— नरेश गोस्वामी —
अगर चुनावों की निरंतरता और मतदान के प्रति लोगों की रुचि को पैमाना मान लिया जाए तो भारत में लोकतंत्र की दशा और दिशा के पक्ष में एक विराट प्रशस्ति लिखी जा सकती है। हमारे सार्वजनिक जीवन और बौद्धिक लोकवृत्त में ऐसे लोगों की एक अच्छी-खासी संख्या है जो लोकतंत्र का आकलन इसी आधार पर करती है। यह बात चुनावशास्त्र के अध्येताओं से लेकर राजनीति का दैनिक तापमान दर्ज करने वाले तमाम टिप्पणीकारों पर भी लागू होती है : किसी भी चुनाव-परिणाम के समय चुनावशास्त्री वोटों के स्विंग और शिफ्ट की चर्चा में ज्यादा मशगूल दिखाई देते हैं तो टिप्पणीकार गाहे-बगाहे अपने लोकतंत्र को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बताने का मौका नहीं चूकते। लेकिन यह लोकतंत्र की एक विज्ञापित और औपचारिक तस्वीर है जो उसके वास्तविक स्वरूप से मेल नहीं खाती। संक्षेप में कहा जाए तो भारतीय लोकतंत्र अपने औपचारिक स्वरूप और अपने उपलब्ध रूप के अंतविर्रोधों का अंतहीन आख्यान बन गया है।
मसलन, अगर हम राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान अपने लोकतंत्र की परिकल्पना और उसके वैचारिक परिप्रेक्ष्य की बात करें तो हमारा तत्कालीन नेतृत्व केवल लोकतंत्र से संतुष्ट नहीं था। वह भविष्य के भारत को गणतंत्र के रूप में ज्यादा देखता था। उदाहरण के लिए 1946 में प्रस्तावित संविधान की उद्देशिका में लोकतंत्र का कहीं उल्लेख नहीं था। उसमें स्पष्ट कहा गया था कि भारत एक संप्रभु गणतंत्र होगा। जब जवाहरलाल नेहरू से पूछा गया कि उनके प्रस्ताव में लोकतंत्र क्यों अनुपस्थित है तो उन्होंने बेलाग ढंग से कहा कि गणतंत्र लोकतंत्र से ज्यादा उदात्त श्रेणी है। पर आजादी के बाद गणतंत्र और लोकतंत्र के इस तात्त्विक भेद को धीरे-धीरे इस कदर बिसरा दिया गया कि लोगबाग यह भूल ही गए कि हमारे दो सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक पर्व—स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस इस विस्मृत संकल्पना की याद दिलाते हैं।
राजनीतिक सिद्धांतकार भीखू पारिख कहते हैं कि स्वतंत्रता तो हमें ब्रिटिश राज से मिली थी जिसमें हमारा सबसे महत योगदान यह हो सकता था कि हम उसे गणतंत्र में बदलने का उद्यम करें। लेकिन हमने गणतंत्र के इस विचार को सिरे से भुला दिया और हम केवल एक लोकतंत्र बनकर रह गए। इस त्रासदी का दूसरा भाग बाद में इस रूप में सामने आया कि हमारा लोकतंत्र चुनावी आयोजन में सिमटने लगा।
भारत की राजनीति में गणतंत्र से लोकतंत्र और बाद में लोकतंत्र से मुख्यत: चुनावी आयोजन के इस विपर्यय को भीखू पारिख दोहरे ह्रास की तरह देखते हैं।
लोकतंत्र के औपचारिक और उसके उपलब्ध रूप का दूसरा अंतर्विरोध व्यक्ति-नागरिक की गरिमा और संस्थाओं की अनदेखी, बेकद्री या अंतत: उनकी निपट अवमानना के स्तर पर देखी जा सकती है। यह एक असंदिग्ध तथ्य है कि भारतीय समाज पदानुक्रम पर आधारित समाज है। ऐसे समाज में लोकतंत्र का पश्चिमी मॉडल सफल नहीं हो सकता था। आंबेडकर जैसे लोग शायद इसीलिए इस अंदेशे से भरे थे कि भारतीय समाज की धमनियों में पैठ किए बगैर लोकतंत्र केवल चुनाव और सत्ता के जोड़-तोड़ तक सीमित होकर रह जाएगा।
