समान शिक्षा का सपना

0


— अरमान —

प्रेमचंद ने अपने उपन्यास ‘कर्मभूमि’ में लिखा है कि यह शिक्षालय है या जुर्मानालय, जहाँ फीस न देने पर नाम काट दिए जाते हैं। शिक्षा के सवाल को प्रेमचंद तब उठा रहे थे, जब देश गुलाम था। वे प्रकारांतर से आजादी के बाद शिक्षा और उसके स्वरूप के सवाल को भी उठा रहे थे। उनका सपना था कि आजादी के बाद सभी बच्चों को मुफ्त, समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलेगी। गरीबी-अमीरी के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। संविधान निर्माताओं ने भी संविधान में सभी नागरिकों के समान अधिकार की परिकल्पना की। वहीं कुछ चीजों का निर्णय देश के कर्णधारों पर छोड़ दिया। स्थितियां तेजी से बदलती गईं; स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्य कमजोर पड़ते गए। उन मूल्यों में सभी बच्चों को समान शिक्षा देने की बात भी कमजोर पड़ गई।

स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि जिस बच्चे की जो सामाजिक आर्थिक हैसियत होती है, उसको उसी के अनुरूप शिक्षा मिल रही है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार तीन तरह के स्कूल पाए जाते हैं- सरकारी स्कूल, सरकार द्वारा वित्तपोषित स्कूल और निजी स्कूल। लेकिन हकीकत में, भारतीय समाज में नौ प्रकार के स्कूल हैं- आदिवासी इलाके में आश्रम स्कूल प्रणाली, राज्यों द्वारा चलाये जा रहे सरकारी स्कूल, राज्यों द्वारा वित्तपोषित निजी प्रबंधन वाले स्कूल, केंद्र सरकार द्वारा वित्तपोषित केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय एवं मिलिट्री स्कूल। निजी विद्यालयों की भी कई श्रेणियां हैं, साधारण फीस वाले निजी विद्यालय, उच्च खर्चीले व महंगे निजी विद्यालय। इसके अतिरिक्त धार्मिक संस्थानों द्वारा संचालित पाठशाला एवं मदरसे आदि शामिल हैं। वैकल्पिक विद्यालयों का भी एक जाल दिखाई पड़ता है जो स्वतंत्र धन व पाठ्यक्रम के अनुसार चलते हैं। इसके अतिरिक्त इंटरनेशनल विद्यालयों की एक श्रृंखला दिखाई पड़ती है। इन तमाम विद्यालयों के अपने पाठ्यक्रम हैं, पढ़ाने का पैटर्न है, और अलग-अलग ओरिएंटेशन हैं।

स्कूल की इन विभिन्नताओं को देखने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि भारत में शिक्षा अलग-अलग ढांचों व पाठ्यक्रमों में बॅंटी हुई है।शिक्षा में भयंकर भेदभाव है। इसका सीधा प्रभाव भारत के लोकतंत्र पर पड़ रहा है।

शिक्षा का बच्चे के सामाजिक-आर्थिक ढांचे के अनुसार  होना, राज्य द्वारा शिक्षा में समानता व एकरूपता की कोशिश नहीं करना बल्कि असमानता को बढ़ाना, लोकतंत्र और उसके मूल्यों को कमजोर करता है। संविधान के मूल ढांचे में दिये गए समता के अधिकार को  प्रभावित कर रहा है।

शिक्षा किसी भी समाज के नवनिर्माण का औजार होती है, जिसका इस्तेमाल कर समाज लोकतांत्रिक मूल्यों, जन्म व जातिगत और दूसरी तरह की परिवेशगत असमानताओं से मुक्ति पाता है। लेकिन जब शिक्षा ही असमानता बढ़ाने लगे तो लोकतंत्र का स्वरूप कैसा होगा, यह स्पष्ट होने लगा है। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि बच्चे के स्कूल में पहला कदम, उसका कैरियर तय कर रहा है।

