द फर्स्ट नक्सल !

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The First Naxal!

suresh khairnar

— डॉ. सुरेश खैरनार —

साथीयो गत तीन दिनों से द फर्स्ट नक्सल नाम की किताब पढ रहा था. यह कलकत्ता के स्टेट्समन नाम के अंग्रेजी अखबार के सिलिगुडी के प्रतिनिधि श्री.बापादित्य पाॅल नाम के पत्रकार ने कानू सान्याल नाम के उत्तर बंगाल नक्सलबारी नामके एक गांव के नाम पर इस आंदोलन को भी नक्सलाइट आंदोलन बोलने की शुरुआत हुई है.

और इस नक्सलैट आंदोलन के एक प्रणेता की, जीवनी लिखने की कोशिश की है. सेज पब्लिकेशन्स ने इस किताब को पहली बार 2014 में प्रकाशित कीया है. और 23 मार्च 2010 के दिन कानु सान्याल ने आत्महत्या की है. मतलब इस किताब का सभी टेक्स्ट कानू सन्याल जीवित रहते हूऐ खुद देख चुके थे. और उनकीं आत्महत्या की खबर सुन कर लेखक खुद सिलिगुडी से सेडबेल्ला ज्योत नाम के गाँव जो सिलिगुडी से 20 किलोमिटर की दूरी पर है, जहां कानु सान्याल रहते थे. वहां सबसे पहले दौडते हुऐ पहुंचा है. इस कारण लेखक ने किताब की शुरुआत ही ’23 मार्च 2010, 3 – प एम’ शिर्षक के चाप्टर नंबर एक से ही की है. और खुद अपनी आँखों से नायलॉन के दोर से टंगे कानु सान्याल के मृत शरीर को मजिस्ट्रेटने उतारने का आदेश देते हूऐ . और उनके सहायक लोगों ने दोर को काटकर बाॅडी को नीचे जमीन पर कि चटई पर लिटा दिया . उतने में सिलिगुडी से पुलिस उपअधिक्षक गौरव शर्मा ने आकर पूछताछ करने के बाद ,बाॅडी को पोस्टमार्टम के लिए एम्बुलेन्स में डाल कर सिलिगुडी भेजा. यह सब लेखक ने खुद देख कर किताब के पहले और दूसरे पन्नों पर विस्तार से दिया है. और बाद में कानु सान्याल की जीवनी को लिखने की शुरुआत की है. (अपने आप को कमरे के अंदर बंद कर के और घर छत की लकडी के आडे खंबे को नायलॉन का दोर बांध कर उससे अपने आप को फांसी का फंदा बनाकर लकडी के स्टुल और प्लास्टिक की खुर्चि के सहारे से चढकर झुला लिया. )

दोपहर के तीन बजे की घटना से शुरू की है. यह उनके जीवन का अस्सी साल के जीवन के आगे की उम्र के कारण आई हुई, शारिरीक बीमारियों से तंग आकर और अकेला पन यह दो कारण उनके आत्महत्या के लिए दिखाईं दे रहे. क्योंकि उन्होंने शादी के बारे में अपने अंतिम दिनों में वकालत की है. कि साथीयो ने अपनी पसंद के जीवन साथी के साथ शादी करनी चाहिए. उससे जीवन के अंतिम पड़ाव में एकाकीपन का शिकार नहीं बनना पडता. हालांकी कम्युनिस्ट पार्टी के और आर एस एस के पूर्ण समय कार्यकर्ताओं को शादी नहीं करने की शर्त होती है.