यह सही है कि केवल व्यक्तिनिष्ठ समाज भी कोई आदर्श समाज नहीं होता परंतु लोकतंत्र की कार्यप्रणाली की परिपक्वता के साथ हमारी राजनीति में व्यक्ति के नागरिक में अंतरण का जो लक्ष्य पूरा हो जाना चाहिए था, वह आज तक अधूरा है।
राजनीतिक समाजशास्त्र के विलक्षण सिद्धांतकार स्वर्गीय धीरूभाई शेठ का कहना था कि अस्मिता की राजनीति करते हुए हमने हिंदू, मुसलमान, सिक्ख और ईसाई को अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था की इकाई बना दिया है। यह एक ऐसी प्रवृत्ति है जिसके तहत सामान्य नागरिक के बजाय किसी धार्मिक समुदाय के सदस्य होने को ज्यादा महत्त्व दिया जाता है। और इस तरह उसकी पहचान और अधिकार धार्मिकता के आधार पर तय किए जाते हैं।
धीरूभाई इसे राज्य की अनुज्ञप्त सांप्रदायिकता कहते थे। विचित्र यह है कि समय के साथ यह प्रवृत्ति राज्य की नीति के तौर पर प्रतिष्ठित होती गयी है। इसके परिणामस्वरूप हमारे लोकतंत्र में नागरिक बेचेहरा हो गए हैं। उनकी जगह समूहों ने ली है। लोगबाग अपने अनुभवों से जानते हैं कि भारतीय राज्य व्यक्ति के अधिकारों को भी सामुदायिक अधिकारों के रूप में देखता है। इस तरह, यहां नागरिक को अपनी निजी स्वतंत्रता और अधिकारों की पूर्ति के लिए राज्य के साथ अपने समुदाय से भी संघर्ष करना पड़ता है।
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दरअसल, लोकतांत्रिक संस्थाओं के सशक्तीकरण को बाधित करने वाले कारक हमारी संवैधानिक व्यवस्था में एकदम शुरुआत से मौजूद रहे हैं। भारतीय राज्य ने कभी यह सोचने की जहमत नहीं उठाई कि समाज के विभिन्न समूह स्वयं को किस प्रकार देखते हैं। इसके उलट राज्य ने एकतरफा तौर पर यह मान लिया कि भारत के नागरिक अपने व्यक्ति-बोध और हितों के अनुसार आचरण करेंगे लेकिन उसने ऐसी किसी सांस्कृतिक प्रक्रिया को क्रियान्वित करने की कोई कोशिश नहीं की जो लोगों की विशाल आबादी को ऐसी समझ विकसित करने की ओर ले जाती।
यह संभवत: इसी का नतीजा था कि हमारा लोकतंत्र संस्थाओं द्वारा संसाधित होने के बजाय जाति, क्षेत्र, निर्वाचित प्रतिनिधि की निजी क्षमता, ताकत, संबंधों आदि से संचालित होता रहा। और यह भी इसी का अंतर्निहित परिणाम था कि जब भी किसी ताकतवर नेता ने लोकतांत्रिक मर्यादा का उल्लंघन किया तो उसे किसी संवैधानिक संस्था ने दंडित नहीं किया। यह अकारण नहीं है कि भारत में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलता कि किसी राजनीतिक व्यक्तित्व द्वारा किए गए कदाचार से उसका राजनीतिक जीवन सदा के लिए खत्म हो गया हो।
इस प्रसंग में चौथा अंतर्विरोध बहुसंख्यकवाद के रूप में प्रबल हुआ है। यह सच है कि प्रातिनिधिक लोकतंत्र में बहुसंख्यकतावाद के प्रबल होने का अंदेशा हमेशा मौजूद रहता है। लेकिन इस मामले में यह अंतर्दृष्टि ओझल नहीं होनी चाहिए कि लोकतंत्र भले ही बहुमत के शासन के आधार पर चलता हो लेकिन इसका अनिवार्य अर्थ अल्पमत की अधीनता से नहीं होता।