बहुत मुश्किल से भारतीय समाज, सामंती ढांचे से बाहर आ रहा था। समाज के इस काम में, शिक्षा राष्ट्र-राज्य की मदद कर रही थी। लेकिन लोकतांत्रिक ढांचे के साथ काम कर रही सामंती ताकतों को यह स्वीकार नहीं है कि सबको समान शिक्षा मिले। ऐसे में सवाल, राष्ट्र और राष्ट्रवाद की हमारी परिकल्पना पर भी खड़ा होता है। भारतीय राष्ट्रवाद ने, आधुनिक राष्ट्र और उसकी परिकल्पना जिसमें आधुनिक राष्ट्र के निर्माण की पूरी योजना यूरोप से ली या आयातित की है। यूरोप में राष्ट्रवाद, समान शिक्षा, मध्यम वर्ग और बाजार आदि के माध्यम से आता हुआ दिखाई पड़ता है। वहीं भारत में आधुनिक राष्ट्र और राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद के विरोध व आधुनिक यूरोपीय समाज के मूल्यों से आता है।

भारतीय समाज और राष्ट्र ने, राष्ट्रवाद के कई सारे दौर देखे हैं। प्रश्न खड़ा होता है कि जब भारतीय राष्ट्र ने विकास की पूरी परिकल्पना व प्रशासनिक ढांचे को यूरोप से लिया है, ऐसे में समता पर आधारित समाज व राष्ट्र बनाने के सबसे महत्त्वपूर्ण औजार, “समान शिक्षा प्रणाली” (कॉमन स्कूल सिस्टम) को क्यों नहीं लिया? आजादी के तत्काल बाद भारतीय राज्य के पास संसाधन न होने का बहाना था। लेकिन अब साधन संपन्न भारतीय राज्य को, ‘समान स्कूल प्रणाली’ से कौन रोक रहा है?

भारतीय राज्य क्यों नहीं समान स्कूल प्रणाली को अपना रहा है? राज्य द्वारा शिक्षा के मामले में बच्चों को उनके परिवार की आर्थिक हैसियत के अनुसार शिक्षा लेने के लिए मजबूर कर देना, किस प्रकार का राष्ट्र-राज्य बनाएगा? ऐसे राष्ट्र के प्रति भावी नागरिक के मन में कैसे विचार बनेंगे?भावी नागरिक को अपने जीवन के किसी मोड़ पर, ‘राज्य’ द्वारा किये गए शैक्षिक भेदभाव का पता चलेगा तो वे क्या सोचेंगे? उनके मन में अपने ही राज्य के प्रति कैसी धारणा बनेगी?

समकालीन संदर्भ में देखें तो भेदभावपूर्ण शिक्षा व्यवस्था, सभी तरह की असमानता बढ़ा रही है। भारतीय समाज में पहले से सामाजिक-आर्थिक असमानता का चरित्र जातिगत रहा है। यही कारण है कि संविधान ने, आरक्षण का आधार सामाजिक-शैक्षिक पिछड़ापन रखा है। शिक्षा की असमानता से सामाजिक-शैक्षिक रूप से पिछड़े हुए तबके का, सामाजिक-शैक्षिक पिछड़ापन और तेजी से बढ़ रहा है। पिछड़े तबकों में आर्थिक विपन्नता और तेजी से बढ़ रही है।

हाल के वर्षों में शिक्षा के बजट में लगातार कटौती की गयी है। पिछले कई दशक से शिक्षा में सुधार के लिए बनी, विभिन्न सरकारी समितियों द्वारा जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने की सलाह दी जाती रही है। यह विडम्बना है कि किसी भी सरकार ने शिक्षा में क्रांतिकारी व व्यापक बदलाव के लिए 6 प्रतिशत धन खर्च करने की   इक्छाशक्ति नहीं दिखाई है। ऐसे में संवैधानिक मूल्यों पर आधारित राष्ट्र-राज्य व समाज बनाने का सपना अधूरा दिखाई पड़ता है, जिसे प्रेमचंद ने आजादी से पहले पहचान लिया था।

Leave a Comment