जब काका थे

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रेखांकन : मुकेश बिजोले

— अरमान अंसारी —

गांव-घर में नाम रखने की प्रथा शहरों से थोड़ी अलग होती है। बच्चे के जन्म के समय का मौसम, प्राकृतिक आपदाएं, बाल अवस्था में बच्चे की हरकतें आदि की भी नामकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। काका बचपन में बिना कपड़ों के इधर-उधर खेलते कूदते रहे होंगे, जिसके कारण गांव-घर में प्यार से किसी ने उन्हें ‘लंगटू’ कहा होगा। फिर लंगटू नाम चल निकला होगा। लंबे-छरहरे कद-काठी के काका अक्सर अपने पिचके गालों के साथ हमेशा मुस्कराते दिखाई पड़ते। पहनावे में ठेठ देहाती, धोती-कमीज, वह भी घुटने से ऊपर तक कभी साफ, कभी मैली, जिसे देखकर साफ-सुथरे लोग मुँह बिचका सकते थे।

जब से मैंने होश संभाला, काका के कई रूप देखे। वे पूरे साल लोगों को चूना देते और हर साल धान, गेहूं का एक-एक बोझा खेत से ले जाते। पर्व-त्योहार का दिन उनके लिए विशेष होता। हर घर में उनके मान के लिए सीधा-चावल रखा जाता। कई बार बहुत आग्रह के बाद वे उसे अपने घर ले जाते। उनके दैनिक जीवन में दो ग्रामीण बाजारों, मलाही बाजार और सोनवल बाजार की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। वे रोज बाजार जाते। शादी-ब्याह हो या किसी की मौत, दही के दाम की सूचना, काका के माध्यम से ही सबको मिलती।

काका को देखकर डाकिया इलाके की तमाम चिट्ठियां उनके हवाले कर देता। तब हमारे गांव के ज्यादातर लोग अपनी आजीविका के लिए पंजाब, हरियाणा के खेतों में काम करते थे। काका डाकिये की तरह तमाम चिट्ठियों को उनके ठिकाने तक पहुंचाते। तब आज की तरह मोबाइल फोन नहीं था। गांव की औरतों खासकर बहुओं के लिए बाजार से काका का आना आशा की एक नई सौगात की तरह होता था। वे उन्हें देखते ही बच्चों को पूछने को कहतीं या शर्माती हुई खुद पूछ लेतीं कि बाबा जी, हमारा कोई पत्र या मनीआर्डर आया है? काका के हां या ना के साथ ही उनकी चेहरे की भाव-भंगिमाएं बदल जातीं। फिर वे मन ही मन अपने-अपने पतियों को दुआएं देतीं या कोसने लगतीं। ऐसी स्थिति में काका धीरज के साथ उन्हें समझाते, सांत्वना देते।

पर्व-त्योहार के दिन काका को एक अलग ही धुन सवार रहती। वे ईदगाह और छठ घाट तक जानेवाले तमाम रास्तों की सफाई करते। रास्ते में पड़नेवाले छोटे-बड़े तमाम गड्ढों और पुल-पुलियों तथा टूटी-खाली जगहों को भरते, ताकि वहाँ से गुजरने वालों कोई कष्ट न हो। कई बार इस काम में वे अकेले पड़ जाते, लेकिन एक बार काम शुरू होने के बाद वे उसे अंजाम तक पहुंचाते।

काका पुराने जमाने के आदमी थे। उन्हें आधुनिक व्यवस्था से बहुत डर लगता था। उन्हें लगता था कि सरकारी आदमी चाहे छोटे-से-छोटे पद पर क्यों न हो, वह बड़ा हाकिम है।वह उलटा-सीधा चाहे जो भी कहता है या करता है, सब अच्छा है। अपने इस विश्वास के साथ काका कर्मचारियों द्वारा अक्सर ठगे जाते। कई बार छोटे-छोटे काम के लिए सरकारी कर्मचारी उनसे मोटी रकम ऐंठ लेते। उन्हें इलाके के तमाम लोग जानते थे। हिंदू-मुसलमान, बुजुर्ग या जवान।सबको काका से कोई न कोई काम पड़ता रहता था।

गांव में कभी किसी मामले को लेकर पंचायत बैठती तो काका खरी-खरी बातें करते थे। कभी उन्हें किसी का डर नहीं होता था। भले ही गलती करनेवाला व्यक्ति कितने ही बड़े कद का क्यों न हो। किसी गरीब के साथ अन्याय होते देख काका का चेहरा एकदम तमतमा जाता। जानवरों को जब कोई नाहक मारता-पीटता या परेशान करता तो वे उतना ही दुखी होते थे। कई बार उनकी लड़ाई जानवरों को पकड़ने-मारने वालों के साथ हो जाती।

कुछ वर्ष पहले काका बीमार पड़े और इस दुनिया से चल बसे। अब गाँव में ईदगाह और छठ घाट पर जानेवाले रास्ते में बड़े-बड़े गढ्ढे हो गए हैं। त्योहार के दिन भी सड़कें गंदी रहती हैं। पुल से गुजरने वाले कई यात्री पुल पर बन गए ओट से टकराकर अपने सामान के साथ गिर पड़ते हैं। इसकी चिंता न मुझे होती है न मेरे जैसी कथित पढ़ी-लिखी बाकी पीढ़ी को। हम काका को अनपढ़-गंवार समझते थे लेकिन उन्हें गाँव-समाज के प्रति अपने कर्तव्य की जो समझ थी वह हमारे जैसे साक्षरों की पीढ़ी में दूर तक दिखाई नहीं देती। काका जब जिंदा थे, हर साल ईद-बकरीद के दिन पान का बीड़ा लिये हुए आंगन के दरवाजे पर खड़े नजर आते थे। जब मैं ईदगाह जाने ले लिए जल्दी-जल्दी कपड़े पहन रहा होता था, वे कहते आपकी बुआ कहा हैं, पान लीजिए, सबको एक-एक बीड़ा दे दीजिएगा।

ईद का त्योहार अब भी आता है। मैं ईदगाह जाने के लिए तैयार होकर अब भी निकलता हूँ। आंगन के दरवाजे तक आते ही काका और उनके पान के बीड़े की याद आती है।गंदी सड़कें और उनपर बन गए गड्ढे काका की याद दिलाते हैं। काश, साक्षर कही जानेवाली हमारी पीढ़ी ने काका से कुछ सीखा होता।

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