स्वाधीनता संग्राम में पूर्वांचल का योगदान

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— सूर्यनाथ सिंह —

किसी भी देश, समाज और सभ्यता का इतिहास केवल तारीखों, घटनाओं तथा शासकों का ब्योरा नहीं होता। उसमें वहां की जमीनी हलचलें भी जज्ब होती हैं। मगर भारतीय इतिहासकारों से यह शिकायत बार-बार दोहराई जाती रही है कि उन्होंने मूल रूप से सत्ता प्रतिष्ठान और सरसरी तौर पर जन-आकांक्षाओं का दस्तावेजीकरण तो किया, मगर उनकी नजर बहुत सारे ऐसे लोगों और घटनाओं की तरफ गई ही नहीं, जिन्होंने बुनियादी रूप से व्यवस्था को बनाने में योगदान किया था। प्राचीन और मध्यकालीन शासन व्यवस्था का इतनी बारीकी से विश्लेषण तो कठिन काम था, मगर आधुनिक काल में, खासकर अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ विद्रोह के समय से आजादी मिलने तक का इतिहास लिखना वैसा कठिन नहीं माना जा सकता। मगर ज्यादातर इतिहासकारों ने सरकारी दस्तावेजों के आधार पर ही इतिहास लिखने का प्रयास किया। फिर भी शायद इतिहास लेखन के इस सिद्धांत के चलते केवल बड़े लोगों और नेताओं के योगदान को ही इतिहास में दर्ज किया जा सका कि ‘इतिहास बड़े लोगों से जुड़ी घटनाओं का नाम है’। यानी बड़े रजवाड़े, नवाब और फिर राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कर उसके मंच से स्वतंत्रता संग्राम चलाने वाले वकील, अध्यापक और पत्रकार आदि ही इतिहास का हिस्सा बन सके। हजारों-हजार ऐसे लोग गुमनाम रह गए, जो छोटे स्तर पर उसी जज्बे के साथ स्वतंत्रता संग्राम में शामिल थे।

ऐसे में जब यह शिकायत शुरू हुई कि इस तरह बहुत सारे स्थानीय आंदोलनों, जमीनी स्तर पर संघर्ष कर रहे लोगों के आजादी के लिए योगदान को नजरअंदाज कर दिया गया है, तो सबाल्टर्न इतिहास लेखन की शुरुआत हुई। उसमें समाज के हाशिये पास माने जाने वाले समुदायों के योगदान को रेखांकित किया जाने लगा। बिल्कुल जिला, तालुका और ब्लाक स्तर के आंदोलनों की भी खोज-परख की जाने लगी। फिर भी यह इतना बड़ा काम है कि अब तक बहुत सारे लोग अधययन और अनुसंधान में जुटे हुए हैं। अभी इतिहास के बहुत सारे सफे खुलने बाकी हैं।

आसिफ़ आज़मी
आसिफ़ आज़मी

इसी कड़ी में आसिफ़ आज़मी की किताब आई है माटी के महायोद्धा। इस किताब को व्यवस्थित इतिहास की किताब तो नहीं कहा जा सकता, मगर आधुनिक भारतीय इतिहास के बेहद महत्त्वपूर्ण सूत्र इसमें सहेजे गए हैं। केवल उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल कहे जाने वाले बत्तीस जिलों के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। इसमें 1857 से 1947 तक की घटनाओं को दर्ज किया गया है। जो लोग इसे पारंपरिक इतिहास लेखन की दृष्टि से देखेंगे, उन्हें हो सकता है निराशा हो, क्योंकि इसकी शैली वह नहीं है, इसका ढंग भी वह नहीं है, जो आमतौर पर इतिहास लेखन में इस्तेमाल किया जाता है। इसमें केवल उन व्यक्तियों के बारे में बताया गया है, जिन्होंने बिल्कुल जमीनी स्तर पर स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान दिया। इसमें राष्ट्रीय और स्थानीय दोनों स्तरों पर सक्रिय आंदोलनकारियों को शामिल किया गया है।