हालांकी शादी करने के बाद भी अन्य कारण से लोगों को आत्महत्या करने के दर्जनों उदाहरण है. मेरे मित्र और बंगाल के बहुत ही प्रतिभाशाली विचारवंत और रवीन्द्रनाथ टैगोर और महात्मा गाँधी के बहुत ही अच्छे भाष्यकार खुद शादी-शुदा थे. (एक लडकी और लडका) दो बच्चों के पिता थे. लेकिन सहजीवन, जीवन के आखिरी पडाव मे बिखर गया था. खुद अकेले ही कलकत्ता के घर मे रहते थे. और मेरे उनके साथ मैत्रीपूर्ण संबंध होने के कारण मैं अक्सर उनके घर पर जाते रहता था. क्योंकि उनकी और मेरी उम्र में 25 साल का फासला था. और मैने और मेरे बंगाल के युवा मित्रों के सहयोग से एक अभ्यास मंडल भी उनके घर पर शुरू किया था . जिसमें, हम उन्हें भी रिसोर्स पर्सन के रूप में शामिल करते थे. लेकिन इसके बावजूद उन्हें जीवन से विरक्त होते हुए अपने नजर के सामने देख रहा था. हालांकी हमारे आपसी नजदीकी संबंधों के कारण वह जब हम सिर्फ दोनों ही होते थे. तब अपने आत्महत्या के विचारों को शेयर करते थे. और बार – बार मुझसे आग्रह करते थे, कि “तुम मुझे आत्महत्या के लिए मदद करो”. और मै उनसे कहता था कि “आप क्यो आत्महत्या करना चाहते यह बात मुझे समझ में नहीं आ रही इसलिए मैं आपको मदद नहीं कर सकता.”

और उन्होंने खुद ही कानु सान्याल जी के ही जैसे अंतिम दिनों में तीन बार आत्महत्या की असफल कोशिश भी की है. और उसके बाद जब भी मुझे मिलतें थें ,तो यशस्वी आत्महत्या के लिए मुझे मदद करने की बात करते थे. और मै उन्हें कहता था कि, आपको आत्महत्या क्यों करनी है ? यह मैं जबतक नहीं समझता, तबतक मुझे आपकों आत्महत्या करने के लिए मदद करने के लिए, कोई कारण ही नजर नहीं आता है. और इतनें सारे दुनियाके सवाल रहते हुए, इस तरह आप जैसे बेहतरीन लोगों को गवाने की गलती मै नहीं करने वाला . हालांकी बाद में उम्र के कारण उनकी सोफे पर बैठ – बैठे ही टीवी पर पर क्रिकेट की मॅच देखते – देखते ही, उम्र के 87 साल के होने से हृदय गति थमने से नैसर्गिक मृत्यु हुई.

दुसरे मेरे सार्वजनीक जीवन के पिता जिनका 19 अगस्त के दिन 103 वी जयंती थी. प्रोफेसर ग. प्र. प्रधान(मास्तर) भी अपने अंतिम दिनों में जब जीवन साथीन डाॅ . मालविका प्रधान की मृत्य होने के पस्चात (उनके कोई संतान नहीं थी ) वह पुणे हडपसर के साने गुरूजी हास्पीटल में एक कमरे में रहने चले गए थे. क्योंकि उन्होंने अपने पुस्तैनी घर को साधना साप्ताहिक को दान कर दिया था. तो मैंने जब भी उनसे हडपसर में जाकर मुलाकत की, तो मुझे कहते थे कि “सुरेश मुझे मृत्यु क्यों नहीं आती ? मुझे मेरे जीने का कोई पर्पज दिखाई नहीं दे रहा.” और मै घंटों उन्हें कहते रहता था. कि “देश ‘दुनिया के इतने सवालों के रहने के बावजूद आप पर्पज नहीं है, यह कैसा बोल सकते ? ठीक है आप के शरीर की उम्र के कारण कुछ मर्यादाए है. लेकिन हमारे जैसे लोगों को मार्गदर्शन तो कर सकते ? “लेकिन उनकीं एक ही रट होती थी कि मुझे जीने का पर्पज नहीं रहा. और दुसरा डर उनके मन में पैठ गया था कि मेरी स्मृति चली जाएगी. और मै बार-बार उनके स्मृति कैसी ठीक-ठाक है. यह कई-कई उदाहरण देकर समझाने की कोशिश करने के बावजूद उनका समाधान नहीं होता था. हालांकी उनकी भी 92 सालो की उम्र के कारण मृत्यू हुई है.

और यही बात बाबा आमटे जी को भी आखिरी समय में मैं जब-जब मिला, तो वह भी मुझे विस्मृती की बिमारी होने की संभावना है ,बोलते थे. और मुझसे मेरे अमरावती के 1969 के कालेज जीवन की बातें करते थे. क्योंकि जब मैंने अमरावती में कालेज में प्रवेश लिया ,उसी साल वह अमरावती में शिवाजीराव पटवर्धन के विदर्भ लेप्रसी आश्रम के 25 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में मुख्य मेहमान बनकर आए थे.और उन्होंने अमरावती छोडने तक मुझे कंपनी देने के लिए अपने साथ दो दिनों के लिए रोक लिया था.
कुछ समय पहले की बात है कि, नागपुर विश्वविद्यालय की एक विज्ञान की प्रोफेसर मैडम ने अपने फ्लेट के नौवीं मंजिल से कूदकर जान दे दी. और यही सुनने में आया कि ,उनके पति जो पूर्व वी सी थे . उनका मार्च मे निधन हो गया था. और एकमात्र बेटा अमेरिका मे रहता है. और मैडम अमेरिका एक दो महीने रहकर वापस आने के बाद उन्हें भी जीवन जीने का पर्पज नहीं रहा ऐसा लगने लगा था और अपने फ्लेट के नौवीं मंजिल से कूदकर जान दे दी.