लोकतंत्र में बहुमत के अल्पमत हो जाने या अल्पमत के बहुमत बन जाने की संभावनाएं हमेशा मौजूद रहती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो लोकतंत्र में बहुमत अस्थायी होता है। लेकिन जब कोई विचारधारा या राजनीतिक दल अपनी सांस्कृतिक या सामाजिक इंजीनियरिंग के जरिये इस बहुमत को धार्मिक-जातीयतावादी गणित का रूप देकर उसे स्थायी या शाश्वत बनाने की ठान लेता है तो लोकतंत्र अपनी अंतर्निहित समावेशिकता से गिरकर जातीयतावादी लोकतंत्र में अपघटित हो जाता है।
तब वह अल्पमत को निरर्थक और अल्पसंख्यकों के अधिकारों को गैरजरूरी साबित करने में सफल होने लगता है। ऐसे में लोकतंत्र चुनावों के आयोजन की प्रक्रिया जारी रखने के बावजूद किसी एक समूह के धर्मावलंबियों का शासन बनकर रह जाता है। और अंतत: अल्पसंख्यक समुदायों को अघोषित तौर पर दूसरे दर्जे का नागरिक सिद्ध करने की हैसियत हासिल कर सकता है। कहना न होगा कि फिलहाल हमारा लोकतंत्र बहुसंख्यकवाद के ऐसे ही दुराग्रहों की गिरफ्त में है।
इधर पिछले लगभग दो दशकों से अध्येताओं का ध्यान बारहा इस तथ्य पर गया है कि हमारी विधायी संस्थाओं में सत्र की अवधि, प्रश्नों पर चर्चा करने का समय, किसी विधेयक के विभिन्न पक्षों, उसकी जटिलताओं और उस पर धैर्यपूवर्क और विधि-सम्मत तरीके से विचार-विमर्श करने की संस्कृति बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुई है।
स्थिति यह बन चुकी है कि संसद या राज्यों की विधायिकाओं में मिनटों और घंटों में विधेयक पारित किए जाने लगे हैं। मसलन, पिछली संसद में जम्मू-कश्मीर को राज्य से केंद्र-शासित राज्य में परिवर्तित करने की क्रिया को तीन से चार घंटों के बीच निपटा देना, सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने वाले प्रस्ताव को धन-विधेयक के तौर पर पारित करना, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों से संबंधित विधेयक को उसी दिन पारित कर देना—इन उदाहरणों से पता चलता है कि हमारे लोकतंत्र में विधि के निर्माण की प्रक्रिया किस हद तक संकटग्रस्त हो चुकी है।
इस संबंध में यह उल्लेख करना उचित होगा कि आमतौर पर संसद में कोई भी विधेयक कैबिनेट द्वारा पेश किया जाता है लेकिन संविधान के 245वें अनुच्छेद के अनुसार कानून बनाने की शक्ति कैबिनेट को नहीं बल्कि संसद को प्रदान की गयी है। इसके अलावा अनुच्छेद 107 में भी यह निर्दिष्ट किया गया है कि कोई भी विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा सहमति प्रदान किए जाने के बाद कानून का दर्जा हासिल कर सकता है। गौरतलब है कि इस संदर्भ में संविधान प्रस्तावित विधेयक पर मतदान या अनुमोदन जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं करता। यह इसलिए कि संविधान कानून के निर्माण में सहमति के तत्त्व को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है। इसके पीछे संभवत: यह विचार काम कर रहा होगा कि किसी प्रस्ताव पर सहमति कायम करने के लिए उससे संबंधित मतभेदों पर चर्चा करना जरूरी होता है।
