का विनाश कर देंगे। लोग इस रहस्य को देखने की प्रतीक्षा कर रहे थे, लेकिन वैसा नहीं हुआ। वास्तव में ईश्वर (अल्लाह) ने आक्रमणकारियों को विजय दिलाई। रहस्यों और विश्वासों पर विश्वास करने वाले, बड़े और अधिक शक्तिशाली पर विश्वास करने लगते हैं। धर्म के सभी मान्य मापदंडों से जिन लोगों ने उस संकटकाल में इस्लाम को स्वीकार किया, वे लोग बड़े धार्मिक थे।

भारत में मुसलमानों की विजय के आंतरिक और बाह्य कारणों की जांच करना, आज के युग के लिए व्यावहारिक मूल्य की बात है। इस प्रकार की जांच से कट्टर हिन्दू को अपने पड़ोसी मुसलमान को निम्नकोटि का व्यक्ति समझने से पक्षपाती दृष्टिकोण से मुक्ति मिलेगी। पुराने प्रचलित विचारों को छोड़ कर हिंदू मुसलमानों की भारत की विजय का रचनात्मक प्रभाव समझ सकने में सफल होगा। इससे विजेता के प्रति विजित में व्याप्त घृणा से भी वह अपने को मुक्त कर सकेगा। जब तक व्यवहार में इस प्रकार का आमूल परिवर्तन नहीं होगा, इतिहास का निष्पक्ष अध्ययन नहीं हो सकेगा और सांप्रदायिक समस्या को भी सुलझाया नहीं जा सकेगा। इसके बिना हिंदू मुसलमानों को भारतीय राष्ट्रीयता का अंग नहीं मान सकेगा और जब तक वे यह नहीं मान लेंगे कि भारत की प्राचीन सभ्यता के नष्ट होने और विघटित होने के बाद उत्पन्न संकट से इस्लाम ने उद्धार किया, तब तक वे इस्लाम के महत्त्व को स्वीकार नहीं कर पाएंगे। इसके साथ ही इतिहास के सही अध्ययन से मुसलमानों की भारत की विजय को ठीक ढंग से समझा जा सकेगा और उसकी सहायता से हम अपने वर्तमान दुर्भाग्य के कारणों को दूर कर सकेंगे।

दूसरी ओर आज के कुछ मुसलमान भारत में उनके  धर्म की गौरवपूर्ण भूमिका के प्रति सचेत हो सकते हैं। उनमें से बहुत-से लोग विवेकवाद और अरबों के संशयवाद को अस्वीकार करके उनकी निंदा कर सकते हैं जो कुरान की शिक्षाओं से भिन्न है। लेकिन इस्लाम के इतिहास में उन बातों का अविस्मरणीय स्थान है जिसे उसकी मौलिक उदारता   और अधार्मिक प्रवृत्तियों के आधार पर अरब के दार्शनिकों ने विकसित किया था, बजाय उनके, जिन्हें बाद के प्रतिक्रियावादी मुल्लाओं और नए धर्म परिवर्तन करने वाले तातार लोगों ने बर्बर कट्टरपन का प्रचार करके किया था। भारत में प्रवेश करने के पहले इस्लाम की प्रगतिशील भूमिका समाप्त हो गई थी।

भारत में सिंधु नदी और गंगा के तट पर इस्लाम का झंडा सरासेनी अरब योद्धाओं ने नहीं फहराया था, वरन उसे विलासिता से भ्रष्ट ईरानियों और मध्य एशिया के बर्बर लोगों ने फहराया था, जिन्होंने बाद में इस्लाम धर्म अपनाया था। इन दोनों शक्तियों ने अरब साम्राज्य को पराजित किया – जिस अरब साम्राज्य की स्थापना हजरत मुहम्मद की याद में कायम की गई थी। फिर भी आक्रमणकारी मुसलमानों का स्वागत उन लाखों लोगों ने किया जो ब्राह्मण प्रतिक्रिया के शिकार थे, जिन्होंने बौद्ध क्रांति को पराजित कर भारतीय समाज में अराजकता का संकट उत्पन्न कर दिया था। ईरानी और मंगोल विजेता अरब योद्धाओं की परंपरागत श्रेष्ठता, सहनशीलता और उदारवाद के प्रभाव से एकदम वंचित नहीं थे।

