संयम से हीन बाबाओं के देश में

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— ध्रुव शुक्ल —

मुझे बचपन से ही ऐसा संस्कार मिला कि अब तक अपने लिए केवल दो बाबाओं को ही चुन पाया हूॅं—तुलसी बाबा और गांधी बाबा। ज़्यादातर बाबा तो मुझे उपहास के योग्य बिना वैराग्य के छद्मवेशधारी ही लगते रहे हैं। अब कपास के फूल जैसे वे उज्ज्वल साधु ढूंढे़ नहीं मिलते जो किसी इन्सानी बिरादरी का उपदेश रचने में समर्थ हों। ज़्यादातर भेदभाव की लकीरें खींचने वाले ही मिलते हैं।

धर्म और मज़हब के नाम पर खूब मेले भरते हैं पर इनमें जीवन के विराट रूप में बसे काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव की कोई चर्चा नहीं होती। भड़कीले पण्डालों में अशान्तचित्त भीड़ के बीच किसी ऊंचे मंच से भेदभाव से भरी भड़काऊ आवाज़ घण्टों गूंजती रहती है। लोगों को उनके स्वभाव और कर्मविवेक की पहचान भी नहीं करवाई जाती। जो लोग केवल अपने भाग्य की पर्चियां निकलवाने वहां आते हैं, ऐसे लोगों के किसी राष्ट्र का आह्वान होता रहता है। जो ख़ुद डूबेगा और सबको डुबाएगा।

तुलसी बाबा ने तो मुझे सिखाया है कि बड़े भाग्य से यह मानुस तन मिला है। इस शरीर की खूबी है कि यह मुझे अनुकूल और प्रतिकूल को चुनने की क्षमता दिये हुए है। मुझे भलाई और बुराई की पहचान सहज ही होती है। मैं खुद अपनी अच्छी-बुरी करतूतों का गवाह हूॅं। मेरी देह की अदालत में मेरी आत्मा ही न्यायाधीश है और अपनी भूल-ग़लतियों पर मेरा पश्चाताप ही मेरी सज़ा है। मुझे अपने आपसे और किसी से अपना कोई पाप छिपाने के लिए किसी वकील की ज़रूरत नहीं। मुझे अपनी मुक्ति के लिए कोई बहुरूपिया धर्मध्वजाधारी नहीं चाहिए। कोई जात-पांतधारी नेता भी नहीं चाहिए।

गांधी बाबा ने रामायण पढ़कर ही मुझे सिखाया कि मेरा शरीर ही मुझे पार लगाने वाली नाव जैसा है जो अनुकूल प्राणवायु पाकर सबके साथ अपनी यात्रा कर सकता है। उसकी स्वराज्य नीति केवल संयम और सद्भाव है। मैं ऐसा केवट हूॅं जो अपने राम के साथ पार उतरना चाहता हूॅं।

मुझे किसी असंयमित राजनीति और पाखण्डी कर्मकाण्ड की पतवारों की जरूरत ही नहीं। मुझे मेरा आत्मप्रकाश ही मार्ग दिखाने वाला है। मैं इस पृथ्वी के नागरिक की तरह हूॅं जहां सब प्राणी परस्पर आश्रित हैं। मैं पूरे संसार का न्यासी होकर ही संन्यासी कहलाने की योग्यता पा सकता हूॅं। मैं हिन्दू, मुसलमान, ईसाई नहीं हूॅं। मैं तो खुदाई ख़िदमदगार हूॅं। पूरी इन्सानी बिरादरी का पड़ोसी होकर ही अपना गुज़ारा कर सकता हूॅं। मैं इस दुनिया में कुछ दिन रहकर जाने वाला हूॅं।

अरे हां, एक बाबा और हैं–कबीर बाबा। वे मुझे सिखा गये हैं कि मेरी देह में वह देश बसा हुआ है जिसमें जाति, बरन, कुल नहीं हैं। वहां तो सबका सांचा शब्द बसा है। वहां कोई पक्षपात नहीं है। जहां सब एक-दूसरे के रंग में रॅंगे हुए हैं।

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कहाॅं जाई का करी

1.

ऐसो राज जैसें कोढ़ में भई है खाज
लोगन के फूटे भाग छूटे गाॅंव बाखरी
अमरित नाम धारें काल ऐसो पाछें परौ
गहना परे हैं जैसें दो-दो एक पाख री
ढूंढे न मिले इलाज लकवा लगौ समाज
खुलै नें जुबान गूॅंगी इन्सानी बिरादरी
सच खौं छिपावै खूब झूठ कौ प्रचार करै
मीडिया बजारी रोज ध्रुव सें दगा करी

2

ऐसो राज जैसें कोढ़ में भई है खाज
योग करें भोग करें लोभ भी पका करी
पच्छ-प्रतिपच्छन के लच्छन हैं ऐंसे अब
फिरें मों छिपायें कैसें बचे अब साख री
कछु बोलें कछु करें ध्रुव सें छिपायें बात
मुट्ठी भी तनी रहै औ ढॅंकी रहै काॅंख री
हिंदू औ मुसलमान दोउन की एक जान
‘कहें एक एकन सौं कहाॅं जाई का करी’
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अंतिम पंक्ति महाकवि तुलसीदास की

ओ मेरी सरकार सुनो!

मैं भारत का एक नागरिक
भोपाल शहर में रहता हूॅं
मैं अपनी आवाज़ उठाकर
प्रथम नागरिक से कुछ कहता हूॅं –

कहाॅं लिखा है संविधान में
जात-पाॅंत का भेद
फिर क्यों होते रहते हैं
लोकतंत्र में छेद?
डूबे रहते भेदभाव में
सत्ता के प्रतियोगी
फिर कैसे इस लोकतंत्र की
विजय सुनिश्चित होगी?
रोज़ डूबती दिखती रहती
लोकतंत्र की नाव
हम चुनते जिनको, डुबा रहे वे
होते रहते हैं चुनाव

नेता आपस में करते रहते
गठबंधन का धंधा
रोज़ गले पड़ता है मेरे
मंदिर-मस्जिद का फंदा
काम बिगड़ जाता है अक्सर
चले प्रशासन ऐसा
पाॅंच साल पहले जैसा था
जीवन वैसे का वैसा
खूब सजा-सॅंवरा दिखता है
सत्ता का गलियारा
अपनी अरज लिये हर कोई
फिरता मारा-मारा

कितने लोग उठाते रहते
बेबस जीवन का भार
क्या यही लिखा है संविधान में
लोकतंत्र का सार?
कोई स्वस्थ-सानंद नहीं
यह खबर आपको होगी
नेता दिखते हट्टे-कट्टे
जनता दिखती रोगी
क्यों साजिश-सी लगें नीतियाॅं
डिगता जन-विश्वास
ऊब रहा है देश का जीवन
कौन जगाये आस?

जन-गण से ही मिलती जिनको
लोकतंत्र की सत्ता
क्यों बेबस है उनके आगे
जन-गण की ही सत्ता?

संविधान का पाठ भूलकर
जब संसद के गृहप्रवेश का
प्रथम नागरिक को ही नहीं निमंत्रण
जनता कैसे विश्वास करे
संसद किस विधि से उसे हो गयी अर्पण?

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