अच्छाई की प्रेरणा

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— जयप्रकाश नारायण —

हले लोग अच्छा बनने की कोशिश करते थे, जिसकी प्रेरणा उन्हें किसी उच्चतर नैतिक सत्ता से प्राप्त होती थी जिसमें उनकी आस्था होती थी। और अच्छाई का अर्थ सच्चाई, ईमानदारी, करुणा, पवित्रता और निःस्वार्थ भाव जैसे गुण हुआ करते थे। लोगों को लगता था कि अच्छा बनने की कोशिश उनका सबसे बड़ा नैतिक दायित्व है। यह अलग बात है कि वे इस कोशिश में कितना सफल हो पाते थे या कोशिश करने की दिशा में कितना आगे बढ़ते थे। मुख्य बात यह है कि समाज में हर व्यक्ति के अच्छा बनने के उद्देश्य मौजूद थे, चाहे धार्मिक या ईश्वरीय आदेश के रूप में हो या इस रूप में कि ये किसी व्यक्ति के सर्वोच्च विकास, आत्म-अनुभव के लिए अनिवार्य हैं, इनसे शांति और आनंद प्राप्त होता है; इनसे जीवन-मृत्यु के चक्र से छुटकारा और निर्वाण प्राप्त होता है।

वर्तमान समाज में धर्म की पकड़ ढीली पड़ गई है, ईश्वर में आस्था हिल गई है, नैतिक मूल्यों को इतिहास के अंधकार युग का निरर्थक बोझ मानकर त्याग दिया गया है, यानी सार-संक्षेप यह है कि भौतिकवाद ने मनुष्य के हृदय में अपनी पक्की जगह बना ली है। ऐसे में, क्या कोई अच्छाई की प्रेरणा बच गई है? और क्या यह प्रश्न वर्तमान यथार्थ, समस्याओं और मानव समाज के आदर्शों के लिए सचमुच प्रासंगिक है?

मेरा तो पक्के तौर पर मानना है कि आज हमारे लिए इससे अधिक प्रासंगिक कोई और प्रश्न नहीं है।

मोटे तौर पर जिसे वर्तमान समाज की भौतिकवादी परिस्थितियाँ कहा जाता है, उसके बावजूद हर जगह लोग अपने-अपने तरीकों से पृथ्वी पर स्वर्ग उतार लाने की कोशिश में समाज के सुधार, पुनर्निर्माण और उसे मानवीय बनाने में जुटे हुए हैं। ये कोशिशें, यहाँ तक कि अपनी मूल अवधारणा में साम्यवाद जैसे महत आदर्शों और महत्त्वाकांक्षाओं से प्रेरित प्रयास भी मानवीय क्षुद्रता के कठोर पाषाण के टकराकर चूर-चूर होते नजर आ रहे हैं। इसलिए यह एहसास अधिक स्पष्ट है कि मानवीय पुनर्रचना के बिना सामाजिक पुनर्गठन असंभव है। अगर व्यक्ति अच्छे नहीं हैं और खासकर समाज का अभिजन अच्छा नहीं है तो समाज अच्छा नहीं हो सकता।

तो, यही आधुनिक समस्या का निचोड़ है। मनुष्य आदर्श नहीं तो एक न्यूनतम अच्छा समाज बनाने की कामना करता है।

आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी से यह काम पहले की तुलना में आसान हो गया है। लेकिन मनुष्य के पास उस तकनीक का अभाव है जिससे वह खुद को निखारे। आदर्श भुला दिए गये हैं और सत्ता, पद, क्षुद्र स्वार्थों की होड़ शुरू हो गई है। इस तरह नए समाज के निर्माण की समूची अवधारणा ही बैठती जा रही है।

इसलिए मनुष्य की अच्छाई की समस्या आज केंद्रीय महत्त्व की समस्या है। आज लोग पूछते हैं कि उन्हें किसलिए अच्छा बनना चाहिए। ईश्वर, आत्मा, नैतिकता, पुनर्जन्म, जन्म-मृत्यु का चक्र, किसी का अस्तित्व तो नहीं है। मनुष्य तो मात्र पदार्थ का एक पुंज ही है, जो संयोग से चेतन हो उठा है, और अंततः उसे पदार्थ के अनंत समुद्र में तिरोहित हो जाना है। उसे अपने चारों ओर बुराई ही सफल होती दिखती है – सब तरफ घोर भ्रष्टाचार, मुनाफाखोरी, झूठ, फरेब, क्रूरता, सत्ता-राजनीति, हिंसा का ही बोलबाला दिखता है। ऐसे में, स्वाभाविक रूप से उसके भीतर सवाल उठता है, उसे नैतिक क्यों बनना चाहिए। हमारा आज का समाज और उस पर हावी भौतिकवादी दर्शन फौरन जवाब देता है – इसकी जरूरत नहीं है। इसके बाद तो वह अपनी सारी बुद्धि समूची प्रतिभा इस नई अनैतिकता में झोंक देता है और इसी अनैतिकता के मकड़जाले में मानव मात्र के सपने, उसकी आकांक्षाएँ उलझकर दम तोड़ती जा रही हैं।