इस तथ्य से कि आक्रमणकारियों के रूप में थोड़ी संख्या में दूरदराज के देशों से आकर जिन लोगों ने भारत में अपना राज्य कायम किया और यहां उन्हें विरोधी धर्मों का सामना करना पड़ा, जिनमें से भारी संख्या में इस्लाम को स्वीकार कर लिया, यह प्रमाणित होता है कि भारतीय समाज की वस्तुगत आवश्यकताओं को उन्होंने पूरा किया था। भारत में आने के समय इस्लाम अपने मौलिक क्रांतिकारी विचारों को छोड़ चुका था, लेकिन हिंदू समाज की तुलना में उसमें क्रांतिकारी प्रभाव अधिक था। भारत में मुसलमानों का राज्य मजबूत हुआ, वह केवल सैनिक विजयों के कारण नहीं हुआ, वरन उसको सुदृढ़ करने में इस्लाम धर्म के प्रचार से भी सहायता मिली थी। यही इस्लामी धर्म और कानूनों का महत्व था।

यहां तक कि अपने मुस्लिम विरोधी विचारों के होते हुए भी हावेल ने बिना किसी संकोच के यह स्वीकार किया है : मुसलमानों के राजनीतिक विचारों का प्रभाव हिंदू सामाजिक जीवन पर दो प्रकार से पड़ा। उसके कारण हिंदुओं की जाति-व्यवस्था अधिक जड़वत हो गई और दूसरी ओर उसके प्रति विद्रोह की भावना अधिक तीव्र हो गई। उसने हिंदू समाज की नीची जातियों के लोगों को उसी प्रकार आकर्षित किया जैसे रेगिस्तान के बद्दुओं को किया था….उसे स्वीकार करके शूद्र भी स्वतंत्र व्यक्ति हो गया और शासक के धर्म में जाने से उसकी स्थिति ब्राह्मणों-मालिकों के समान हो गई। यूरोप के नवजागरण की भांति उससे बौद्धिक मंथन शुरू हुआ और बहुत-से ऐसे लोग उत्पन्न हुए जो अपने मौलिक विचारों के लिए प्रसिद्ध हुए। नवजागरण की भांति यह बौद्धिक मंथन अधिकतर नगरों में हुआ। उसके प्रभाव में बद्दुओं ने तंबुओं में रहना छोड़ दिया था, उसी भांति शूद्रों ने अपने गांवों को छोड़ दिया….
                      (
हावेल – आर्यन रूल इन इंडिया)

हावेल का वक्तव्य अत्यंत उज्ज्वल है। इसमें भारत के अनेक धर्म-सुधारकों का उल्लेख किया जा सकता है जिनमें कबीर, नानक, तुकाराम, चैतन्य आदि प्रमुख हैं और जिन्होंने ब्राह्मणवाद की कठोरता के विरुद्ध जन-विद्रोह को प्रकट किया था। प्रायः सभी धर्म-सुधारक मुसलमानों के आगमन के बाद पैदा हुए थे।

इतिहास के इस तथ्यपरक अध्ययन से यह स्पष्ट है कि हिंदुओं का मुसलमानों के धर्म और संस्कृति के  प्रति अनादर का भाव कितना बेहूदा था। उस भावना ने इतिहास का अनादर किया और हमारे देश के राजनीतिक भविष्य को क्षति पहुंचाई है। मुसलमानों से ज्ञान प्राप्त करके यूरोप आधुनिक सभ्यता का नेता बन गया। आज भी उसके ऋणी लोग अपने पुराने ऋण के लिए शर्म का अनुभव नहीं करते हैं। दुर्भाग्य से भारत इस्लामी संस्कृति के इस ऋण से पूरा लाभ इसलिए नहीं उठा सका क्योंकि उसने इस्लाम की विशिष्टता को स्वीकार नहीं किया। अब देर में आए नवजागरण के बीच में भारतीय हिंदू और मुसलमान, दोनों मानव-इतिहास की स्मरणीय प्रेरणा से लाभ नहीं उठा सके। मानव-संस्कृति में इस्लाम के ज्ञान और संस्कृति के योगदान की उचित प्रशंसा को समझने से हिंदुओं को यह धक्का लगेगा कि उनका आत्मसंतोष अहंकार मात्र था। इस ज्ञान से आज के मुसलमानों को उनके संकुचित दृष्टिकोण से मुक्त किया जा सकता है और अपने सच्चे धर्म की प्रेरणा से उन्हें राष्ट्रीय जागरण में शामिल किया जा सकेगा।

(समाप्त)

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