— शर्मिला जालान —
वर्षों से सुन रही हूँ लरकराना में पैदा हुई सूफी गायिका आबिदा परवीन को। वह क्या है, रूप-अरूप, मूर्त-अमूर्त, दृश्य-अदृश्य जो अनन्तर गाए जानेवाले गीतों में वे रचती हैं ! जो सारे दर्द को सोख लेता है ! जो शोर में, कोलाहल में एकाकीपन नहीं तपोवन सी शांति का एहसास दे जाता है ! वह क्या है उनकी सूक्ष्म और गहन आवाज में जो पोर-पोर में बाहर-भीतर जीर्ण-शीर्ण को हटा खुशनुमा आकाशगंगा की सृष्टि करता है कि अंदर की गांठें खुल जाती हैं। कैसी आत्मीयता और ऊष्मा, धैर्य और तसल्ली है आवाज में। मन पुकारता है। बुद्धि से नहीं बूझ सकते उस एहसास को। नरम-कोमल आवाज में विकलता सम्मोहन की लय में बहती है। जब वे हकीम नासिर को गाती हैं- ‘जब से तूने मुझे दीवाना बना रखा है, जमाने ने भी सर आँखों पर रखा है।’ तब मानव मन धूप-धुला, उजला-निखरा-उमगा और आस्था से भरा तरंगित हो जाता है। गजब का विश्वास यह आवाज मन में रोपती है। मौन बोलने, धीरे-धीरे सहलाने लगता है।
आत्मा उस गूंज, उस ध्वनि से ऐसे आलोकित होती है जैसे मन में दीपमालाएँ जल उठी हों। खुरदुरा-सा दिन सहज और सरल हो जाता है। अधूरा-सा दिन झड़ जाता है। छल, प्रपंच, मोह, स्वार्थ, तृष्णा, स्वार्थ उस आवाज में उस क्षण झड़ जाते हैं। अवधूत, अनुरागी और विरागी भाव संसार की सृष्टि होती है। तथागत कोई व्यक्ति नहीं, कोई दर्शन नहीं, एक भाव बनकर उस आवाज के माध्यम से आत्मा में उतरते हैं। जीवन के कुछ रहस्य जिनसे हम घिरे हुए हैं, वे संशय जो दूर ही नहीं होते, शुद्ध स्वर तीव्र और कोमल को सुनकर उन दुविधाओं से दूर हो जाते हैं और रूखा मन सजल हो जाता है। आबिदा परवीन एक ऐसे स्पेस में ले जाती हैं जहाँ हम उदास होते हैं पर उदासीन नहीं और उस क्षण बोध और सोच के घेरे में होते हैं।
आबिदा परवीन कबीर का निर्गुण गाती हैं। कबीर किस जाति के थे, वह किसी को पता नहीं है। मुस्लिम जुलाहों ने उन्हें पाला-पोसा था। वे गुरु रामानंदाचार्य, जो राम भक्तिधारा के थे, के शिष्य थे। कबीर सनातन परंपरा से जुड़ते हैं, भले ही निर्गुण उपासक रहे। निर्गुण और सगुण को लेकर सनातन परंपरा में कोई झमेला नहीं है। कबीर ने समाज में जो अन्याय और मूढ़ता थी उस पर जो क्रोध किया। किसी को भी, चाहे वह ब्राह्मण हो या तुर्क, नहीं बख्शा। कबीर के निर्गुण समझने के लिए हठयोगियों की पारिभाषिक शब्दावली में गहरी पैठ बनानी पड़ती है। कबीर की भाषा अलौकिक है और आबिदा परवीन की आवाज उस अलौकिक को साधने की सामर्थ्य रखती है। कबीर का निर्गुण और आबिदा परवीन के स्वर दोनों का मेल अनहद की गूँज से आते हुए मेघ हैं -‘मन लागो यार फकीरी में’।
आबिदा ‘सबद’ गाती हैं तो हमारी आत्मा उस उस गूंज और ध्वनि से, उस तरल स्वर से कई अर्थ पहचानती है।
‘जब से तू ने मुझे दीवाना बना रखा है, संग हर शख्स ने हाथों में उठा रक्खा है’
