— रामस्वरूप मंत्री —
महापुरुषों की स्मृति और मूल्यांकन से ही कोई समाज ऊर्जा ग्रहण कर निखर सकता है। हालांकि मौजूदा उपभोक्तावादी दौर में इन चीजों के प्रति अनास्था है। ऐसी परिस्थिति में डॉ राममनोहर लोहिया के शब्दों में कहें तो ‘निराशा के कर्तव्य’ ही देश और समाज को नयी राह दिखा सकते हैं। गांधीजी के बाद डॉक्टर राममनोहर लोहिया ही सबसे प्रखर विचारक-चिंतक लगते हैं जो अपनी धरती, मिट्टी, उसकी सुगंध से जुड़े हुए हैं। आज जब देश विभिन्न समस्याओं से जूझ रहा है तब डॉ लोहिया ही ऐसे चिंतक हैं जिनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है तथा भविष्य में भी उनकी प्रासंगिकता बनी रहेगी। लोहिया ने भी गैर कांग्रेसवाद की कल्पना को 1967 में मूर्त रूप में कामयाब तो देखा, पर जीवन की सांध्य वेला में निराश और हताश हो गए थे।
डा लोहिया अक्सर कहा करते थे कि ‘सत्ता सदैव जड़ता की ओर बढ़ती है और निरंतर निहित स्वार्थों और भ्रष्टाचारों को पनपाती है। विदेशी सत्ता भी यही करती है। अंतर केवल इतना है कि वह विदेशी होती है, इसलिए उसके शोषण के तरीके अलग होते हैं। किंतु जहां तक चरित्र का सवाल है, चाहे विदेशी शासन हो या देशी शासन, दोनों की प्रवृत्ति भ्रष्टाचार को विकसित करने में व्यक्त होती है।’ उन्होंने कहा था कि ‘देशी शासन को निरंतर जागरूक और चौकस बनाना है तो प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह अपने राजनीतिक अधिकारों को समझे और जहां कहीं भी उस पर चोट होती हो, या हमले होते हों उसके विरुद्ध अपनी आवाज उठाए।
डा. लोहिया की कही बातें वर्तमान भारतीय शासन व्यवस्था पर सटीक बैठती हैं। आज देश में गैर-बराबरी, भ्रष्टाचार, भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, कुपोषण, जातिवाद, क्षेत्रवाद और आतंकवाद जैसी समस्याएं दिनोदिन और भी गहराती जा रही हैं और शासन अपने लक्ष्य से भटका हुआ है तो इसके लिए सरकार की नीतियां और भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था ही जिम्मेदार है।
नैतिक और राष्ट्रशील मूल्यों में व्यापक गिरावट के कारण अमीरी-गरीबी की खाई चौड़ी होती जा रही है। सरकारें बुनियादी कसौटी पर विफल हैं और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों से निपटने में नाकाम हैं। नागरिक समाज के प्रति उनका रवैया संवेदनहीन है।
डॉ लोहिया के बताये रास्ते पर चलनेवाला आज कोई दल, संगठन या फोरम नहीं है। दल के संबंध में उनकी कल्पना अद्भुत थी। ‘फ्रैगमेंट्स ऑफ वर्ल्ड माइंड’ में उन्होंने कहा है कि ‘सोशलिस्ट पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी तो उसका नकारात्मक दृष्टिकोण है। शिकायत करने की ताकत तो बची हुई है, पर सोचने और कर्म करने की ताकत गायब हो गयी है। यह नकारात्मकता सोशलिस्टों का स्वभाव बन गयी है। उन्होंने कहा भी कि ‘सफल कर्म के लिए रचनात्मकता और संघर्षशीलता दोनों का मिश्रण जरूरी है।
उनके मौलिक विचारों में ताकत तो है, पर उनके अनुयायी संगठन ने इसे नहीं बढ़ाया। लोहिया ने कहा था कि ‘उनके आदर्शों को मान कर चलनेवाली पार्टी भले ही खत्म हो जाए, उनकी नीतियां खत्म नहीं होगी।’ ‘आज नहीं तो कल कोई पार्टी खड़ी होगी और इन्हीं नीतियां के ईद-गिर्द मुल्क को आगे ले जाएगी।’ क्योंकि दूसरा कोई पथ नहीं है। आज यह पथ न केवल सुनसान है, बल्कि जोखिम भरा भी। इस पर चलने से लोग डर रहे हैं, पर पथ कहीं है तो पथिक आएंगे ही।
लोहिया महज नेहरू खानदान के आलोचक, गैरकांग्रेसवाद के जनक या कुछ विवादास्पद नीतियों के प्रतिपादक नहीं थे.. उन्होंने देशज समाजवाद का एक खाका दिया।