मै किताब की समिक्षा के लिए बैठा हूँ. लेकिन कानु सान्याल ने आत्महत्या की है. यह बात उनकीं पार्टी के पदाधिकारियों ने अभीतक आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं की है. इसलिये मैने इतने उदाहरण देते हुए समिक्षा की शुरुआत की है. क्योंकि कोई भी क्रांतिकारी भला आत्महत्या कैसें कर सकता ? यह पार्टी स्विकार करना नही चाहती.

यह मौलिक सवाल पार्टी के पदाधिकारियों के सामने होने के कारण उन्होंने अपने अधिकारीक व्यक्तव्य में, आत्महत्या की बात को अनदेखा किया है. ज्योंकी कानु सान्याल के साथ रह रहे लोगों ने कहा कि जबसे उन्हें उम्र के कारण अस्सी साल के जीवन में, अलग-अलग बिमारिया शुरू हुई थी . तो वह अक्सर आत्महत्या की बात करते थे. और, 23 मार्च (भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा देने का दिन ) 2010 के दिन जब कानु सान्याल ने अस्सी साल के जीवन के आगे का सफर जो एजिंग के कारण काफी तकलीफ का हो गया था. आराम से दोपहर का लंच समाप्त करने के बाद अपने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया था और चुपचाप, खुद होकर गले में फांसी लगाकर अपने आप को समाप्त कर लिया. और मैंने जितने भी लोगों के अपने खुद के व्यक्तिगत जीवन में आये हुए लोगों के उदाहरण दिये हैं. उन सभी का भी डर यही था कि अपाहिज होकर जीनेसे बेहतर होगा हम उसके पहले मर जाएं .

कानू सान्याल की पार्टी वैज्ञानिक समाजवाद को मानने वाली पार्टी है. और विज्ञान तथा रेशनल थिंकिग की वकालत करने वाले लोगों के, अपने खुद के काॅम्रेड की आत्महत्या की है. यह बात अस्वीकार करने जैसी अविवेक पूर्ण बात ,मुझे बहुत हैरान करने वाली लगती है. और मुझे इसमें पार्टी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होने की चालाकी कर रही है. ऐसा भी लगता है. कि हमारे नेता को किसी भी कारण रहे हो लेकिन आत्महत्या करनी पड़ी. और हम कुछ नहीं कर सके ? तो एक सिरे से आत्महत्या को ही नकार दो, यह पार्टी का एस्केपिझम (पलायन) के अलावा और कोई दूसरा कारण मुझे नजर नहीं आता है. आदमी की कमजोरीया होती है. भले वह किसी भी विचार का क्यों ना हो ? और हताशा, आनंद यह आना-जाना बिल्कुल ही स्वाभाविक है. इस बात का एहसास अंध भक्तों को नहीं होता है. या होता है तो भी स्वीकार करना नहीं चाहते. वह अपने नेता या गुरु को इन सब कमजोरियों से ऊपर मानते हैं. हालांकि कम्युनिस्ट अपने आप को बहुत ही रेशनल थिंकिग वाले समझते हैं, यह बात दीगर है.