अनेक वर्षों तक मैं द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की देवी का उपासक रहा हूँ – वह मुझे दूसरे दर्शनों के मुकाबले अधिक बौद्धिक संतुष्टि देती थी। लेकिन दर्शन की यह तलाश तो अधूरी रही ही, मेरे मन में यह एहसास घर कर गया कि किसी भी रूप में भौतिकवाद मनुष्य से सही मायनों में मानवीय बनने के साधन छीन लेता है।

भौतिकवादी सभ्यता में मनुष्य के पास अच्छा बनने की कोई तर्कसंगत प्रेरणा नहीं है। शायद द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के राज में डर मनुष्य को भीरु बना देता है और पार्टी ईश्वर का स्थान ले लेती है। लेकिन जब वह ईश्वर ही स्वार्थी हो जाए तो स्वार्थ सार्वभौमिक सत्य बन जाता है।

इसलिए मेरी पक्की राय है कि मनुष्य को भौतिकवाद से परे जाकर अच्छाई की प्रेरणा तलाशनी होगी। साथ ही साथ मैं यह भी महसूस करता हूं कि सामाजिक पुनर्निर्माण का कार्य भौतिकवादी दर्शन की प्रेरणा से सफल नहीं हो सकता।

यह सवाल पूछा जा सकता है कि मनुष्य के अच्छा बनने के लिए क्या कोई विशेष सामाजिक स्थिति अनिवार्य है। क्या मनुष्य मूल रूप से अच्छा नहीं होता? क्या हर समाज में अधिकांश लोग अच्छे नहीं होते?

उत्तर हाँ और नहीं दोनों हैं।

मनुष्य सामाजिक-जैविक प्राणी है। वह आंशिक रूप से प्रकृति का और अंशतः समाज का पैदा किया हुआ है। प्रकृति ने मनुष्य को किस रूप में बनाया है, यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। बेशक, अच्छाई और बुराई की अवधारणा आध्यात्मिक या जैविकता से परे है। प्रकृति में कुछ अच्छा या बुरा नहीं होता। संभव है अपने और जाति-रक्षा के भाव के अलावा मानव स्वभाव ऐसा निरपेक्ष भाव हो जो सामाजिक स्थितियों के अनुसार नैतिक आग्रह अख्तियार कर लेता हो।

यह सही है कि हर समाज में ज्यादातर लोग अच्छे और सभ्य हैं। ये लोग कोई नैतिक फैसला लेने की आवश्यकता महसूस किए बगैर जीवन जीते रहते हैं। उनका दैनिक जीवन संकीर्ण घेरों में व्यतीत होता है और वे अच्छे या बुरे जैसे प्रश्नों के उत्तर रीति-रिवाजों और परंपरा से पा लेते हैं।

लेकिन एक तो ये निर्दोष सभ्य लोग ही सामाजिक उकसावे की स्थितियों में अचानक हिंसक और बर्बर हो उठते हैं। अच्छे हिंदू और मुसलमान सद्भाव के साथ साथ-साथ जीते हैं, लेकिन सामाजिक भावनाएं भड़कती हैं तो ये लोग ही एक-दूसरे की गर्दन पर तलवार चलाने से जरा भी नहीं हिचकते, जिसका दंश हम झेल चुके हैं। दूसरे, समाज के चरित्र के लिए और उसकी प्रगति की दिशा के लिए जो बातें महत्त्व की होती हैं, वे उस कदर आम लोगों में नहीं होतीं जितना समाज के आभिजात्य वर्ग में। इसी वर्ग का दर्शन और क्रियाकलाप आम आदमी की नियति तय करता है। यह आभिजात्य वर्ग या शासन समूह जिस सीमा तक अनैतिक या अधार्मिक होगा, उसी सीमा तक मानव मात्र में बुराइयों का बोलबाला भी बढ़ जाएगा।

मुझे एक संभावित गलतफहमी भी तत्काल दूर कर लेने दीजिए। मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि भौतिकवाद के दर्शन को मानने वाले सभी बुरे होते हैं और सभी गैर-भौतिकवादी अच्छे होते हैं। मेरा आशय यह है कि भौतिकवाद में मनुष्य को अच्छाई की ओर बढ़ने और उसके विशेष प्रयोजन की कोई प्रेरणा नहीं है। दूसरी ओर, जो पदार्थ से इतर चीजों को खोजते हैं, उनके लिए अच्छा न होने को उचित ठहराना मुश्किल होगा।

गैर-भौतिकवाद – मैं इस नकारात्मक पद का प्रयोग कर रहा हूँ क्योंकि मेरी नजर में कोई खास दर्शन नहीं है – पदार्थ को अंतिम सत्य मानने से इनकार करके फौरन मनुष्य को एक नैतिक धरातल पर पहुँचा देता है और किसी बाह्य उद्देश्य के संदर्भ के बिना उससे अपनी सही प्रकृति को पहचानने और जीवन के उद्देश्य ढूँढ़ने को प्रेरित करता है। यह उसे अच्छाई और सच्चाई की स्वाभाविक राह पर ले जाने का सशक्त माध्यम बन जाता है। इसी से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भौतिकवाद से परे जाकर ही मनुष्य अपनी स्वाभाविक प्रकृति पा सकता है और अपना उद्देश्य हासिल कर सकता है।

(इनसेंटिव्स टु गुडनेस का हिंदी अनुवाद)  

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