‘निराशा के कर्तव्य’ और 300-400 बरसों तक पिटनेवाली पार्टी की कल्पना उन्होंने की। साम्यवाद की विफलता और पूंजीवादी व्यवस्था की आंतरिक रुग्णता के बाद आज लोहिया की प्रासंगिकता बढ़ी है। भाषा के संबंध में उन्होंने जो विचार दिये, उसका राजनीतिक इस्तेमाल हुआ। उनकी आर्थिक दृष्टि पर चर्चा नहीं हुई।
भारत के संदर्भ में आर्थिक, राजनीतिक क्रांति या बदलाव के साथ-साथ सामाजिक क्रांति या बदलाव नहीं होगा, तब तक बात नहीं बनेगी।
लोहिया की दृष्टि में समाजवादी आंदोलन आर्थिक, राजनीतिक परिवर्तनों से अधिक एक नयी संस्कृति पैदा करने का आंदोलन है। समता, आजादी, बंधुत्व पर आधारित डॉक्टर लोहिया का राजनीतिक रूप निश्चित रूप से प्रभावी, जुझारू और अकेले चलने की ताकत से भरापूरा था। अनोखा और साहसपूर्ण वह दौर तो ऐसा रहा कि अकेले ही बरसोंबरस चट्टान की तरह निर्विकार भाव से वह राजसत्ता से जूझते रहे।
विलक्षण ऊर्जा और ताकत के साथ, लोकसभा के अंदर और बाहर, संवेदनशील, चिंतक, विचारक और भारतीय संस्कृति के व्याख्याता के रूप में उनके व्यक्तित्व का सम्यक मूल्यांकन नहीं हुआ। भारत के तीर्थ, भारत की नदियां, इतिहास चक्र, हिमालय, भारत की संस्कृति, भाषा, भारतीय जन की एकता, भारत का इतिहास लेखन और विश्व एकता के सपने पर उन्होंने मौलिक और अनूठे ढंग से विचार किया।
बहुआयामी सोच थी उनकी। डॉ लोहिया की राजनीति इन्हीं मौलिक विचारों-बिंदुओं की बुनियाद पर खड़ी थी। राजनीति के उस भवन में कई चिंदिया आज लग गयी है। झाड़-झंखाड़ भी हैं, पर वह बुनियाद स्रोत जिनसे उनकी राजनीतिक विचारधारा प्रस्फुटित हुई थी, आज और अधिक प्रासंगिक है।
कुछ राजनीतिक विश्लेषक आरोप लगाते हैं कि आज भाजपा इस गैरकांग्रेसवाद की सीढ़ी पर चढ़ कर ही शीर्ष पर पहुंची है। वह पूर्णतया असत्य भी नहीं है। हालांकि जनतंत्र में डॉ लोहिया रोटी (सत्ता) पलटने की अनिवार्यता पर बार बार जोर देते थे। वह निराश रहने और काम करने (निराशा के कर्तव्य) के पैरोकार थे।
संगठन नहीं चला पाने की उनमें जबरदस्त कमी रही। लोहियावादियों के बारे में यह जुमला ही चल पड़ा कि वे दलतोड़क होते हैं. खंड खंड में बंटने को अभिशप्त। आज खुद को लोहियावादी माननेवाले कांग्रेस, भाजपा, जनता दल, सजपा, तेलुगु देशम से आइपीएफ तक फैले हैं। अर्थशास्त्रियों के संदर्भ में पुरानी प्रचलित कहावत है, पांच अर्थशास्त्री होंगे, तो छह विचार होंगे। यही हालत लोहिया के अनुयायियों की रही। समाजवादियों का अतीत चाहे जितना भी समृद्ध रहा हो, पर आज उनकी विरासत पर सवाल तो उठते ही हैं। 1942 के प्रखर क्रांतिकारी आज क्या विरासत छोड़ गये हैं? 1942 के 80 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इस अवसर पर आत्ममंथन होना चाहिए।
विचारक और आंदोलनकारी, राजनीतिज्ञ और सामाजिक, क्रांतिकारी, विद्रोही और परंपराशोधक की अंतर्विरोधी जान पड़ती भूमिकाएं उन्होंने एकसाथ निभायीं। पूंजीवाद विरोधी, साम्यवाद विरोधी, साथ ही गांधी के व्याख्याकार भी, अधिनायकवाद विरोधी, पर संसदीय प्रणाली की सीमाओं के प्रखर आलोचक, दार्शनिक दृष्टि से उदारवादी, पर कार्यक्रम पर अमल की दृष्टि से उग्रवादी। अपरिमित करुणा और दबे-पीड़ित, पिछड़े-दलित, नारी के अधिकार के सवाल पर सात्विक आक्रोश से भरे।
‘महारानी के खिलाफ मेहतरानी’ को खड़ा करने के सामाजिक समता के संकल्प से बद्ध वे खुद को नास्तिक मानते थे। परंतु मनुष्य में विश्वास और उसके कल्याण में घोर आस्था थी। समता और समृद्धि पर आधारित नई सभ्यता का सपना देखनेवाले। भारतीय इतिहास के यक्ष प्रश्न उन्हें मथते रहे।
