मार्क्स और गांधी : एक मूल्यांकन

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पी.एन सिंह (1 जुलाई 1942 – 10 जुलाई 2022)

— पी.एन. सिंह —

(हिन्दी के सुप्रसिद्ध समालोचक स्व डॉ पी.एन. सिंह स्वयं मार्क्सवादी थे. उनका यह लेख पहली बार 3 अक्टूबर 1988 को ‘गाजीपुर समाचार’ में प्रकाशित हुआ था.)

हापुरुषों की न तुलना संभव है और न निर्णायक मूल्यांकन ही। तुलना इसलिए नहीं कि प्रत्येक महापुरुष की अपनी विशिष्ट निजता होती है और उसके अपने विशिष्ट सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक संदर्भ होते हैं। इनके मूल्यांकन में कुछ और परेशानियां भी हैं। पहली यह कि सामान्य प्रचलित प्रतिमान बहुत छोटे पड़ते हैं। ये परिणामपरक होते हैं, मूल्यपरक नहीं। ये मंशा एवं प्रयासों की गुणात्मकता के प्रति नहीं बल्कि ठोस उपलब्धियों के प्रति संवेदनशील होते हैं। इस प्रकार जिन्ना, गांधी और कार्ल मार्क्स से बड़े लगने लगते हैं। दूसरी परेशानी यह है कि महापुरुषों की अपनी-अपनी प्रतिबद्धताएँ होती हैं। अतः वे किसी को तटस्थ नहीं रहने देते। तीसरी यह कि बड़ा व्यक्तित्व जटिल एवं बहुआयामी होता है। वह संघर्षों के बीच जीता है। कभी-कभी उसके आदर्शों, शब्दों एवं क्रियाओं में विसंगतियां दीखती हैं। आवश्यक नहीं कि वह बहुत पढ़ा-लिखा हो। टामस कार्लाइन ने कहा कि ईश्वर कभी-कभी महान कार्यों के लिए मुर्खों को चुनता है। एक दूसरे चिंतक कॉडवेल के अनुसार, अपनी अटपटी भाषा, विरोधाभाषी आचरण तथा अतीतोन्मुखता के बावजूद भी महापुरुष मानव-इतिहास को आगे ढकेल देता है। सामान्य प्रतिमान महापुरुषों के सतही विरोधाभासों में ही उलझ जाते हैं और महापुरुषों के मूल स्वर को नहीं पकड़ पाते। मार्क्स और गांधी दो ऐसे ही महापुरुष हैं। इनसे संबंधित बहसों के तीन आयाम हैं –
1.    न मार्क्स, न गांधी
2.    मार्क्स या गांधी
3.    मार्क्स और गांधी

‘न मार्क्स, न गांधी’ की बात करने वाले मानवीय, सांस्कृतिक एवं बौद्धिक धरातल पर अत्यंत ही बौने लोग हैं। इन्होंने गांधी को केवल अल्पसंख्यकों के राजनीतिक समर्थक के रूप में देखा और मार्क्स को विदेशी घोषित किया। ये देश में पूंजीवादी हिन्दू राष्ट्र स्थापित करना चाहते हैं, जो न उचित है और न संभव ही। अतः यह बहस ही पूर्ण रूप से अप्रासंगिक है।

‘मार्क्स या गांधी’ में भी वैचारिक कठमुल्लापन निहित है। केवल मार्क्स की बात करना किशोर उत्साह है तो केवल गांधी की बात करना नैतिक ऐय्याशी। योरोप में ईसाई समाज सुधारकों ने ‘मार्क्स या ईसा मसीह’ की चर्चा की, और फैबियन विचारकों ने ‘मार्क्स या मिल’ की। इसी प्रकार भारत में मार्क्स या गांधी की बहस उठाई गई। बहुतों को इसकी तुलना भी खटकती है। कट्टर गांधीवादी इसमें गांधी का अपमान देखता है और कट्टर मार्क्सवादी इसमें मार्क्स का अवमूल्यन। आशय यह कि दोनों एक को दूसरे की कीमत पर ही स्थापित करना चाहते हैं।

