— विनोद कोचर —
चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर, भावी राजनीतिक दल के संविधान हेतु, पदयात्रा के दौरान जनता से सुझाव मांग रहे हैं, और उन सुझावों को वे सार्वजनिक भी कर रहे हैं। उन्हें एक सुझाव यह भी मिला है कि भावी दल के संविधान में, ‘राइट टु रिकॉल’ का प्रावधान भी शामिल किया जाना चाहिए।
‘राइट टु रिकॉल’ (जन प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार) मौलिक रूप से लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में,1974 में छेड़े गए संपूर्ण क्रांति आंदोलन का ही एक मुद्दा है। इसी आंदोलन की कोख से निकली थी सारे कांग्रेस-विरोधी दलों के विलय से बनी जनता पार्टी, जिसने 1977 में कांग्रेस को पराजित करके केंद्र में सरकार बनाई थी।
बाद की घटनाओं ने ये साबित किया कि जेपी के कंधों पर चढ़कर सत्ता हथियाने वाली जनता पार्टी ने जेपी के साथ बेवफाई करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।
राइट टु रिकॉल के बारे में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई कहने लगे कि यह मांग अव्यावहारिक है। समाजवादियों ने भी इस मांग के संदर्भ में जेपी की बजाय प्रधानमंत्री का ही साथ दिया था।
तब मैंने जेपी के अनन्य सहयोगी और सर्वोदय आंदोलन में जेपी के साथ काम करने वाले गांधीवादी चिंतक, प्रोफेसर ठाकुरदास बंग को, इंदौर के विसर्जन आश्रम में रहनेवाले सर्वोदय नेता दादाभाई नायक के कहने पर, 13 अक्टूबर 1977 को एक पत्र लिखा था जिसमें मैंने लिखा था कि, “……जनप्रतिनिधियों की वापसी का, जेपी का विचार बड़ा क्रांतिकारी विचार है। वह दिन दुनिया के लोकतांत्रिक इतिहास का स्वर्णिम दिन होगा जिस दिन जेपी का यह विचार सही मायने में साकार होगा। जनता पार्टी की सरकार अगर सचमुच में क्रांतिकारी सरकार होती तो इस पार्टी के नेतागण ऐसा कभी न कहते कि जेपी का यह विचार व्यावहारिक विचार नहीं है। मैं इन नेताओं के विचार से सिर्फ इस हद तक सहमत हूँ कि चुनाव प्रणाली में बुनियादी फेरबदल किये बिना, जनप्रतिनिधियों की वापसी का सुझाव व्यावहारिक नहीं बन सकता। मैं श्री मोरारजी देसाई के इस तर्क से भी सहमत हूँ कि 6 लाख मतदाताओं के हाथों में वापसी का अधिकार कैसे दिया जा सकता है?
“इस विषय पर, जेल से निकलने के बाद से ही मैं सोच रहा हूं।मेरे सोच ने जिस सुझाव को जन्म दिया है, उसे मैंने श्री दादाभाई नायक के सामने रखा तो उन्होंने मुझसे कहा कि इस विषय पर मैं आपसे पत्र व्यवहार करूँ।
“अगर जनप्रतिनिधियों की वापसी का अधिकार उनके क्षेत्र की ग्रामपंचायत और नगरपालिका के सदस्यों को सौंप दिया जाय तथा ग्राम पंचायत व नगरपालिका सदस्यों की वापसी का अधिकार, सीधे उनके क्षेत्र की जनता के हाथों में सौंप दिया जाय तो मेरा यह विश्वास है कि जेपी का यह निर्गुण विचार सगुण व्यवहार में बदल जाएगा और हिंदुस्तान की आर्थिक व सामाजिक क्रांति का दरवाजा भी तेजी के साथ खुल जाएगा।इस व्यवस्था में वापसी का अधिकार, चुने हुए सीमित लोगों के हाथ में रहेगा और उन सीमित लोगों पर भी उनके क्षेत्र की जनता का सीधा अंकुश रहेगा जिसकी वजह से, अपनी कुर्सी छोड़ने व बदनाम होने का खतरा उठाकर ही वे गलत फैसलों में हाथ डालने की जुर्रत करेंगे। शुरू के कुछ सालों में अराजकता जैसी स्थिति जरूर दिखाई देगी लेकिन वास्तव में वह अराजकता नहीं बल्कि तूफानी गति से चलनेवाली, मतदाताओं की राजनीतिक शिक्षा होगी। इस दौर के गुजर जाने के बाद हिंदुस्तान के राजनीतिक मंच से अवसरवादी व स्वार्थी तत्वों का सफाया हो जाएगा और बड़ी संख्या में, दलितों व अन्य गरीबों के हितचिंतक प्रतिनिधि चुने जाने लगेंगे।
“कृपया मुझे सूचित करें कि इस सुझाव के बारे में आप क्या सोचते हैं? जेपी के जीवन कार्यों को मैं तब तक अधूरा मानता हूं जब तक कि उनका यह विचार सगुण रूप धारण नहीं कर लेता।…..”
मेरे उपरोक्त पत्र के जवाब में, ठाकुरदास जी बंग ने 15 अक्टूबर 1977 को मुझे जो अंतर्देशीय पत्र लिखा, वह निम्नानुसार है –
” ….पत्र पढ़कर बेहद खुशी हुई। आप कारावास में गांधी विचारों की ओर आए, यह और भी आनंद की बात है। लंबे कारावास में चिंतन का मौका मिलता है और जेल में पर्याप्त शांति भी मिलती है उसका आपने पूरा लाभ उठाया। आपका इस परिवार में स्वागत है।
“पिछले तीन-चार महीनों से मैं भी सार्वजनिक सभाओं में जनप्रतिनिधियों की वापसी के अधिकार के बारे में बोलता रहा हूं। मैंने भी आपका ही सुझाव रखा है कि पंचायतों और नगर परिषदों के सदस्यों को यह अधिकार रहना चाहिए। साथ-साथ मैंने सार्वजनिक सभाओं में यह भी कहा है कि चुनाव के बाद एक साल या दो साल तक वापस बुलाने के अधिकार का उपयोग न किया जाय क्योंकि जनप्रतिनिधियों को स्थिति समझने के लिए एवं काम करने के लिए कम से कम साल भर का समय मिलना चाहिए। वापसी बुलाने के अधिकार के लिए कुछ ग्राउंड्स भी तय किए जा सकते हैं। जैसे कि- भ्रष्टाचार, मतदान क्षेत्र से संपर्क नहीं रखना इत्यादि। मैं आपके विचारण से पूर्ण रूप से सहमत हूँ। इस विषय में चिंतन चलना चाहिए और परिसंवाद होकर विषय साफ होना चाहिए।”
1977 से 2022 तक के इस अंतराल में, राइट टु रिकॉल के कुछ प्रयोग नगरपालिकाओं और ग्रामपंचायतों में हुए हैं जिनका कोई सार्थक परिणाम नहीं निकल पाया है क्योंकि ज्यादातर समय तक इन संस्थाओं पर नौकरशाहों का नियंत्रण रहता है। और कौन नहीं जानता कि भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और कामचोरी जैसे नौकरशाही के काले कारनामों से आजाद भारत का इतिहास कूट-कूटकर भरा पड़ा है।
विधायकों और सांसदों की वापसी का अधिकार जब तक मतदाताओं के मौलिक अधिकार के रूप में संविधान में शामिल नहीं होता तब तक आर्थिक व सामाजिक समता का गांधी-लोहिया-जयप्रकाश का निर्गुण सपना निर्गुण ही बना रहेगा।