भारत के तीर्थस्थल, सारनाथ, अजंता, एलोरा, कोणार्क, खजुराहो, महाबलीपुरम, रामेश्वरम, उर्वशीयम जैसी जगहें उन्हें बार बार खींचती थीं। चित्रकूट के किस रास्ते राम दक्षिण की ओर निकले होंगे? उनकी अभिलाषा रही कि ‘एक बार चित्तौड़ से द्वारिका पैदल जाऊं जिस रास्ते मीरा गयी थी। पासपोर्ट के बिना ध्रुव से ध्रुव तक के सभी देश में यात्रा करने की आकांक्षा से प्रेरित विश्व सभ्यता का सपना देखनेवाले डॉ साहब ने अद्भुत कार्यक्रम दिये।
सत्याग्रह, सिविल नाफरमानी, घेरा डालो, दाम बांधो, सप्तक्रांति, नर नारी समता, रंगभेद, चमड़ी सौंदर्य, जाति प्रथा, मानसिक गुलामी, सांस्कृतिक गुलामी, दामों की लूट, शासक वर्ग की विलासिता, खर्च पर सीमा, पन्द्रह आने बनाम 3 आने, संगठन सरकार के बीच का रिश्ता, जैसे असंख्य मुद्दे उन्होंने उठाये और लड़े। पहली बार केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। धारा के खिलाफ चलने की राजनीति की परंपरा डाली और अपने निकट के लोगों को सही मुद्दे उठा कर चुनाव हारने के लिए खड़ा किया। उन्हें शानदार हार पर बधाई दी।
चटगांव विद्रोह के अपने साथी दिनेश दासगुप्त को हिंदी के सवाल पर कलकत्ता में लोकसभा चुनाव में खड़ा किया। पत्थर खाये, पर मुद्दे उठाना नहीं छोड़ा। उन्होंने ऐसी राजनीतिक पार्टी की कल्पना की… “मैं चाहता हूं कि हमारी पार्टी ऐसी हो जाए कि पिटती रहे, पर डटी रहे। आखिर वह कौन सी ताकत थी, जो तीन सौ वर्ष तक ईसाई मजहब को, बार-बार पिटने के बाद भी चलाती रही? समाजवादी आंदोलन के पिछले 25 वर्ष के इतिहास को आप देखेंगे, तो पायेंगे कि सबसे बड़ी चीज जिसकी इसमें कमी है, वह है कि पिटना नहीं जानते। जब भी पिटते हैं धीरज छोड़ देते हैं, मन टूट जाता है और हर सिद्धांत और कार्यक्रम को बदलने के तैयार हो जाते हैं?”
इस कसौटी पर उनके उत्तराधिकारियों को आप कस सकते हैं। और इसके लिए उन्होंने ‘निराशा के कर्तव्य’ निरूपित किये। कहा, पिछले 1500 बरस में हिंदुस्तान की जनता ने एक बार भी किसी अंदरूनी जालिम के खिलाफ विद्रोह नहीं किया। मरने से एक माह पूर्व बिहार (गिरिडीह) में अपने अंतिम भाषण में कहा, मुझे इतना धीरज है कि अपने सपनों को अपनी आंखों से सच होते न देख पाऊं और फिर भी मलाल नहीं करूं’ पर आश्वस्त थे कि “लोग मेरी बात सुनेंगे जरूर, पर मेरे मरने के बाद।”
द्रौपदी को आदर्श बतानेवाले डॉ लोहिया ने गांधी के ‘रामराज्य’ के स्थान पर ‘सीताराम राज’ की कल्पना की। राधा के चरित्र के नये व्याख्याकार। मीरा के सात्विक सौंदर्य-भक्ति से प्रभावित। हिंदी के नये शब्दों-मुहावरों के प्रणेता। उस दौर की पूरी की पूरी सृजनशील पीढ़ी को झकझोरने वाले, ‘कल्पना’ ‘जन’ और ‘मैनकाइंड’ के माध्यम से हिंदी जगत को वैचारिक रूप से उद्वेलित करनेवाले लोहिया, ‘इतिहास चक्र’ के रचनाकार, उनका व्यक्तित्व एक बंधे-बंधाये सांचे में निरूपित नहीं किया जा सकता। नयी सभ्यता की आवश्यकता के संदर्भ में आज लोहिया की प्रासंगिकता गांधी के बाद सबसे अधिक है। तीसरे विकल्प की तलाश में बेचैन उनकी पूरी राजनीति और विचार-यात्रा, इस नये विकल्प, नये मनुष्य, नयी व्यवस्था और नये सपने के ईद-गिर्द ही रही। और इस भटकती दुनिया, (सिर्फ भारत में नहीं) साम्यवाद और पूंजीवाद के विफल होने के बाद की बेचैन दुनिया को आज सबसे अधिक एक नये विकल्प, नयी सभ्यता और संस्कृति की तलाश है। और इसी कारण आज भी लोहिया बहुत प्रासंगिक हैं।