लोहिया भरपूर जिए, खुल कर जिए, जम कर जद्दोजहद की, डूब कर प्यार किया, मेयारे-ज़माना की कभी परवा न की। अपनी दोस्त के साथ बड़ी गरिमा से निबाह किया। लोहिया जैसे विराट और सुलझे व्यक्तित्व के मालिक भी झुमके के सौंदर्य में उलझे! बात भी ठीक है, कौन अहमक होगा इस धरती पर जो अपनी नायिका के झुमके को जी भर न निहारता हो! प्रेम तो कर्कश से कर्कश व्यक्ति के अंदर कोमलता भर दे!
इन ख़तों से गुज़रते हुए महसूस होता है कि लोहिया कैसे स्त्री को स्वतंत्रचेता मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित होते देखना चाहते हैं। साथ ही, प्रेम में वे बिल्कुल बच्चे से ज़िद्दी हो जाते हैं। थोड़ा रूठते भी हैं, नाराज़ भी होते हैं, और अपनी नायिका को ताना भी देते हैं। कहते-कहते यहां तक कह जाते हैं कि मुझे मालूम हुआ कि आप किन्हीं और के साथ घूम रही थीं और मुझे कुछ और बताया आपने! ओह, प्रेम में आदमी कभी-कभी कितनी असुरक्षा से भर उठता है! रक़ीबों से यारी कहां कर पाता आदमी, हमख़याल मानने की उदारता लाने में मानव सभ्यता को अभी कुछ और डेग भरने होंगे!
अपनी नायिका से मिलने की लोहिया की उत्कंठा देख कर कभी-कभी मुस्करा उठता हूं। दो-चार घड़ी के साथ के लिए कितनी जतन कर रहे हैं, मीटिंग की टाइम भी कुछ इस तरह से हो जाए कि बीच में एक दिन खाली समय मिल जाए और वे रोज़मर्रा के ग़मे-रोज़गार से थोड़ी राहत पा सकें और सियासी किचकिच से जूझने के लिए मुट्ठी भर ऊर्जा हासिल हो सके!
उस ज़माने में लोहिया पब्लिक मीटिंग में अपनी दोस्त को साथ लेकर जाते हैं, स्त्रियों की बराबर की भागीदारी के लिए सुचिंतित कोशिश करते हैं; पर कहीं किन्हीं को यह स्पेस नहीं देते कि कोई हल्की बात कर सके। उन्होंने यह सहज स्पेस एक तरह से निर्मित किया है। इस प्रेम का हासिल यह भी है कि जो लोग लोहिया की इज़्ज़त करते हैं, वे रमा जी की भी नैसर्गिक रूप से क़द्र करते हैं!
लोहिया ने हमेशा अभावों में अपनी विचारधारा की परवरिश की, वह वंचना हर स्तर पर उन्होंने जी; पर माथे पर कहीं ज़रा भी शिकन नहीं। बहुत ज़िंदादिल इंसान थे! और उतनी ही मज़बूत और प्यार से भी प्यारी इंसान को अपनी दोस्त के रूप में जीवन भर शरीक़े-सफ़र रखा! वे बुज़दिल नहीं थे, पलायनवादी नहीं थे! दुनिया से नज़र मिला कर, समाज में सर उठा कर प्रेम किया, और प्रेम को एक नई ऊंचाई बख़्शी!
बख़्शी हैं हमको इश्क़ ने वो जुर्रतें ‘मजाज़’
डरते नहीं हैं सियासते-अहले-जहां से हम।