संसद की विभिन्न समितियों के गठन और उनके द्वरा विधेयक के औचित्य-अनौचित्य की पड़ताल के पीछे भी यही भावना थी कि संसद के प्रत्येक सदन में किसी भी साधारण विधेयक का तीन बार वाचन किया जाए ताकि विधेयक के विभिन्न पहलुओं पर पर्याप्त चर्चा की जा सके। संसदीय चर्चा से संबंधित इन संवैधानिक उपबंधों से साफ जाहिर है कि हमारे लोकतंत्र के निर्माता संसद को गहन विचार-विनिमय की जगह के रूप में देखते थे। उन्होंने यह कल्पना नहीं की होगी कि सोलहवीं लोकसभा (2014-2019) के दौरान चर्चा के लिए प्रस्तावित कुल विधेयकों में केवल एक चौथाई विधेयक ही संसदीय समितियों को सौंपे जाएंगे तथा 32 प्रतिशत विधेयकों को तीन घंटों में निपटा दिया जाएगा।
आश्चर्य की बात है कि पंद्रहवीं लोकसभा के दौरान एक चौथाई विधेयक आधे घंटे से भी कम समय में पारित कर दिए गए थे।
विधायी प्रक्रिया का यह क्षरण केवल संसद तक सीमित नहीं है। राज्यों की विधायिकाओं की स्थिति तो इससे कहीं ज्यादा चिंताजनक है।
मसलन, हरियाणा विधानसभा के बारहवें कार्यकाल (2009-2014) के दौरान कुल सत्रों की अवधि का वार्षिक औसत 11 दिनों का रहा और इसमें भी सत्र की कुल अवधि का सत्तर प्रतिशत समय बजट की चर्चा में चला गया जबकि बाकी बचे समय में 129 विधेयक पारित कर दिए गए। उल्लेखनीय है कि उक्त सभी विधेयक पटल पर रखने के दिन ही पारित कर दिए गए; 2012 के दौरान दिल्ली की विधानसभा में पारित किए गए 11 विधेयकों में केवल एक विधेयक पर ही दस मिनट से अधिक चर्चा की गयी; गुजरात की बारहवीं विधानसभा (2008-2012) के दौरान 90 प्रतिशत से ज्यादा विधेयक उसी दिन पारित कर दिए गए जबकि गोवा विधानसभा में प्रत्येक विधेयक पर औसतन केवल चार मिनट की चर्चा की गयी।
जाहिर है कि हमारे लोकतंत्र में विधायी प्रक्रिया का यह क्षरण एक दिन की घटना नहीं है। इस संकट के लिए किसी एक दल को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। दरअसल, यह संकट चुनाव की समूची प्रक्रिया से वास्ता रखता है जिसमें ग्राम प्रधान का चुनाव लड़ना भी इतना महंगा हो गया है कि समाज का साधारण नागरिक उसमें कतई भाग नहीं ले सकता। एक तरह से कहें तो चुनाव की इस प्रक्रिया के हर स्तर पर दबंग और साधनसंपन्न तत्त्वों का कब्जा-सा हो गया है। वंशवाद की तमाम मुखालिफत के बावजूद सच्चाई यह है कि जनता द्वारा निर्वाचित अधिकांश प्रतिनिधि किसी न किसी राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखते हैं। उनका राजनीतिक करियर उनकी मेहनत या जनसंघर्षों में भागीदारी पर निर्भर नहीं करता बल्कि वह उन्हें विरासत में मिलता है।
इस संदर्भ में आठवें दशक में पारित 52वें संवैधानिक संशोधन की भूमिका खास तौर पर नकारात्मक सिद्ध हुई है। निर्वाचित प्रतिनिधियों को दल-बदल से हतोत्साहित करने के लिए लाया गया यह कानून अंतत: पार्टी के प्रति एकनिष्ठता और असंदिग्ध आज्ञाकारिता का रूप धारण कर चुका है। गौरतलब है कि उक्त संशोधन के अंतर्गत दल-बदल का अर्थ केवल एक पार्टी की सदस्यता छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल होना नहीं था बल्कि इसके अंतर्गत संबंधित पार्टी के निर्वाचित सदस्य के लिए पार्टी के आदेश का पालन भी अनिवार्य कर दिया गया था। इसका कुल मतलब यह था कि अगर पार्टी का निर्वाचित सदस्य पार्टी के व्हिप का पालन नहीं करता तो उसे सदन की सदस्यता से वंचित कर दिया जाएगा। जैसा कि होना ही था, इस संशोधन के बाद धीरे-धीरे लोकतंत्र की प्रक्रियाएं राजनीतिक पार्टियों के हाथों में केंद्रित होती गईं। पिछले कई दशकों से चली आ रही इस परिघटना ने पार्टी में असहमति और आंतरिक विचार-विमर्श की संस्कृति को लगभग खत्म कर दिया है।
