देवेन्द्र आर्य की छह कविताएँ

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पेंटिंग- हरजीत ढिल्लो
पेंटिंग- हरजीत ढिल्लो

1. मणिपुर

मणिपुर किस ग्रह में पड़ता है भाई?

मणिपुर उस उस ग्रह में है
जहाँ महिला दिवस मनाये बिना
पूरी नहीं होती तीन सौ पैंसठ की गिनती

मणिपुर कौन से देश में है भाई?

मणिपुर उस देश में है
जहाँ समूची धरती माँ होती है

मणिपुर कौन से क्षेत्र में है भाई?

मणिपुर उसी क्षेत्र में है जहाँ औरतें
मजबूरी की स्वेच्छा से नंगी होकर
सेना के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करती हैं

किस धर्म के माननेवाले है मणिपुरी?

मणिपुरी उसी धर्म के अनुयायी हैं
जहाँ नारी देवी है
शक्ति स्वरूपा है स्त्री
पांव पखारे जाते हैं जहाँ कन्या के

मणिपुर किस समाज का हिस्सा है भाई?

मणिपुर उसी समाज से है
जहाँ औरतें निर्भय निवस्त्र होकर
हल चलाती हैं बादलों के सीने पर
उस रात कोई बलात्कार नहीं होता खेतों में

मणिपुर में कौन सा तंत्र है भाई?

मणिपुर में लोकतंत्र है
जहाँ एक ही वोट का अधिकार सबको है
सरकार बनाने के लिए
पुरुष हो या महिला
सामान्य हो या आदिवासी

मणिपुर में किसकी सरकार है भाई?

शी ऽ ऽ ऽ !!
यह ख़तरनाक सवाल है
बचो इससे

मेरठ में किसकी सरकार थी
और भागलपुर में
और कश्मीर में
और दिल्ली में
और और और……. ?

सरकारें सब पुरुष होती हैं
औरतों की कोई सरकार नहीं होती भाई
मणिपुर में भी नहीं

2. अख़बार

अख़बार पढ़ते हुए अचानक लगा
कि मैं नहीं
अख़बार मुझे पढ़ रहा है

अख़बार का पहला पन्ना
अब पहला पन्ना नहीं होता
जैसे होकर भी पहला नागरिक
पहला नहीं

अख़बार में चेहरा धंसाए मैं
असहज सा हो गया
जैसे होता होगा कोई चौरीचौरा निवासी
कनाट प्लेस के ज़मींदोज़
वातानुकूलित बाज़ार में गमछा ख़रीदते

कई गुना दाम बढ़े बिना भी
इतना महंगा हुआ जा सकता है
कि छूते झिझक लगे
जैसे अख़बार

इन दिनों अख़बार पर रख कर रोटी खाओ
तो फोटो से आवाज़ आती है
भाइयो और बहनो !

अपने पेट पर हवाई जहाज उतारती
छह-छह गलियां सड़कें दिखीं अख़बार में
तापमान की चेतावनी भी
मगर कटे पड़े पेड़ कहीं नहीं
न पसीने से तर नदी
लड्डू गोपाल का बुखार नापता डाक्टर ज़रूर दिखा

अख़बार पढ़ते अचानक मुझे लगा
कि मैं सोलह पृष्ठों में लपेटा जा रहा हूँ
काइनात की तरह नहीं
क़नात की तरह

घूर रही अख़बार की लीड पढ़ते
इन दिनों लगा कि ख़बरों के पीछे से
आंखों में आंखें डाल झांक रहा पत्रकार का चेहरा
मेरा चेहरा ख़बरों में कहीं नहीं

हंसते खिलखिलाते किसान चेहरे दिखे
मई दिवस भी दिखा
मगर धर्मपुर लेबर चौराहे पर बिकाऊ मजदूर
कहीं नहीं

इन दिनों अख़बार पढ़ते मुझे लगा
कि मैं ख़बर नहीं
डिजिटल सम्पादक की मजबूरी पढ़ रहा हूँ
क़लम कूंच दी गई है जिसकी
पैकेज की ईंट से
मगर कोई राजेन्द्र माथुर नहीं दिख रहा
जो कूंची हुई क़लम को कूची बना ले

इन दिनों अख़बार पढ़ते मुझे लगा
कि विज्ञापन को ख़बर की तरह पढ़ा जाना चाहिए

मैं सीख रहा हूँ
ख़बर को विज्ञापन की तरह पढ़ना इन दिनों

3. इतिहास का सपना

रात सपने में दिखा इतिहास !