और बाद में उनके बचपन से, विद्यार्थी और शुरूआती जीवन से शुरू करते हुए जो की भारत की आजादी के आंदोलन का समय है. जन्म अगर 1929-30 के दौरान का है तो भारत छोड़ो आंदोलन के समय तेरहवॉं या चौदहवाँ सालकी उम्र रही होगी. और आजादी के समय सत्रह-अठारहवां साल. यानी एकदम संवेदनशील उम्र के दौरान कानु सान्याल रहे होने के कारण. अंग्रेजी राज के बाद आजाद के भारत में पुलिस की ज्यादतियों और सरकार की गलत नीतियों को लेकर किसी भी संवेदनशील युवक की जो भी प्रतिक्रिया होगी, वह कानु सान्याल ने भले सुभाष बाबू के खिलाफ कम्युनिस्ट पार्टी के आलोचना को देखकर कम्युनिस्ट पार्टी के बोर्ड को रात में तोड़फोड़ की थी. लेकिन आजादी के बाद 1949 में तत्कालीन मुख्यमंत्री विधानचंद्र राय ने कम्युनिस्ट पार्टी के बैन क्यों लगाया ? यह बात बीस साल के कानु सान्याल को गलत लगी. और बगैर कोई कम्युनिस्ट तत्वों को समझने के पहले ही वह कम्युनिस्ट पार्टी के तरफ खींचे चले गये. हालांकि बंगला में अनुवादित स्टालिन ने लिखा हुआ बोल्शेविक क्रान्ति का इतिहास पढा था . लेकिन उन्होंने अपने कन्फेशन में कहा था कि मुझे कुछ भी नहीं समझ में आया था. कालेज के फर्स्ट इयर में फैल हो गए. और नौकरी की तलाश कर रहे थे. तो उन्हें कालींमपांग के रेवेन्यू ऑफिस में क्लार्क की नौकरी मिल गई थी. लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के बैन ने उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी के लिए अंडरग्राउंड काम करने की प्रेरणा हुई. और उन्होंने ही समाज सुरक्षा समिति नाम से सिलिगुडी मे धरना-प्रदर्शन करने की शुरुआत की है. और इसी कारण कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को उनके संगठन कौशल को देखकर पार्टी के पूर्ण समय कार्यकर्ता की जिम्मेदारी देने का निर्णय लिया था. जब कि वह राज्य सरकार की नौकरी में थे. लेकिन जेल मे जाने के कारण वह खुद ही दोबारा नौकरी करने नहीं गए.

भारत के बहुसंख्यक लोगों के जैसे ही कानु सान्याल के भी जन्म तिथि की सही जानकारी नहीं होने के कारण,उन्होंने खुद ही उनके 1929-30 के दौरान जन्म दिन का अंदाजा लगाया है. वैसे स्कूल के दाखिले के अनुसार तो मैट्रिक की परीक्षा के सर्टिफिकेट पर 1 मार्च 1947 मे 16 साल आठ महीने उम्र लिखीं हुई है. लेकिन कानु सान्याल ने खुद ही उसे नकारते हुए कहा कि मुझे उम्र बढाकर स्कुल में दाखिल किया है. मै मान्सुन में 1929 मे पैदा हुआ हूँ.

बचपन में कानु एक नटखट बच्चा होने के कारण काफी मार शिक्षकों से लेकर घरवालो का भी खाये है. और एक एवरेज विद्यार्थी रहने के कारण मैट्रिक की परीक्षा दुसरे अटेम्ट में दुसरी डिवीजन में पास होने के बाद साइन्स के प्रथम वर्ष कालेज में (आई एस सी) दाखिला लिया. और कालेज के रास्ते में कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर था. तो एक दिन उसमें चले गये. तो पार्टी के पदाधिकारियों से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के लिए अपशब्द सुनने के कारण नाराज होकर वापस चले आए. और फार्वड ब्लाक के दफ्तर में जाने लगे. लेकिन वहां भी सुभाष बाबू के तारीफ के अलावा कुछ भी नहीं सुनने को मिलता था. उल्टा सुभाष बाबू मरे नहीं जिंदा है. यह सुनकर तो फॉरवर्ड ब्लॉक पर का पूरा विश्वास ही खत्म हो गया.

मैट्रिक के बाद यानी सोलह-सत्रहवे उम्र के दौरान ,उन्होंने तत्कालीन घटनाओं का सज्ञान लेकर अपनी अंदर की खोज करने की प्रेरणा के आधार पर ,दिसंबर 1947 के कलकत्ता कांग्रेस के अधिवेशन में एक स्वतंत्रता सेनानी के साथ सिलिगुडी से कलकत्ता जाकर तत्कालीन नेता महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरु के दर्शन के लिए, कोशिश करने की होड़ में भीड़ बेकाबू होने के कारण कानु सान्याल भीड मे जमीन पर गिर पड़े और अपने हाथ का फ्रैक्चर कर लिये. लेकिन उस कारण स्वयंसेवकों ने उन्हें स्ट्रेचर पर डाले अस्पताल ले जाते समय स्टेज के सामने से ले जाते हुए स्टेजपर बैठें महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरु के नजदीकी से दर्शन करने का आनंद मे अपने हाथ में फ्रैक्चर के कारण हो रहा दर्द भूल गए थे. और वह हाथ पर प्रापर ट्रीटमेंट नहीं होने के कारण जीवन भर के लिए वह अपने दाहिने हाथ को टेढा कर बैठे.