लेकिन धीरे-धीरे माहौल बदला है। अनेक मार्क्सवादियों ने गांधी का सकारात्मक मूल्यांकन किया है और उनके सत्याग्रही विरोध और असहयोग की सामाजिक-राजनीतिक उपादेयता को स्वीकारा है। इसी प्रकार गांधीवादियों ने भी गांधी जीवन-दर्शन में क्रांतिकारी एवं समाजवादी तत्त्वों की चर्चा की है। अर्थात अब ‘मार्क्स और गांधी’ की सार्थक चर्चा संभव है। इस पर बहस चलाई जानी चाहिए और भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल, इनका सामाजिक राजनीतिक प्रयोग होना चाहिए।

मार्क्स और गांधी के तुलनात्मक मूल्यांकन के कम से कम तीन महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं : व्यक्तित्वपरक, राजनीतिक और वैचारिक। इस आलेख में इन्हीं तीन पक्षों पर प्रकाश डालने की कोशिश है।

गांधी और मार्क्स : व्यक्तित्व के रूप में

व्यक्तित्व-गठन एवं सांस्कृतिक स्थिति के स्तर पर मार्क्स और गांधी एक दूसरे से भिन्न हैं। गांधी संत हैं, मार्क्स विचारक। गांधी व्यक्तित्व के धनी हैं, मार्क्स विचार के। गांधी भारतीय नवजागरण के अंतिम महापुरुष हैं, और मार्क्स योरोपीय नवजागरण के। उन्नीसवीं सदी का भारतीय नवजागरण अतीतोन्मुखी था तथा उसकी स्थिति धार्मिक थी। लेकिन योरोपीय नवजागरण अतीतोन्मुख होते हुए भी मूलतः बौद्धिक और गैर-धार्मिक था। आश्चर्य नहीं, गांधी आजीवन आस्था, प्रेम और नैतिकता पर बल देते रहे, और मार्क्स ऐतिहासिक तर्क, सामाजिक विवेक और न्यायोचित संघर्षों पर।

गांधी मूलतः एक आध्यात्मिक पुरुष थे लेकिन मार्क्स मूलतः सामाजिक। अर्थात गांधी ने मनुष्य की नियति को संसार से परे अतिन्द्रिय सत्ता से जोड़ा, मार्क्स ने मानव स्थिति को सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों से जोड़ा। गांधी- व्यक्तित्व विश्वासी एवं परंपराभक्त कृषक-समाज की अपेक्षाओं के अनुरूप था, परंतु मार्क्स का व्यक्तित्व तर्क-परक, वैज्ञानिक एवं औद्योगिक सभ्यता की मानवीय अपेक्षाओं के अनुरूप गठित था। अतः गांधी राजनीतिक संत बने और मार्क्स राजनीतिक विचारक। आश्चर्य नहीं, गांधी की हठवादिता में भी नम्रता थी और मार्क्स की करुणा में भी उग्रता। नेहरू ने गांधी को ‘मध्ययुगीन ईसाई कैथोलिक संत’ की संज्ञा दी। अतः गांधी-व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द एक रहस्यमय, मध्ययुगीन प्रभा-मंडल बना। किंतु गांधी के ठीक विपरीत मार्क्स की परंपरा दार्शनिकों की है। वह बेकन, हिराक्लिटस, अरस्तू, गैलीलियो, हीगेल, डारविन और फायरबाख की बौद्धिक परंपरा में आते हैं; जहां प्रभामंडल बनने-बनाने के लिए कोई गुंजाइश नहीं रही। अतः मार्क्स-विचार से प्रभावित होकर लोग मार्क्स-व्यक्तित्व की तरफ जाते हैं, जबकि अक्सर गांधी-व्यक्तित्व लोगों को गांधी-विचार तक ले जाता है। इसी कारण गांधी का व्यक्तित्व उनकी वैचारिक विसंगतियों को छिपा देता है। आश्चर्य नहीं, उनके विचारों के अप्रासंगिक हो जाने के बावजूद भी उनके व्यक्तित्व का आकर्षण यथावत कायम है।