कपड़े इतने ढीले-ढाले कि समा जाएं
एकसाथ कई इतिहास

रंग इतने चटक कि तथ्य हो जाएं रंगीन
विह्वल इतना
कि बह जाए ‘इति’ रह जाए ‘हास’

नाक जैसे घोड़े पर बैठा कोई फ़क़ीर
होंठ थोड़े विरूपित
बस उतने
जितना ‘जय श्री राम’ के लिए ज़रूरी हो

एक आंख में गोरी की लाश
दूसरे में पृथ्वीराज की तलवार से टपकता लहू!

ठुड्डी
जैसे निर्माणाधीन संसद का कबाड़
प्रवासी मज़दूरों से पात झरे गाल
अम्बेडकर की उंगली
होंठों पर चिपकाए
दिखा इतिहास सपने में आज

गांधी के टूटे दांतों वाले चेहरे सा भयानक
बटन होल में सूखे गुलाब की तरह ऐतिहासिक

डर गया मैं
इतना कि डर के मारे
कमरे की खिड़कियां बंद कीं
दरवाजे़ की चिटकनी दुबारा
एक घूंट बोतलबंद गंगा हलक से उतारी
और इतिहास से ध्यान हटाने के लिए मोबाइल में
मौसम ढूंढ़ने लगा
जैसे कोई ढूंढ़ता है रोज़गार

दुबारा कोशिश की
बहुत कोशिश की
पर नींद
विड्राल की लिमिट क्रास कर चुकी थी

पेंटिंग- अतुल पांडेय
पेंटिंग- अतुल पांडेय

4. हिन्दू हूँ

इतना हिंदू तो हूं ही कि मंदिर से लौटी
पत्नी के प्रसाद देने पर उसे माथे से छुआ कर ग्रहण करूं

पूजा-पाठ न सही
पर्व-त्यौहार पर गोड़ रंगा लूं
पियरी में रहूं टाई न बांधू

इतना हिंदू तो हूं ही कि पंडित जी की
सुेंदुर-अच्छत सनी मध्यमा के आगे सर पर हाथ रख कर माथा आगे कर दूं

नहीं मानता गाय को मां
पर काटो तो याद आए उसका दूध

मेरे हिंदू होने में इतनी प्रगतिशीलता बची है
कि किसी की फ्रिज की तलाशी का विरोध करूं
खाए जिसको जो पसंद
पर बीफ़ खाने का सामूहिक प्रोपेगंडा क्यों?

पोर्क खाने की कोई बड़बोली प्रगतिशील पोस्ट
क्यों नहीं डालता कोई
तौबा ! तौबा !

मगर बीफ़
बकअप !

हिंदू हूं पर इतना हिंदू नहीं
कि न कहने पर भड़क जाऊं
देशद्रोही मान लूं
पर इतना हिंदू तो हूं ही कि वंदेमातरम् से परहेज़ पर
दुखी होऊं

इतना आज़ाद ख़याल भी नहीं कि आज़ादी को
चीवर बना दूं
ग़ुलामी को गलदोदई
प्रगतिशीलता को चिढ़ौनी

हिंदू हूं पर ऐसा हिंदू भी नहीं
कि जय श्रीराम की चिकोटी काटूं

हिंदू हूं पर इतना कट्टर नहीं कि
मुंह में पेशाब की तरह श्री राम घुसेड़ दूं
पीट-पीट कर जान ले लूं

उतना हिंदू नहीं हूं
जितने की आपको सरकार बनाने
चलाने गिराने की दरकार है

पर उतना हिंदू तो हूं कि हिंदुत्व को
पागल हाथी बनते देख दुखी होऊं

मैं हिंदू हूं
और अस्तित्व आस्था अस्मिता के सवाल को
हिंदुओं के लिए भी ज़रूरी समझता हूं

इतना कम हिंदू भी नहीं कि देवेन्द्र आर्य की जगह
अपना नाम दानिश अरशद रख लूं

इतना कुटिल हिंदू भी नहीं
कि दानिश अरशद को देवेन्द्र आर्य बनने पर
मजबूर करूं।

5. कबीर दास की लाइब्रेरी

किताबें किसी को क्या से क्या बना देती हैं
नाना पुराण निगमा
पत्थर पढ़ ले तो बहने लगे
नदी पढ़ ले तो झील बन जाए

मगर बिना किताब का मुंह देखे
कोई कबीर बन जाए
कैसे सम्भव है?

