— श्रीनिवास —
विवादस्पद ‘सीएए’ (नागरिकता संशोधन कानून) की तलवार अब भी लटक रही है। जिनको लगता था कि देशव्यापी विरोध के कारण केंद्र सरकार ने सीएए लागू करने का इरादा छोड़ दिया है, उनका भ्रम भी दूर हो गया होगा। नहीं हुआ है, तो हो जाना चाहिए।
बीते अक्टूबर माह में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने गुजरात के दो जिला कलेक्टरों को नोटिफिकेशन जारी कर मेहसाणा और आणंद में रह रहे पाकिस्तानी शरणार्थियों को नागरिकता प्रमाणपत्र प्रदान करने का निर्देश दे दिया है। भाजपा विधायकों ने इसे केंद्र की प्रतिबद्धता बताकर खुशी व्यक्त की, मगर भाजपा के ही एक विधायक ने सवाल किया है कि इनको 1955 के नागरिकता कानून के तहत नागरिकता क्यों दी जा रही है, नये कानून के तहत क्यों नहीं? यही सवाल तृणमूल कांग्रेस ने भी किया है।
तृणमूल कांग्रेस ने तो एक बार फिर कहा है कि देश में सीएए लागू नहीं हो सकेगा। और बंगाल में तो हम लागू नहीं ही होने देंगे। कांग्रेस और माकपा इस मुद्दे पर तृणमूल के साथ हैं।
यह तो स्पष्ट ही है कि गुजरात में रह रहे पाकिस्तानी शरणार्थियों को 1955 के कानून के तहत ही नागरिकता मिलेगी, इसलिए कि अभी तक वर्ष ’19 में संशोधित नागरिकता कानून की नियमावली नहीं बन सकी है। यानी सीएए अब तक अधूरा है, मगर उसे लागू करने के संकल्प में कोई कमी नहीं है।
इस तरह ठंडे बस्ते में पड़ा दिख रहा सीएए का मुद्दा अचानक फिर से गरमाने की स्थिति पैदा हो गयी है। वैसे दरअसल यह ठंडे बस्ते में था भी नहीं। इसी साल 6 मई को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने पश्चिम बंगाल में एक जनसभा में बोलते हुए कहा था- ‘कोविड महामारी समाप्त होने पर सीएए लागू करेंगे।’ इस तरह श्री शाह ने एक बार फिर विवादस्पद सीएए और एनआरसी लागू करने के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता दुहरा दी थी। उन्होंने इसकी कोई निश्चित तारीख तो नहीं बताई थी, मगर यह संकेत जरूर दे दिया कि सरकार के इरादे में कोई बदलाव नहीं आया है। और अब वह प्रक्रिया विधिवत शुरू हो गयी है।
हालांकि सीएए की संवैधानिकता पर अभी सुप्रीम कोर्ट में विचार होना बाकी है। सुप्रीम कोर्ट ने इससे सम्बद्ध 232 याचिकाओं (जिनमें अधिकतर जनहित याचिकाएं हैं) की सुनवाई की तारीख आगामी छह दिसंबर तय की है।
यह तो सर्वविदित ही है कि 1955 में बने नागरिकता कानून में 2019 में एक संशोधन हुआ, जो संसद से पारित होकर लागू घोषित हो गया। इसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से वर्ष 1947 के बाद 2014 तक भारत आ चुके शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने का प्रावधान है। इस संशोधित कानून के तहत सिर्फ हिंदू, सिख, बौद्ध, ईसाई, जैन और पारसी धर्मावलम्बियों को ही नागरिकता दी जाएगी। यानी यह संशोधन सिर्फ मुसलमान को इस सूची से बाहर रखने के लिए किया गया।
यह सवाल भी अपनी जगह कायम है कि सिर्फ तीन देशों के शरणार्थियों के लिए नागरिकता कानून में ऐसा बदलाव करने की जरूरत क्या थी, इसके पीछे सरकार की मंशा क्या थी या है? यह सवाल खासकर कुछ माह पहले श्रीलंका में हुई उथल-पुथल के कारण वहां के नागरिकों के भागकर भारत आने और भविष्य में बड़ी संख्या में श्रीलंका से होने वाले पलायन की आशंका के कारण भी उठा।
भारत सरकार श्रीलंका से वहां के बिगड़ते हालात के कारण आ रहे या आनेवाले ‘तमिलों’ (जिनमें अधिकतर हिंदू हैं) को भारत की नागरिकता नहीं देगी, यह तो तय है। इसलिए कि सीसीए यानी संशोधित नागरिकता कानून में ऐसा प्रावधान नहीं है, क्योंकि यह सिर्फ तीन देशों के शरणार्थियों के लिए बना है। लेकिन ऐसा प्रावधान क्यों नहीं है, इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं है।