1948 मे आई एस सी की परीक्षा में फैल हो गए. और घरवालो ने उनको फिर परीक्षा देने के लिए कहा तो उन्होंने नौकरी करने के लिए अर्जिया देना शुरू कर दिया. और रेवेन्यू ऑफिस में क्लार्क की नौकरी मिल गई थी. लेकिन साथ-साथ राजनीतिक काम में रूचि होने के कारण कम्युनिस्ट पार्टी को बैन क्यों लगाया ? यह बात बीस साल के कानु सान्याल को गलत लगी. और बगैर कोई कम्युनिस्ट तत्वज्ञान को समझने के पहले ही उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के अंडरग्राउंड काम करने की प्रेरणा के कारण समाज सुरक्षा समिति के नाम से सिलिगुडी मे धरना-प्रदर्शन करने की शुरुआत की है. और यह सब करने के कारण वह पार्टी की नजरों में अच्छे संघटक लगे. तो पार्टी ने पूर्ण समय कार्यकर्ता के लिए चुना. 1951 से वह विधिवत पार्टी के पूर्ण समय कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी का वहन शुरू कर के दस साल होने को आए. और भारत चीन युद्ध के दौरान 1962 मे सभी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को गिरफ्तार कर के दमदम जेल में रखा था. जिसमे उनका भी समावेश था. जेल के अंदर चीनियों द्वारा किया गया हमला है या भारत को सामंतवाद पुंजीवाद से मुक्ति दिलाने के लिए हमला किया है. इसको लेकर धमासान बहस हुई है. और इस बहस के परिणाम स्वरूप कम्युनिस्ट पार्टी के तीन गुट बन गए. एक मध्यम मार्गी (सेंटरिस्ट) (सीपीएम्) दुसरे गुट को राष्ट्रवादी (नेशनलिस्ट), (सी पी आई) और तीसरे गुट को आंतरराष्ट्रीय वादी (इंटरनेशनलिस्ट) (यही नक्सल आंदोलन के बीज डाले गए ) और यह गुट खुलकर चीनी आक्रमण को भारत की मुक्ति के लिए, स्वागत की भुमिका मे चला गया . और इसी कारण सितंबर 1967 मे बंगला देश की तरफसे चीन जाने के लिए कानु सान्याल और तीन साथी पैदल निकल पडे थे. लेकिन वापस आना पडा. फिर सितंबर के प्रथम सप्ताह में दोबारा नेपाल के रास्ते पैदल जाने का तय किया. और 30 सितम्बर को पेकिंग पहुंचे. और एक ऑक्टोबर के दिन चीन की क्रांति के अठारहवां वर्ष का तिअनमैन क्स्वेअर के भव्य-दिव्य कार्यक्रम को देखकर बहुत ही प्रभावीत हुए. और दुसरे ही दिन दो अक्तुबर को 1967 के दिन माओ के साथ ब्रीफ मिटिंग हुई. और 4 अक्तूबर से तीन महीने के लिए वैचारिक और मिलिटरी ट्रेनिंग. और माओ की टॅक्टिस की ट्रेनिंग, पेकिंग के पीपुल्स आर्मी के कैम्प में हुई. और दिसंबर 1967 को भारत के लिए निकलने के पहले माओ के साथ 45 मिनट की मीटिंग हुई. जिसमे मिलते हुए माओ ने कानु सान्याल को गले लगा लिया था. ( हालांकी माओ छ फीट की ऊंचाई के, और कानु पांच फीट की ऊंचाई वाले. तो गले से ज्यादा छाती को लगा लिया कहना ज्यादा उचित होगा. ) और माओ ने नक्सल आंदोलन के लिए कुछ टिप्स दिए. और यह चारों लोग 26 दिसंबर 1967 के दिन चीन से नक्सलबारी वापस आए.

