अंग्रेजी के प्रोफेसर, हिंदी के कबीर विजयदेव नारायण साही

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Vijaydev Narayan Sahi

— राघवेंद्र दुबे भाऊ —

वैकल्पिक प्रगतिशीलता की देसी जमीन के प्रतिनिधि और समाजवादी आंदोलन के बौद्धिक नेता प्रो. विजयदेव नारायण साही इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उस समय अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष और प्रोफेसर तो थे , जब मेरा छोटा भाई , भाषा का गामा , विशुद्ध बलियाटिक , वरिष्ठ चिंतक पत्रकार रवीन्द्र ओझा अंग्रेजी साहित्य से एमए कर रहा था । ओझा जी सगर्व खुद को विजयदेव नारायण साही का चेला कहते हैं ।

साही जी कुजात मार्क्सवादी थे । आचार्य नरेन्द्रदेव की प्रेरणा से समाजवादी अंदोलन में आये और मार्क्सवाद को भारतीय जमीन पर प्रतिष्ठित करने और भारतीय संदर्भ देने में लगे रहे । आज उनका जन्मदिन है जो मार्क्सवाद के भारतीय संस्करण की खोज के अध्येता थे । इसलिए कुछ लोग उन्हें कुजात मार्क्सवादी भी कहते हैं ।

जब साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन की धूम मची थी साही जी वैकल्पिक प्रगतिशीलता की देसी जमीन के संधान में लगे थे । आलोचना की उनकी अपनी मौलिक समझ थी । कहते हैं , प्रख्यात आलोचक , पब्लिक इंटेलेक्चुअल नामवर सिंह जी भी साही जी से कोई मुठभेड़ बचा ले जाते थे ।

‘तीसरा सप्तक’ ( संपादित अज्ञेय- 1959 ) के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि साही जी ने ‘ नयी कविता ’ को नया अर्थ-विस्तार दिया । उनका अंदाज कबीरी था । उनका जन्मस्थान भी कबीरचौरा , वाराणसी है । अंग्रेजी का यह प्रोफेसर हिंदी का कबीर था।

कुंवर जी ने लिखा है – ‘ उनकी कविताओं में कहीं भी गुस्से का छिछला प्रदर्शन नहीं है: ताकत- लगभग हिरोइक आयामों वाली ताकत की भव्यता है- ‘ एक चढ़ी हुई प्रत्यंचा की तरह.’ उनमें वह दृढ़ता और संयम है, जिनसे महाकाव्य बनते हैं, तुरत खुश या नाखुश करने वाली कविताओं की चंचलता नहीं ।

साही की यह मुद्रा इधर लिखी गई उन तमाम कविताओं से बिलकुल अलग है जिनमें हम नाराजगी और उत्तेजना को लगभग एक रूढ़ि बन जाते देखते हैं । इस सन्दर्भ में मैं समझता हूँ साही लगभग क्लासिक अनुशासन में लिखी गई कविताओं के एकमात्र ऐसे उदहारण हैं जिसने एक ओर अंग्रेजी साहित्य के क्लासिक अनुशासन की मर्यादा स्वीकार किया तो दूसरी ओर उर्दू-फारसी के श्रेष्ठतम आदर्शों को नजर के सामने रखा ।..’

कुंवर नारायण ने लिखा है – ‘ जिस तरह साही अपनी कविताओं में नाटकीय तत्त्वों और भाषाई अलंकरण को एक बहुत ही परिष्कृत रचनात्मकता का हिस्सा बनाते हैं वह हर एक के वश की बात नहीं है । नाटकीय तत्त्वों और शब्दालंकारों के उपादानात्मक प्रयोग में अगर जरा भी असावधानी हो तो वह कविता के नाजुक तंतुओं को बिलकुल सुन्न कर दे सकता है ।

साही की कविता नाटकीयता और भाषाई अलंकरण की किलाबंदी नहीं है, कविताओं के पीछे उनकी हल्की छाप या अक्श का लहराता आभास भर रहता है जिसके ऊपर कविता लिखी हुई जान पड़ती है- जिसके नीचे दबी हुई नहीं- न जिसके बगल में ही लिखी हुई । साही की कविताओं में जो एक ख़ास तरह की दृढ़ता है उसका गारा भर क्लासिकल रहता है. लेकिन स्थापत्य साही का बिलकुल अपना और अपने समय की या जीवन की प्रमुख समस्याओं से रगड़ खाता हुआ …’

टाइम ऐनेलाइजर , प्रो. देवेश कहते हैं कि दरअसल साही जी प्रोफेसर , कवि , प्रखर आलोचक से इतर या उस दायरे को छलांग कर अपने समय के संश्लिष्ट , सर्जक जनबुद्धिधर्मी ( पब्लिक इंटेलेक्चुअल ) थे । संघर्ष ही उनके जीवन का बीज फलक था । इसलिए वह जीवन भर समाजवादी लड़ाका बने रहे …।

1973 में उन्होंने भारत सरकार के सांस्कृतिक प्रतिनिधि के तौर पर युगोस्लाविया में ‘ स्ट्रगा वर्ल्ड पोएट्री फेस्टिवल ‘ में भाग लिया । उलान बतोर, लेनिनग्राद, प्राहा, बारशावा, हैम्बर्ग, हाइडेलबर्ग के विश्वविद्यालयों में ‘ कंटेंपरेरी इंडियन कल्चर एंड लिटरेचर एंड द इंपैक्ट ऑफ द वेस्ट ‘ विषय पर भाषण दिये ।

इससे पहले 1970-71 में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज में ‘सेकुलर एंड नॉन सेकुलर ट्रेंड्स इन नॉर्थ इंडियन लिटरेचर ‘ तथा ‘ वेस्टर्निज्म एंड कल्चरल चेंज इन इंडिया ‘ विषय पर भी वे पेपर पढ़ चुके थे ।

क्रांतिकारी अभिवादन , सलाम साथी साही । इसी तरह बने रहना आप हमारे साथ ।


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