स्थानीय स्तर पर ऐसे अनेक लोग थे, जिनमें देश को आजाद कराने का वही जज्बा था, जो राष्ट्रीय स्तर के नेताओं में था। वे बेशक मुख्यधारा के स्वतंत्रता आंदोलन में सीधे तौर पर नहीं जुड़े थे, मगर उनमें भी संकल्प वही था। इस तरह यह किताब इतिहास की मुख्यधारा में अनचीन्हे रह गए उन लोगों को उभारने का प्रयास करती है, जो किसी भी रूप में इतिहास में सरनाम रहे नेताओं से कम महत्त्वपूर्ण नहीं कहे जा सकते। किताब की भूमिका में आसिफ़ आज़मी की यह पीड़ा समझी जा सकती है कि इतिहास में किस तरह पूर्वांचल के इन स्वतंत्रता सेनानियों को नजरअंदाज किया गया।

गौरतलब है कि पूर्वांचल के जिन जिलों को केंद्र में रखकर यह पुस्तक तैयार की गई है, वे 1857 से लेकर 1947 तक निरंतर स्वतंत्रता के लिए आंदोलनरत रहे। कहीं थाने फूंके जा रहे थे, कहीं अंग्रेज अफसरों पर हमले किए जा रहे थे, कहीं अंग्रेजी प्रतिष्ठानों पर प्रहार किए जा रहे थे। ऐसा करने वाले बहुत सारे लोगों को ब्रिटिश हुकूमत की प्रताड़ना सहनी पड़ी, कई उनमें शहीद हो गए। मगर चूंकि स्वतंत्रता संग्राम के केंद्र में बंगाल और महाराष्ट्र अधिक थे और वहीं के नेता मुख्यधारा आंदोलन में अधिक नजर आते थे, इसलिए उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल की विद्रोही घटनाएं उस तरह चर्चा में नहीं आ पाती थीं।

मगर इतिहास केवल सरकारी दस्तावेजों से नहीं बनता। लोक-मानस अपना इतिहास अपने तरीके से भी लिखता है। कहीं गीतों, कविताओं, कहानियों के माध्यम से, तो कहीं किस्सों और जनश्रुतियों के जरिए आगे बढ़ाते हुए।

इस किताब को तैयार करने में आसिफ़ आज़मी को निस्संदेह कई कठिनाइयों से होकर गुजरना पड़ा है, क्योंकि गुमनाम लोगों के बारे में जानकारियां प्रायः सरकारी दस्तावेजों में होती नहीं हैं। उनके बारे में जानकारी जुटाने के लिए लोक परंपरा में उतरना पड़ता है। वहां के प्रचलित लोकगीतों, कविताओं, कहानियों, कहावतों आदि के जरिए उनके सूत्र तलाशने पड़ते हैं। आसिफ़ आज़मी ने उन्हीं सूत्रों से इस किताब को साकार किया है। उनका दावा भी नहीं है कि वे इतिहास लिख रहे हैं या इतिहास की दिशा को दुरुस्त करने की कोशिश कर रहे हैं। उनका प्रयास बस इतना है कि एक बड़े भूभाग के अचर्चित रह गए नायकों के बारे में लोगों तक जानकारियां पहुंचाई जाएं। इस तरह यह किताब न केवल सबाल्टर्न इतिहास के लिए भरपूर सामग्री लेकर उपस्थित हुई है, बल्कि इसके जरिए उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल कहे जाने वाले जिलों के मिजाज को भी नए सिरे से समझने में मदद मिलती है।

किताब : माटी के महायोद्धा
लेखक : आसिफ़ आज़मी
प्रकाशक : विजया बुक्स, 1/10753, सुभाष पार्क, गली नं. 3, नवीन शाहदरा, दिल्ली
मूल्य : 995 रुपए


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