चूंकि अब सारे फैसले पार्टी के दफ्तरों में लिये जाते हैं इसलिए सांसदों या विधायकों को संसद या विधानसभा के सत्रों में जाने या उनमें भाग लेने की जरूरत नहीं रहती। चूंकि अब सत्तारूढ़ पार्टी अपने एजेंडे के लिए विशेषज्ञों की राय पर ज्यादा निर्भर करती है, ऐसे में पार्टी के निर्वाचित प्रतिनिधियों पर संसदीय समितियों में भागीदारी करने की कोई प्रेरणा नहीं रह जाती। इसका अगला परिणाम यह होता है कि जब विधेयकों को थोक के भाव प्रस्तुत करके मिनटों और घंटों में निपटा दिया जाता है तो विपक्ष खुद-ब-खुद बहस से बाहर हो जाता है। इस प्रक्रिया के चलते हमारा लोकतंत्र न केवल सत्तारूढ़ पार्टी के इरादों का वाहक बनकर रह गया है बल्कि पार्टी के विशेषज्ञों तथा सलाहकारों के निर्णायक दखल के कारण उस पर जनता की इच्छा का पालन करने का दबाव भी कम होता गया है।
साधारण मतदाता अभी इस बात से गाफिल है कि हमारे लोकतंत्र की परिकल्पना और संभावनाएँ पार्टियों के यहाँ बंधक हो गयी हैं।
जैसा कि अपने एक लेख में मणींद्र नाथ ठाकुर कहते हैं, ‘आधुनिक युग में राजनीति का स्वरूप दलों के रूप में निर्धारित हुआ। लेकिन अब दलीय राजनीति से सामाजिक परिवर्तन की कल्पना असंभव है। भारत में भी वैश्वीकरण के दौर का जो यूटोपिया था, अब खत्म हो रहा है। पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के जिस नव-उदारवादी आर्थिक मॉडल को विश्व बैंक की देखरेख में प्रचलित किया गया है… हर प्राकृतिक संपदा— चाहे जमीन हो या जल, उसकी गिद्ध दृष्टि लगी हुई है। किसी न किसी तर्क या छल-प्रपंच से उन पर कब्जा किया जा रहा है… किसी समय पूंजीवाद को जनतंत्र की जरूरत थी ताकि संपत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार और बाजार से कमाए गए लाभ के प्रति लोगों के गुस्से को मतदान के अधिकार से संतुलित किया जा सके। अब पूंजीवाद को जनतंत्र की जरूरत नहीं है क्योंकि वह इतना शक्तिशाली हो गया है कि लोगों की सहमति या असहमति से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए अब दोनों में संबंध विच्छेद का समय आ गया है।’
भारतीय लोकतंत्र के अंतर्विरोधों की इस पड़ताल का अगल चरण नवें दशक के चक्रवाती दौर से ताल्लुक रखता है। यह एक ऐसा समय था जब भारतीय समाज सामाजिक न्याय, हिंदुत्व और नव-उदारतावादी आर्थिक शक्तियों की तितरफा चुनौतियों के बीच फंसा था। तीनों शक्तियां समाज को अपनी-अपनी दिशा में ले जाने का प्रयास कर रही थीं लेकिन विचित्र है कि इस परिदृश्य का बौद्धिक समाहार अंतत: ऐसे सूत्रीकरण में हुआ जो बाद में लगभग एक मिथक बनता चला गया। हमारा आशय यहां चुनावी प्रक्रियाओं के प्रखर अध्येता योगेंद्र यादव के उस सूत्रीकरण से है जिसमें उन्होंने आठवें दशक के आखिर में पिछड़ी जातियों के सत्तारोहण को लोकतंत्र की दूसरी लहर के मुहावरे में व्याख्यायित किया था। अपनी चमक और नवैय्यत के कारण यह सूत्रीकरण विश्लेषण की अन्य संभावित श्रेणियों को अपदस्थ करता गया।