और उम्र के बीस साल मे 1950 कानु सान्याल ने सी पी आई की मेंबरशिप पाई थी. और पहला काम उन्हें पार्टी ने सौंपा कि चारू मजूमदार जो सीपीआई के वरिष्ठ नेता थे उन्हें सिलिगुडी जेल से बक्सा जेल ट्रेन द्वारा ले जाते वक्त पुलिस की नजरों से बचकर पार्टी ऑफिस ने एक पत्र दिया था उसे चारू मजूमदार को स्टेशन पर चुपचाप सौपना. और यह काम कानु सान्याल ने जबरदस्त पुलिस बंदोबस्त के कारण पुलिस ने देखा इसलिए वह भागे बाद में उसी गुनाह के कारण दोबारा जेल गए. तो जेल में चारू मजूमदार की और अन्य वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेताओकी सोहबत मिली. 1950 यानी कानपुर में पच्चीस साल के पहले 1925 में स्थापित कम्युनिस्ट पार्टी के कानु सान्याल, चारू मजूमदार जैसे लोगों की राजनीतिक जीवन की शुरुआत भले प्रस्थापित कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा हुई है. लेकिन उनके क्रांति के लिए जल्द बाजी मे बहुत ही जल्द उनके प्रस्थापित कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मतभेद होने के कारण, उन्होंने शुरू-शुरू में पार्टी के अंदर रहकर ही अपना कृषक और चाय बगानोके मजदूर संगठन जो कम्युनिस्ट पार्टी बनने के पहले से ही था. उसे मजबूत करने के लिए मुख्य भुमिका जमीनि स्तर पर कानु सान्याल ने ही जबरदस्त की रही है. और चारू मजूमदार की तबियत खराब रहने के कारण वह ज्यादा तर बेड पर ही पढने, लिखने का काम करते थे. और कानु सान्याल जी से दस -बारह साल बडे होने के कारण कानु सान्याल संकोच में उनके गलत आदेश का पालन करते थे. जिसका कन्फेशन जीवनी के लेखक को दिऐ साक्षात्कार में उन्होंने अपने कन्फेशन में कहा था कि “मैं कम्युनिस्ट फिलासफी के अनुसार डी फ्युडल नहीं हो सका. और चारू मजूमदार की क्लास एनिमी-एलिमिनेशन की थियरी मुझे शुरू से ही मंजूर नहीं थी. जब तक मास ऑर्गनाइजेशन नहीं बनती तबतक क्लास एनिमी-एलिमिनेशन की थियरी आत्महत्या करने जैसी ,अविवेक पूर्ण होगी. लेकिन उनके इस अतिवादी लाइन को कलकत्ता के विद्यार्थीयोने, कलकत्ता में युनिवर्सिटी, और कालेज तथा हमारे क्रिटिक करने वाले बुद्धिजीवियों तथा पत्रकारों तथा कलाकार और विरोधी पार्टियों के लोगों की हत्याए करने के लिए तथाकथित कांगारू कोर्ट में बाकायदा सजा देने का सिलसिला शुरू कर दिया था.” यह कन्फेशन पढने के बाद मुझे मेरे मित्र और बंगाल के बहुत ही अच्छे पत्रकार तथा लेखक गौर किशोर घोष को भी तथाकथित कांगारू कोर्ट ने मौत की सजा देने का एलान किया था. यह प्रसंग याद आया. क्योंकि उन्होंने आनंद बाजार पत्रिका अखबार और उसीके देश नाम की मैगजीन में ‘आमा के बोलतें दांव’ (मुझे भी बोलने दो ) इस टाइटल से हिंसक कार्रवाइयों के खिलाफ लेख लिखें थे.