नेहरू के अनुसार गांधी सबके लिए एक समस्या और पहेली थे। गांधी संसार के सामान्य सिक्के नहीं थे। वे अपने शब्दों से बड़े थे। अतः केवल उनके लेखन के आधार पर ही उनका मूल्यांकन उचित नहीं। नेहरू ने यहां तक लिखा कि ऐसा महसूस होता था कि गांधी की आँखों के पीछे से कोई अव्यक्त, अनजानी ताकत झांक रही हो। नेहरू गांधी-व्यक्तित्व से इस सीमा तक अभिभूत थे कि उनके लिए गांधी एक विशाल पहाड़ की तरह थे, जिसकी कंदराओं में उनके जैसे लोग भी राजनीतिक तूफानों के खतरनाक थपेड़ों से बचने के लिए शरण लिया करते थे।

गांधी किसी ‘वाद’ के प्रवर्तक नहीं थे। उनका जीवन ही उनका वाद था। अर्थात अपने जीवन को ही उन्होंने अपने विचारों की प्रयोगशाला  बनाया। भावना, शब्द और विचार का अद्भुत समन्वय उनमें था। यही उनकी रहस्यमयी शक्ति का स्रोत था। सत्य एवं अहिंसा के बोध ने उन्हें राजनीति में घसीटा। इसी के चलते वे राजनीतिक फकीर बने और एक धोती लपेटे राजनीतिक मंच पर उतर सके। विकट विरोधों एवं मत-मतांतरों के बीच जीते हुए भी वे यह दावा भी कर सके कि उनके लिए किसी से नफरत करना असंभव था। उन्होंने कष्ट सहना सीखा था, कष्ट देना नहीं। असल में वे एक सच्चे निष्काम कर्मयोगी थे।

गांधी-व्यक्तित्व का धरातल ही दूसरा है। अतः उसे सुकरात, बुद्ध और ईसा मसीह की श्रेणी में रखा गया। संतत्व इनके व्यक्तित्व की धुरी था।

आश्चर्य नहीं, अपने जीवन-काल में ही वे अवतार घोषित होने लगे। सैमुअल स्माइल ने कहा कि चरित्र का धनी व्यक्ति पूजा जाता है, लेकिन मस्तिष्क का धनी व्यक्ति केवल प्रशंसा का पात्र बनता है। लोहिया ने गांधी को ‘राष्ट्रीय चरित्र का पहरेदार’ घोषित किया। रोम्या रोलां ने उनमें जननेता के साथ-साथ संतत्व देखा।

आइंस्टाइन ने कहा कि सदियों बाद मानवता यह विश्वास नहीं कर सकेगी कि हाड़-मांस का ऐसा मनुष्य भी कभी पृथ्वी पर घूमा था। अतः गांधी-विचार भले ही पुराना पड़ जाय, गांधी व्यक्तित्व प्रासंगिक बना रहेगा।

लेकिन जैसा कि कहा जा चुका है कि मार्क्स विचार-प्रधान व्यक्तित्वों की परंपरा के व्यक्ति हैं। अतः उनके आचरण से कम, उनके विचारों ने विश्व को अधिक आंदोलित किया। वे अपने समर्थकों से समझ मांगते हैं, आस्था एवं अंधानुकरण नहीं।

मार्क्स के विचार वस्तुनिष्ठ हैं, वे सामाजिक यथार्थ के द्वन्द्वात्मक विश्लेषण पर टिके हैं। उनका आधार मनोगत सपने अथवा प्रयोग नहीं। मार्क्स-व्यक्ति से स्वतंत्र उनका अपना व्यक्तित्व एवं अपनी प्रामाणिकता है। अतः समाज पर मार्क्स का प्रभाव अधिक वास्तविक और टिकाऊ है। गांधी की मृत्यु के साथ ही उनके विचार अवमूल्यित होने लगे। लेकिन मार्क्स-व्यक्ति की मृत्यु का उनके विचारों की प्राणवत्ता एवं गुणवत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