इत्ती इत्ती सी बात बताने वाले
किसी न किसी बहाने अपनी लाइब्रेरी की चर्चा करते हैं
और इ कबीर !
अनपढ़ होने की सार्वजनिक घोषणा !
कहीं यह कपड़ों से पहचान छुपाने का मामला तो नहीं
जुलाहे के भेस में

या शायद कबीर समझ चुके थे
कि आम जनता आलिम फ़ाज़िलों से दहशत खाती है
पांव लगी करके किनारे
अमल का तो प्रश्न ही नहीं उठता

साधारण का सम्मान
अनपढ़ के ज्ञान का भान
ज्ञान की सादगी का संज्ञान
कबीर ले चुके रहे होंगे
सो उन्होंने बुड़बक बने रहने का फैसला किया

ज्ञान प्रदर्शन के लोभ से मुक्त
भजन युक्त हुए होंगे कबीर
बाद में जिसकी नकल गांधी ने की

यह सब क्या बिना किताब सम्भव है?
जीवन से अच्छी कोई किताब नहीं में भी ‘किताब’ है न !

इसलिए शंका होती है कि कबीर दास की
अपनी कोई समृद्ध लाइब्रेरी ज़रूर रही होगी
वे भी रैदास की तरह किताबों के दास रहे होंगे

वैसे भी वह समय
लाइब्रेरी फूंकने वालों का नहीं था
किताबें बिना कमीशन सम्मान पाती थीं
दरबार में अच्छी कविताएँ बिना हिन्दू मुसलमान
दलित सवर्ण सराही जाती थीं

तो बाबू कबीर दास
ई अजन भजन आधो साधो की तान के पहले
और बाद में कूटनीतिक रूप से
किताबों से जाकर हाथ ज़रूर मिलाते रहे हों
वरना उनकी बात का अर्थात जानने के लिए
इतने शोध !
इतनी किताबें !
कबीर की खर पतवारी भाषा पर इतनी माथा पच्ची !

अब तक किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया
सब उल्टीबानी
भीगे कम्बल बरसे पानी के आकर्षण में
कबीरवाद पर रगड़ घिस्स करते रहे
कोई जात खोजता रहा कोई पात
कोई उनके राम का उद्गम
मूलाधार की खोज हुई ही नहीं

मुझे लगता है
जल्दी ही साहित्य का कोई उत्खननजीवी
कबीर दास की गुप्त लाइब्रेरी के
पुरातात्विक सबूतों के साथ आएगा
और मसि कागद छूयो नहीं के रहस्य का सच बताएगा

किताबी ज्ञान से वंचित लोग
किताब-पढ़े को छू कर ज्ञानी हो सकते हैं कि नहीं
यह कबीर दास की गुप्त गोदावरी वाली
लाइब्रेरी से पता चल जाएगा

6. काव्य-यात्रा

राजा ने कहा
जागीर ले कविता लिख
ज़मीर सोता रहा मैं लिखता रहा

कबीर ने कहा
जीवन करघा है
मैं करघे पर कविता बुनता रहा
कविता मेरी लुआठी थी

रैदास ने कहा
करतब की अंकुसी में सांसों का डोरा है जीवन
मैं जूते गांठता रहा कविता की तरह
मेरी कठवत का पानी गंगा बन गया
बस गया बेगमपुरा

तुलसी ने कहा
मांग के खा मसीत में सो
कविता लिख
मैंने कविता की पंजीरी गदोरी-गदोरी बांट दी
क्षुधित मन
तृप्त मानस
आज लाखों का रोज़गार
करोड़ों का बिजनेस

गांधी ने कहा
चर्खा चला प्रेम कात
मैं सूत से शब्दों के तन ढकता रहा
ग़रीबी का पेट पालता

कविता लुआठी से लाठी बन गयी
न डूबने वाला डुबकी मारने लगा

पार्टी ने कहा
ख़र्च की चिंता हमारी
क़लम तुम्हारी
जागरण के बहाने वोट बन गयी मेरी कविता

चौकीदार ने गाँव वालों से कहा
थोड़ा सुस्ता लो भाई !
और भेड़िये हाथ में नींद की मशाल थामे निकल पड़े

सरकार ने कहा
पैकेज ले कविता लिख
अमर हो जा

मुझे लगा ई-कचरा से बेहतर है
कविता को कंठ बना देना

लम्बी काव्य यात्रा में ज़िन्दगी को परखता
जन-गरल गले में रख लिया मैंने

आज मेरे पास सब है
कविता नहीं तो क्या!

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