और इस तरह की अतिवादी लाइन के कारण स्टेट को जबरदस्त पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों की मदद से साठ से सत्तर के दशक में, पहले लेफ्ट फ्रंट की मिली-जुली सरकार, जिसमें ज्योति बसु उप-मुख्यमंत्री थे. और बाद में तो कांग्रेस 1972 से 77 तक सिद्दार्थ शंकर राय मुख्यमंत्री बनने के बाद शायद बंगाल का सबसे बेहतरीन ब्रेन वाले युवक-युवतियां मारनेके काम वह भी दिन दहाडे कलकत्ता के इतिहास प्रसिद्द ब्रिगेड परेड ग्राऊंड में, शेकडो लोगों को तथाकथित एनकाउंटर करके मारा है. और उनके इसी अमानवीय व्यवहार के कारण अस्सी के दशक में पंजाब के खलिस्तानी आंदोलन को निपटाने के लिए उन्हें श्रीमती इंदिरा गाँधी ने दोबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद, उन्हें खालिस्तानीयोंका बंदोबस्त करने के लिए पंजाब का राज्यपाल बना कर भेजा था. और राष्ट्रपति राज में जितने क्लास एनिमी-एलिमिनेशन नहीं किये होंगे, उससे भी ज्यादा बंगाल की एक युवा पीढ़ी और पार्टी के महत्वपूर्ण साथीयो को सरकार की एजेंसियों ने एलिमिनेट किया है. और लाल बाजार पुलिस कस्टडी में खुद एलिमिनेशन थियरी खोज करने वाले चारू मजूमदार की संदेहास्पद परिस्थितियों में 28,जुलाई 1972 के दिन मृत्य होने के पस्चात तो नक्सल आंदोलन का पतनशीलता कोई ठिकाना नहीं रहा. काफी साथी मारे गए. और बचे हुए विभिन्न जेलों में अलग-अलग आरोपों में बंद किये गये. और जहाँ से नक्सलवाद का जन्म हुआ ,नक्सलबारी वहां के लोगों के साथ चाय बगानोसे मजदूर संगठन और भूमिहीनों को आंदोलन के बाद, जमीन दी हुई भी, जमिनदारोकी ज्यादतियों के कारण वापस उनके पास चली गई. इस सब दमनकारी नीतियों के कारण हमारे अपने कई-कई गुट बनना शुरू हुए. और मै अपने तईं लगातार एक करने की कोशिश जीवन के अंतिम समय तक करता रहा. लेकिन फिर फुट होकर गुटबाजी के कारण शायद जितने विभिन्न गुट नक्सल आंदोलन के है, उतने और किसी के नहीं होंगे. हालांकी नक्सलबारी में भले अब कुछ भी नक्सलाइट नहीं रहने के बावजूद, झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्र-तेलंगाना, महाराष्ट्र, बिहार, आसाम, मणिपुर, नागालैण्ड यानी लगभग देश का एक चौथाई से भी ज्यादा हिस्सा तथाकथित रेड कॉरिडोर के नाम से जाना जाता है. और कश्मीर से भी ज्यादा संख्या में हमारे देश के सुरक्षा बलों को तैनात किया गया है. और इसमें स्थानीय लोगों का कुछ भी सपोर्ट नहीं रहने के बावजूद. जब भी कभी सुरक्षा बलों की कार्यवाही होती है, तो मरने वाले स्थानीय आदिवासी, दलितों की संख्या ज्यादा होती है. और गत 25-30 सालों से बिलकुल यही आलम जारी है. और अरूंधति रॉय जैसी आंतरराष्ट्रीय स्तर की मशहूर हस्तियों के द्वारा ,जब इस तरह के काम की सराहना होती है. तो मेरे जैसे पचास साल से भी ज्यादा समय से सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वाले साथी को बहुत ही हैरानी होती है. की अरूंधति रॉय का साहित्यिक लेखन अपने जगह पर है. लेकिन रेड कॉरिडोर का महिमामंडित करने के ,और महात्मा गाँधी के और डॉ. बाबा साहब अंबेडकर के भीतर नकली वादविवाद को हवा देने की बात बहुत ही गैरजिम्मेदारी वाली ,और अकादमिक अनुशासन के उल्लंघन के उदाहरण के तौर पर मैंने अरूंधति रॉय का खुलकर आमने-सामने विरोध किया है.

और सबसे हैरानीकी बात 1952 से 1972 तक लगातार तीस साल चुनावों में भागीदारी करने के बावजूद हमारे उम्मीदवारों की हार ही होती थी. और अब तो उत्तर बंगाल जो कभी भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन का गढ रहा. वह आज भारत की सबसे दकियानुसी, घोर सांप्रदायिक और जातिवादी पार्टी बीजेपी आज गत बीस साल के भी पहले से जितना शुरू हुई है . और इस बार तो उन्होंने उत्तर बंगाल के ज्यादा से ज्यादा सीटों पर विजय प्राप्त कर ने के क्या कारण हो सकते ? इसका बचे-खुचे कम्युनिस्ट लोगों को अंतर्मुख होकर मंथन चाहिए.


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