इसका यह भी अर्थ नहीं कि मार्क्स-व्यक्तित्व बहुत कमजोर है। उन्हें भी अपने मित्रों एवं अनुयायियों द्वारा अद्भुत सम्मान मिला। अभी उनकी अवस्था तीस साल की भी नहीं थी कि कम्युनिस्ट लीग के सदस्य उन्हें ‘फादर मार्क्स’ कहा करते थे। उनकी मृत्यु की सूचना देते हुए एंगेल्स ने लिखा- “आज एक मस्तिष्क के अभाव में मानवता छोटी हो गयी। सर्वहारा का आंदोलन आगे बढ़ता जाएगा, लेकिन वह प्रतिभा हमारे बीच न होगी जिसकी ओर प्रत्येक संकट की घड़ी में फ्रांसीसी, रूसी, अमरीकी और जर्मन (क्रांतिकारी) निर्णायक परामर्श के लिए स्वेच्छया मुड़ा करते थे।”

संकीर्ण राष्ट्रवादिता के उस युग में भी मार्क्स ने अपने को ‘विश्व नागरिक’ घोषित किया। मानव-हित उनका एकमात्र ध्येय था।

पुस्तकों को वे उपयोगी साधन मानते थे न कि अंतिम सत्य। योरोप की सारी की सारी भाषाओं में पढ़ते और जर्मन, अंग्रेजी और फ्रांसीसी में साधिकार लिखते थे। गणित के भी वे मर्मज्ञ थे। पाल लफार्ज ने लिखा है- “उन्होंने अपने मस्तिष्क के लिए अपने शरीर की बलि दे दी। सोचते रहना ही उनके लिए सबसे बड़ा सुख था।” विश्लेषण एवं संश्लेषण की उनमें अद्भुत क्षमता थी। बौद्धिक ईमानदारी के वे प्रतीक थे। अपने ग्रंथ ‘पूंजी’ में उन्होंने ऐसे-ऐसे लेखकों को उद्धृत किया जिन्हें कोई जानता तक नहीं था। इस संदर्भ में उन्होंने कहा कि उन्होंने केवल ‘ऐतिहासिक न्याय’ दिया है। जिसको जहाँ जितना प्राप्य है, मिलना चाहिए। ‘पूंजी’ अथवा उनकी कोई अन्य पुस्तक उनकी प्रतिभा की गहराई एवं ज्ञान के विस्तार की अभिव्यक्ति नहीं थी। पाल लफार्ज के अनुसार ‘मार्क्स अपनी कृतियों से बहुत बड़े थे।’

इसी प्रकार मित्र, पति एवं पिता के रूप में भी वे आदर्श थे। एंगेल्स के साथ उनकी मित्रता जीवन-पर्यन्त चालीस वर्षों तक कायम रही। बच्चों के साथ उनका मित्रवत व्यवहार रहता। बच्चे भी उन्हें उनके पारिवारिक नाम ‘मूर’ से ही पुकारा करते। रास्ता चलते वे अनजाने बच्चों से भी बातें करते चलते। घर में प्रत्येक रविवार बच्चों को ही समर्पित रहता। पत्नी के प्रति आत्मिक लगाव की कोई सीमा न थी। अन्यथा जेनी जैसी प्रशियन अभिजात परिवार से संबंधित स्त्री जीवन भर यातना एवं गरीबी न झेल पाई होती। मार्क्स ने भी अपने परिवार को आदर्शों के अनुकूल ही संस्कारित किया। उनकी तीनों लड़कियों ने विभिन्न देशों के समाजवादी क्रांतिकारियों से शादी की और समाजवादी क्रांति के लिए समर्पित रहीं।

मार्क्स केवल विद्वान ही नहीं, व्यवहार में भी क्रांतिकारी थे। इसके लिए उन्हें जीवन भर जूझना पड़ा और सरकारों के आतंक का शिकार होना पड़ा। उनमें भी विचार, भाव एवं क्रिया का अद्भुत ताल-मेल था। दलितों-पीड़ितों के उद्धार के प्रति वे आजीवन समर्पित रहे। आश्चर्य नहीं, वे भी करोड़ों के लिए प्रेरणास्रोत बने। आज विश्व-चिंतन एवं आंदोलनों की वे ही विभाजक रेखा हैं। उन्हीं से ईसाइयत, इसलाम, यहूदी और सनातनी सभी लड़ रहे हैं। इसी से उनके विचारों की ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है।

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