– हकीम नासीर’
‘दुनिया बड़ी बावरी पत्थर पूजने जाए घर की चक्की कोई न पूजे जाका पीसा खाए’
– कबीर
‘पत्थरों आज मेरे सिर पर बरसते क्यूँ हो मैंने तुम को भी कभी अपना खुदा रखा है’
– हकीम नासीर’
शायर ‘हकीम नासीर’ के बोल के साथ कबीर का मिश्रण करती है, कबीर का सम्पुट लगाती है वहां पर सूफी और सनातन के ऐसे संसार की सृष्टि होती है जहाँ अलगाव नहीं है। तेरा -मेरा नहीं है। वारा-न्यारा नहीं है।
आबिदा परवीन गाती हैं। ‘जब से तूने मुझे दीवाना बना रखा है’ यह ‘दीवाना’ बनाना वह नहीं है जो हम समझते हैं। आबिदा का ‘दीवाना बनाना’ अलग है। उसकी भाषा और ताप अलग है। यह दीवाना बनना उस अलौकिक से अनुराग का चरम है। सूफ़ी मानते हैं अल्लाह के जमाल(माधुर्य) और जलाल(ऐश्वर्य) से दीदार करना है।
आबिदा परवीन के इंटरव्यू को देखा जाए तो वह भी उतने ही पावन हैं। अपने साक्षात्कार में कुछ सूफी शब्दों को दोहराती हैं- ‘क़ल्ब’ ‘कौल’ ‘तसव्वुफ़’ ‘मोमिन’। ‘क़ल्ब’ तसव्वुफ़ में यानी सूफी मत में वही है जो उपनिषद में ‘हृदय’ होता है। हृदय का परिमार्जन अपरिहार्य है। ‘क़ल्ब’ पर भांति-भांति के आवरण हैं। मोमिन यानी प्रणयी को उसे निर्मल-स्वच्छ और पारदर्शी करना होता है। ‘कौल’ के बारे में अल्लाह का कहना है कि पृथ्वी और अंतरिक्ष मुझे धारण नहीं कर सकते किंतु भक्त और प्रेमी का हृदय मुझे धारण कर लेता है।
‘कोक स्टूडियो’ में युवा कलाकार के साथ जुगलबंदी करती हैं तो ऐसा लगता ही नहीं है कि वह ग़ज़ल गा रही हैं लगता है कि कोई प्रार्थना कर रही हैं। उन सूफी गीतों में अबोधता है और कौतुक भी। आवाज में दर्शन-आध्यात्मिक, लौकिक-अलौकिक सभी तरह के भाव हैं। ग़ज़ल को सुनते हुए, मन के अलक्षित प्रदेशों की अंतरयात्राएँ होने लग जाती हैं। यहां मौज भी है तो अध्यात्म भी। यह आवाज भावक को रूढ़ि से मुक्त करती है। यही वह क्षण होता है जब वह अलौकिक संसार में प्रवेश करता है। श्रोता को पता भी नहीं होता कि कोई अलौकिक ऊष्मा उसे दुनियावी भार से मुक्त करती है। उस क्षण श्रोता और भावक अपने संस्कार से और उस प्रशिक्षण से मुक्त होकर अपने आप को हल्का महसूस करता है। वह प्रशिक्षण जो उसके जन्म के पहले और उससे पहले से उसके रक्त-मांस-मज्जा में, शिराओं में उतर रखा है। उस क्षण उस व्यक्ति की पावन जनित निर्मिति होती है। आवाज में सत्य की झलक दिखाई देती है।
आबिदा परवीन को सुनकर उस क्षण अपने को बदला हुआ महसूस किया जा सकता है। इस आवाज में कोई आध्यात्मिक आलोक और प्रज्ञा है। ये सूफी गीत किसी ऐसे ठीये पर पहुंचा देते हैं यह जहां जीत-हार नहीं है। निर्मल मन है।
आबिदा परवीन को सुनना आत्मा को ताप देता है और मन को एक अदृश्य के प्रति समर्पण की गहराई की ओर ले जाता है…हमें मन को संस्कारित करते रहने के लिए ऐसे लेख पढते रहने चाहिए।
बढिया है, शुभकामनायें…
Shukriya. 🙏