उल्लेखनीय है कि कोई चार माह पहले श्रीलंका में आर्थिक बदहाली के कारण वहां से बड़ी संख्या में तमिलों के आने की आशंका के मद्देनजर तमिलनाडु सरकार ने उनको शरणार्थी मानने का निर्णय लिया था। हालाँकि मुख्यमंत्री श्री स्टालिन ने यह भी कहा था कि ऐसे लोगों के बारे में अंतिम निर्णय लेने (नागरिकता देने या न देने) का अधिकार तो केंद्र को ही है। बेशक तमिलनाडु सरकार का फैसला मानवीयता के लिहाज से स्वागतयोग्य था और है। मगर इसके साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया कि भारतीय नागरिकता कानून में हुए बदलाव, यानी सीएए के पीछे कोई ठोस तर्क नहीं है। इसलिए अब भी उस पर पर नए सिरे से विचार की जरूरत है। क्यों? आगे इसका जवाब देने का प्रयास किया गया है।
सीएए में तो सिर्फ तीन देशों से, वह भी धार्मिक प्रताड़ना के शिकार होकर आने वालों का जिक्र है। उनमें सिर्फ मुसलिमों को उस सूची से बाहर रखा गया है। तो अपने देश में छाये संकट-आर्थिक बदहाली या शासकीय अराजकता के कारण आ रहे श्रीलंकाई तमिल भारत में ही बसना चाहें, तो क्या होगा? यदि सरकार उनको नागरिकता देना चाहे तो क्या नागरिकता कानून को फिर संशोधित किया जाएगा? ये तो अन्य कारण से आ रहे हैं। यदि उनको नागरिकता देने पर विचार होगा, तो क्या एक बार फिर उनमें से तमिल ‘मुसलमानों’ को बाद (एक्स्क्लूड) कर दिया जाएगा?
सीएए बनने के बाद हुए विवाद और विरोध प्रदर्शनों के समय भी यह मुद्दा उठा था। उसके आलोचकों ने ऐसे संभावित हालात के मद्देनजर सवाल किया था कि कानून में यह बदलाव सिर्फ तीन देशों के लिए क्यों? उनमें से पाकिस्तान और बांग्लादेश तो भारत से अलग होकर बने। यदि अफगानिस्तान को जोड़ा गया तो म्यांमार को क्यों छोड़ दिया, जो कभी ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा था? इसलिए कि वहां के बहुसंख्यक समुदाय का धर्म कुछ और है? संयोग से श्रीलंका के साथ भी यही पेच है। और बौद्ध भी बहुसंख्यकवादी अतिवाद से संचालित हो सकते हैं, यह तो दीख ही रहा है।
सीएए +एनआरसी : क्रोनोलोजी स्पष्ट है
रोचक बात यह है कि सीएए के तहत उन तीन देशों से आनेवाले मुसलिम शरणार्थी को नागरिकता नहीं दी जाएगी, ऐसा लिखा नहीं है। लेकिन किन धर्मों के लोगों को दी जाएगी, यह लिखा हुआ है। और उस सूची में ‘मुसलिम’ नहीं है। तो लिखे बिना भी स्पष्ट कर दिया गया कि किसी मुसलिम को शरणार्थी नहीं मानेंगे। और जो पहले आ गये हैं, उनको (‘एनआरसी’ लाकर) खोज कर निकाल बाहर करेंगे।
कमाल है कि फिर भी यह कानून ‘मुसलिम विरोधी’ नहीं है! हालांकि अमित शाह यह कहते हुए कि इस देश के मुसलिम सहित किसी नागरिक को कोई परेशानी नहीं होगी, बार बार क्रोनोलोजी समझाते रहे हैं। वे साफ साफ कहते रहे हैं कि पहले सीएए आएगा, फिर ‘एनआरसी’ आएगा। यानी हम हर नागरिक की पहचान करेंगे और घुसपैठियों को भागाएंगे। अब किसी हिंदू, ईसाई, बौद्ध, जैन या पारसी के पास जरूरी कागज नहीं हो, तब भी उसे ‘घुसपैठिया’ तो नहीं ही माना जाएगा। हर हाल में वह शरणार्थी ही रहेगा, लेकिन ऐसा हर मुसलमान संदिग्ध और ‘घुसपैठिया’ बन जाएगा।
तो क्रोनोलोजी स्पष्ट है.. मंशा भी सपष्ट है।
पहले से पूछा जा रहा एक सवाल है कि इस कानून की जरूरत क्या और क्यों थी? पाकिस्तान और बांग्लादेश या किसी भी देश से आनेवाले शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान तो 1955 में बने कानून में भी है। उसके तहत बहुतेरे शरणार्थियों की दी जाती भी रही है। पुराने कानून में बदला यह गया कि अब नागरिकता के आधार और उसकी परिभाषा में धर्म जोड़ दिया गया, जो पहले के कानून में नहीं था। लेकिन कमाल यह कि नरेंद्र मोदी सरकार ने उसी कानून के तहत कम से कम एक (और की जानकारी नहीं है) पाकिस्तानी मुसलिम को भी नागिकता दी है- गायक अदनान सामी को। बेशक वे इसके हकदार थे। लेकिन क्या सिर्फ इसलिए कि वे मोदी-मुरीद हैं? भविष्य में किसी ‘अदनान सामी’ को नागरिकता नहीं मिल सकती, इस फैसले का कोई औचित्य हो सकता है?