लोकतंत्र के अन्य अध्येता जो उस समय यह ध्यान दिला रहे थे कि चुनावी राजनीति में पिछड़े वर्गों का उभार लोकतंत्र के सशक्तीकरण का परिचायक नहीं बल्कि सामाजिक शक्तियों की एक खास लामबंदी भर है उनका कहना था कि इन वर्गों का राजनीतिक उदय किसी न्यायपूर्ण अर्थव्यवस्था, नागरिकता के नये तकाजों या बोध की ओर संकेत नहीं करता।
मसलन, इस दौर में राजनीति के बदलते स्वरूप की निशानदेही करने वाले राजनीतिक चिंतक सुहास पलशीकर कहते हैं कि चुनावी राजनीति में एक तरफ पिछड़े वर्गों, महिलाओं और आदिवासी समूहों आदि की बढ़ती मौजूदगी और भागीदारी तो दूसरी तरफ राजनीतिक अभिजन समूहों की बदलती सामाजिकता के बावजूद यह दौर एक गहरे अर्थ में लोकतंत्र में संकुचन का भी दौर था। उनके अनुसार यह एक ऐसा समय था जब मीडिया राजनीति का एजेंडा तय करने लगा था। वह यह तक निर्धारित करने लगा था कि नेताओं को जनता के सामने क्या कहना चाहिए अथवा लोकतंत्र में क्या होना चाहिए; उसे किस दिशा में चलना चाहिए या कि सार्वजनिक नीतियों का स्वरूप कैसा होना चाहिए। एक तरह से कहा जाए तो न्यूज-रूम द्वारा तय किया गया एजेंडा हमारे सार्वजनिक विमर्श की दिशा निर्धारित करने लगा था।
पलशीकर की यह अंतर्दृष्टि बताती है कि लोकतंत्र के कतिपय अंतर्विरोधों पर हमारी नजर इसलिए नहीं जाती क्योंकि हम उस पर विचार करते हुए उसके किसी एक सूत्र पर अटक जाते हैं। अपनी व्याख्या में नए ब्योरे और आंकड़े जोड़कर हम एक महाविमर्श तो खड़ा कर लेते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि अंततः ऐसा कोई भी विमर्श एकांगी और अधूरा होता है।
दरअसल, लोकतंत्र से जनता के अलग-अलग समूहों की उम्मीदें एक जैसी नहीं होती। मसलन, ठीक उस समय जब किसी समिति द्वारा किसी एक समूह के पक्ष में कोई निर्णय लिया जा रहा होता है तभी कोई अन्य राजनीतिक स्वार्थ -समूह उस निर्णय को बेअसर करने की योजना पर काम कर रहा होता है।
कहने का मतलब यह है कि लोकतंत्र एक द्वंदात्मक संरचना है। उससे लोगों की अपेक्षाएं और उन अपेक्षाओं के फलीभूत होने की संभावना अनेक कारकों के आपसी द्वंद्व और संयोग पर निर्भर करती है। इस संदर्भ में रखकर देखें तो यह कहना अतार्किक नहीं होगा कि आठवें दशक के आखिर में जब भारतीय समाज में अब तक सत्ता से बाहर रहे समूह लोकतांत्रिक राजनीति में अपनी दावेदारी कर रहे थे तो उसी समय समाज की स्थापित शक्तियां राजनीति से एजेंडा निर्धारित करने की शक्ति छीनकर मीडिया को सौंपने की तैयारी कर रही थीं।
सन् 2000 के बाद जैसे-जैसे सोशल मीडिया का प्रभाव -क्षेत्र बढ़ता गया है, वैसे-वैसे जनता की आकांक्षाओं से हमारा लोकतंत्र कटता गया है। पिछले आठ-दस बरसों में तो जैसे लोकतंत्र के प्रतिनिधियों को जनता की जरूरत ही नहीं रह गयी है। अब राजनीति को बाहर से प्रभावित करने वाली शक्तियां खुद एजेंडा तय करती हैं और सोशल मीडिया के जरिए उसे जनता पर थोप देती हैं।
प्रस्तुत लेख में हमने अभी तक भारतीय लोकतंत्र के केवल स्थानिक अंतर्विरोधों की चर्चा की है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि भारतीय लोकतंत्र विशिष्टताओं का कोई स्वतंत्र द्वीप है। सच यह है कि अगर विश्व में लोकतांत्रिक चेतना कहीं भी संकटग्रस्त होती है तो हमारा लोकतंत्र भी उससे अछूता नहीं रह सकता।
