— आनंद कुमार —
तिब्बत के बारे में भारत में हिमालय क्षेत्र में सदैव अपनत्व का भाव रहा है। इसमें धर्म, व्यापार और भूगोल का परस्पर-पूरक योगदान था। लेकिन 1959 में चीन के सैनिक हस्तक्षेप के खिलाफ परमपावन दलाई लामा का अपने हजारों अनुयायियों के साथ भारत में शरण लेना एक बहुत पीड़ादायक मोड़ था क्योंकि तिब्बत कम्युनिस्ट चीन के हाथों अपनी से स्वतंत्रता खो बैठा। तिब्बत चीन का उपनिवेश बना दिया गया। तब से भारत के तिब्बत मित्रों का तिब्बत की आजादी के लिए एकजुट होना एक नयी जिम्मेदारी हो गई। इसकी शुरुआत लोकनायक जयप्रकाश द्वारा 1959 में अफ्रीका-एशिया सम्मेलन के कलकत्ता में आयोजन से हुई। 1960 में लखनऊ में डा. राममनोहर लोहिया द्वारा हिमालय बचाओ सम्मेलन इस दिशा में दूसरा कदम था। इससे पहले 1950 में दिल्ली में ‘हिमालय सम्मेलन’ एक बड़ी कोशिश थी जिसमें तिब्बत, सिक्किम, नेपाल और भूटान के लोगों के हितों की रक्षा के लिए एक हिमालय नीति की जरूरत पर बल दिया गया था।
परमपावन दलाई लामा ने अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भारत के तिब्बत मित्रों की मदद से तिब्बती अस्मिता की रक्षा और संवर्धन के लिए दूरदर्शी नीति अपनाई और आज तिब्बत की मुक्ति साधना चीन के दमनात्मक रवैये के बावजूद एक अंतरराष्ट्रीय प्रश्न बन चुकी है। इसमें विश्वव्यापी तिब्बत मित्रों का निरंतर बढ़ता दायरा एक उल्लेखनीय कारक है। भारत की सरकारी चुप्पी के बावजूद जनता में दलाई लामा के प्रति अपार आदर है। इस सच को चीन भी पहचानता है। इसलिए दलाई लामा और उनके सहकर्मियों की हर गतिविधि पर नजर रखी जाती है। अरुणाचल और लद्दाख में उनके धार्मिक प्रवचन पर भी आपत्ति की जाती है। नेपाल पर तिब्बती शरणार्थियों की गतिविधियों को अंकुशित कराने में सफल चीन भारत में बसे तिब्बती स्त्री-पुरुषों को भी आतंकित करना चाहता है। कभी लोभ और कभी भय के उपाय करता है। हमारी सरकार में इससे कभी-कभी दुविधा पैदा होती रही है। लेकिन तिब्बत मित्रों की सजगता और सक्रियता के कारण हालात प्रतिकूल नहीं किए जा सके हैं।
भारत में तिब्बत मित्रों के तीन प्रकार रहे हैं – 1) सरोकारी, मुखर और सक्रिय मित्र। 2) सरोकारी, मौन और प्रकट मित्र, और 3) सरोकारी और अप्रत्यक्ष मित्र। प्रथम प्रकार के मित्रों की बहुत उपयोगिता है। लेकिन उनकी संख्या बहुत संतोषजनक नहीं रहती। मौन मित्रों की भरमार है लेकिन उनका योगदान निर्गुण और बेअसर रहा है। तीसरी कोटि के तिब्बत मित्रों की अपार संख्या है। उनको दलाई लामा जी के साथ चित्र के लिए उत्साहित पाया जाता है। वह अपने आयोजन में दलाई लामा जी की गरिमामयी उपस्थिति के लिए लालायित रहते हैं। तिब्बती प्रशासन भी उनका सम्मान करता है। लेकिन तिब्बत मुक्ति साधना के बारे में उनका संकोच अफसोस की बात है।
श्री रामचन्द्र ख़ान जी की गिनती सरोकारी और सक्रिय तिब्बत मित्रों के नायकों में की जाती थी। वह अपने विद्यार्थी जीवन में तिब्बत मित्र बने और वयस्क जीवन में सक्रिय और मुखर नायक हो गए। बिहार के पुलिस महानिदेशक जैसे विशिष्ट पद पर होते हुए भारत तिब्बत मैत्री संघ की बिहार राज्य समिति की अध्यक्षता स्वीकार करना उनकी प्रतिबद्धता का बहुचर्चित उदाहरण था। तिब्बत की आजादी के लिए आयोजित संवादों और सम्मेलनों में भागलपुर से लेकर दिल्ली तक उनकी हिस्सेदारी सभी को प्रेरणा देती थी। तिब्बत बचाओ-हिमालय बचाओ के लिए किए जाने वाले प्रदर्शन और धरने में उनका अपनी विदुषी जीवन-संगिनी उषा किरण ख़ान के साथ शामिल होना पत्र-पत्रिकाओं में चर्चा का विषय बना करता था।
श्री रामचंद्र ख़ान ने अपनी निर्मलता से तिब्बत मित्रों में एक अनूठा स्थान बनाया था। वह भारत तिब्बत मैत्री संघ के कार्यक्रमों की शोभा थे। उनका संबोधन प्रेरणादायी रहता था। उन्हें नयी पीढ़ी के तिब्बत मित्र अपना मार्गदर्शक मानते थे। श्री रामचंद्र ख़ान के महाप्रस्थान से उत्पन्न रिक्तता एक अपूरणीय क्षति है। लेकिन उनकी दिखाई राह हमारे लिए अमूल्य भेंट है।