सवाल यह भी है कि इस कानून में श्रीलंका, म्यांमार और नेपाल को शामिल क्यों नहीं किया गया? कल यदि म्यांमार और नेपाल से भी ‘भारतीय मूल’ के लोगों को भगाया गया तो? अभी तो तमिल आर्थिक कारणों से आ रहे हैं, कल श्रीलंका में बहुसंख्यक बौद्ध यदि भारतीय मूल के लोगों को प्रताड़ित करेंगे तो उसे धार्मिक आधार पर उत्पीड़न नहीं माना जाएगा? वहां से प्रताड़ित होकर आनेवालों में मुसलमान भी नहीं होंगे? तमिलों में हिंदुओं के अलावा ईसाई और मुसलमान भी धर्मांतरित तमिल ही हैं। तो सिर्फ वहां के मुसलमान ‘तमिल’ नहीं हैं?
नेपाल की तराई में बसे ‘मधेसी’ भी भारतीय मूल के ही हैं। नस्ल, समाज की बनावट, परंपरा और मन से ‘भारतीय’ हैं। उनमें मुसलमान भी हैं। वहां पहाड़ी और मधेसी समुदायों के बीच लगातार तनाव और टकराव की स्थिति बनी रहती है। भारत विभाजन के पचड़े से उनका (मधेसी मुसलमानों का) कोई रिश्ता नहीं था। लेकिन भविष्य में कभी उनके पलायन की हालत बनी, तो उनसे कहा जाएगा कि तुम लोगों के ‘अपने’ लोगों ने पाकिस्तान बनने का समर्थन किया था। सो अब पाकिस्तान या बांग्लादेश जाओ!
अभी एक अनुमान से पचास से अधिक देशों में ‘भारतीय’ मूल के लगभग एक करोड़ लोग वहां के नागरिक के रूप में रह रहे हैं। कभी उनको उन देशों से भगाया गया तो? वह उत्पीड़न धार्मिक या नस्लीय आधार पर भी हो सकता है। वैसी स्थिति में वे कहां जाना चाहेंगे, कहां सुरक्षित महसूस करेंगे? जाहिर है- भारत। लेकिन भारत उनमें से सिर्फ मुसलमानों को स्वीकार नहीं करेगा! बावजूद इसके कि उनके पूर्वज सौ-डेढ़ सौ साल पहले इसी देश से गये थे, जब पाकिस्तान की कोई चर्चा तक नहीं थी। उनको इसलिए शरण नहीं दिया जाएगा कि भारत में रह गयी उनके बाद की पीढ़ियों ने कथित रूप से पाकिस्तान की मांग का समर्थन किया था? भले ही वे भारत के किसी भी हिस्से से गये थे, उनसे कहा जाएगा कि तुम ‘भारतीय’ नहीं हो, पाकिस्तान या बांग्लादेश जाओ!
इसके अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी (या किसी भी देश में) यदि किसी को अनीश्वरवादी/नास्तिक होने के कारण प्रताड़ित किया जाता है, तो उसे धार्मिक आधार पर उत्पीड़न नहीं माना जाना चाहिए? इन देशों में तो ईशनिंदा (ब्लासफेमी) जैसा मध्ययुगीन बर्बर कानून भी है। इस ‘अपराध’ में मौत की सजा तक हो सकती है।
लेकिन यह बात हमारे ‘सर्वज्ञ’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सिपहसालार श्री शाह को समझ में नहीं आयी! या कि किसी खास मकसद के तहत ही नागरिकता कानून में वैसा बेतुका बदलाव किया गया? मोदी और सरकार के अंध समर्थकों को तो खैर समझना नहीं है, पर आश्चर्य कि खुद को ‘निष्पक्ष’ माननेवाले बहुतेरे ‘बुद्धिजीवियों’ को भी आश्चर्य होता है कि इतने जरूरी कानून का कोई विरोध कैसे कर सकता है!
अंत में- कोविड महामारी के कारण सीएए के खिलाफ प्रदर्शनों का सिलसिला थम गया था। अभी उसकी कोई सुगबुगाहट भी नहीं है। लेकिन गुजरात में सीएए की प्रक्रिया शुरू हो जाने और बंगाल में हुई उसकी प्रतिक्रिया से लगता है, एक बार फिर यह सरकार और विपक्ष के बीच टकराव का मुद्दा बन सकता है। कायदे से तो सरकार को भी इसे लागू करने की जिद करने के बजाय सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इन्तजार करना चाहिए। लेकिन यह सरकार बार बार दिखा चुकी है कि उसे विपक्ष और विरोध की परवाह नहीं है।