इसका सटीक उदाहरण स्टीवन लेवित्स्की तथा डेनिएल ज़िबलैट की चर्चित किताब—’हाउ डेमोक्रेसीज डाइ : व्हाट हिस्ट्री रिवील्स अबाउट अवर फ्यूचर्स’ है जिसकी विचारोत्तेजक भूमिका में विद्वान लेखक वैश्विक दृष्टांतों के जरिये आगाह करते हैं कि लोकतंत्र का खात्मा अब तानाशाह नहीं बल्कि जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि करते हैं।
लेवित्स्की और ज़िबलैट बताते हैं कि शीत-युद्ध के दौर में लोकतंत्र को खत्म करने का सबसे आम तरीका तख्तातापलट हुआ करता था। तब आमतौर पर चुनी हुई चार सरकारों में तीन सरकारों का हश्र यह हुआ करता था कि संबंधित देश का फौजी जनरल अपना लाव-लश्कर लेकर राजधानी में घुस आता था और संसद या राष्ट्रपति के आवास पर कब्जा कर लेता था। उस दौर में अर्जेंटीना, ब्राजील, घाना, यूनान, ग्वाटेमाला, नाइजीरिया, पाकिस्तान, पेरू, थाइलैंड, तुर्की तथा उरुग्वे आदि जैसे देशों में लोकतंत्र का ढॉंचा इसी तरह ध्वस्त किया गया। लेखकद्वय कहते हैं कि यह तो लोकतंत्र को खत्म करने का एक नाटकीय अंदाज था जबकि अब लोकतंत्र को ध्वस्त करने के लिए ऐसा तरीका आजमाया जाने लगा है कि लोकतंत्र के अवसान की यह प्रक्रिया अक्सर दिखाई तक नहीं देती। अब जनता द्वारा निर्वाचित राष्ट्राध्यक्ष ही उस प्रक्रिया को उलट डालते हैं जिसके जरिए वे सत्ता तक पहुँचे थे।
लेवित्स्की और जिबलैट के मुताबिक लोकतंत्र के अवसान की यह प्रक्रिया अक्सर इतनी धीमी होती है कि लोगों को इसका एहसास तक नहीं होता। दूसरे शब्दों में कहें तो लोकतंत्र अब खुली तानाशाही या फासीवादी शक्तियों द्वारा अपदस्थ नहीं किया जाता। सच तो यह है कि अब तख्तापलट जैसी घटना पुराने जमाने की बात लगी है।
अब समय पर चुनाव होते हैं। लेकिन देखते देखते लोकतांत्रिक संस्थाएँ दम तोड़ने लगती हैं। पिछले दो-तीन दशकों के दौरान ज्योर्जिया, हंगरी, निकारागुआ, पेरू, फिलीपींस, पोलैंड, रूस, श्रीलंका, यूक्रेन और तुर्की इसी नियति का शिकार हुए हैं।
लेवित्स्की एवं जिबलैट के अनुसार अब लोकतंत्र का पराभव मतदान-पेटी से शुरू होता है। लेकिन चुनावी खेल इतना जटिल होता है कि आसानी से समझ नहीं आता क्योंकि इसमें संविधान और लोकतंत्र की संस्थाएँ अपनी जगह कायम रहती हैं जबकि चुनी हुई सरकार लोकतंत्र को नष्ट करती रहती है।
इसे कानून सम्मत ढंग से पेश किया जाता है। इसके लिए विधेयक लाए जाते हैं जिन्हें विधायी निकायों द्वारा बाकायदा पारित किया जाता है। लोगों को जताया जाता है कि यह सब न्यायपालिका को ज्यादा सक्षम बनाने, भ्रष्टाचार को मिटाने या चुनावी प्रक्रिया की गड़बड़ियां दूर करने के लिए यानी अंततः लोकतंत्र की भलाई के लिए किया जा रहा है… लोगों को तुरंत पता नहीं चल पाता कि उनके इर्दगिर्द क्या घट रहा है। बहुत-से लोग इस गुमान में जीते रहते हैं कि लोकतंत्र यथावत् चल रहा है।
यहां यह अलग से रेखांकित करने की जरूरत नहीं है कि भारत भी अब उसी वैश्विक व्यवस्था का अंग है जिसमें प्रभुत्वशाली शक्तियां लोकतंत्र को उसकी तात्त्विक अंतर्वस्तु से विच्छिन्न करके उसे महज एक औपचारिक व्यवस्था बना देना चाहती हैं।
Nice article dear Naresh ji.