पुरानी फाइल ने खोले चुनाव आयोग के झूठ – योगेंद्र यादव

0
chunav aayog

Yogendra yadav

वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण या एसआईआर का बुनियादी झूठ पकड़ा गया है। इस झूठ का पर्दाफ़ाश उस दस्तावेज से हुआ जिसे चुनाव आयोग पिछले तीन महीनों से छुपा रहा था। यह दस्तावेज़ है  वर्ष 2003 में बिहार की वोटर लिस्ट में हुए गहन पुनरीक्षण की फाइनल गाइडलाइन।

किस्सा यूँ है कि जबसे बिहार में एसआईआर का आदेश आया तबसे चुनाव आयोग ने एक ही रट लगाई हुई है — “हम तो वही कर रहे हैं जो 2003 में हुआ था। इसमें नया क्या है? आप ऐतराज क्यों कर रहे हैं?” लेकिन अचरज की बार यह है कि चुनाव आयोग ने 2003 की फाइल कभी भी सार्वजनिक नहीं की। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किए अपने ७८९ पेज के हलफनामे के साथ भी दायर नहीं की। जब कोर्ट में सुनवाई के दौरान यह सवाल उठाया गया कि “अच्छा यह दिखाइए की आपने 2003 में क्या किया गया था?” तो आयोग चुप्पी लगा गया। जब पारदर्शिता एक्टिविस्ट अंजलि भारद्वाज ने आरटीआई के जरिए इस आदेश की प्रति मांगी तो चुनाव आयोग ने कोई जवाब नहीं दिया। और जब पत्रकारों ने पूछा तो चुनाव आयोग के सूत्रों ने जवाब दिया की फाइल गुम हो गई है। साफ़ था की चुनाव आयोग कुछ छुपा रहा था, लेकिन सही सूचना किसी के पास थी नहीं।

आख़िर ये छुपा छिपी का खेल ख़त्म हुआ और पिछले हफ़्ते सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने इस दस्तावेज को सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत कर दिया। दिनांक १ जून २००२ को चुनाव आयोग द्वारा जारी यह ६२ पेज का दस्तावेज अब सार्वजनिक हो चुका है। उसे पढ़ने के बाद समझ आता है कि आखिर चुनाव आयोग इस दस्तावेज को दबाकर क्यों बैठा था — क्योंकि इसमें जो लिखा है, वह एसआईआर  संबंधी चुनाव आयोग के तीनों बुनियादी दावों का खंडन करता है।

चुनाव आयोग का पहला झूठ यह है कि 2003 में सभी मतदाताओं ने गणना पत्र या एन्यूमरेशन फॉर्म भरे थे। यही नहीं, पिछली बार सारी प्रक्रिया 21 दिनों में पूरी कर ली गई थी। उसी तर्ज़ पर इस बार भी फॉर्म भरवाए गए और पूरा एक महीने का समय दिया गया। लेकिन 2003 की गाइडलाइन कुछ और ही कहानी बताती है। इस दस्तावेज से यह साफ है कि 2003 में किसी भी मतदाता से कोई एन्यूमरेशन फॉर्म नहीं भरवाया गया था। उन दिनों चुनाव आयोग के स्थानीय प्रतिनिधि के बतौर  बीएलओ की जगह एन्युमेरेटर हुआ करता था। उसे निर्देश था कि वे घर-घर जाकर पुरानी मतदाता सूची में संशोधन करें। संशोधित सूची को नए सिरे से लिखा जाता था और उसपर परिवार के मुखिया के हस्ताक्षर करवाए जाते थे। सामान्य वोटर के लिए ना कोई फॉर्म था, ना कोई समय सीमा और ना ही फॉर्म ना भरने पर लिस्ट से अपने आप नाम कट जाने का डर। यानी इस बार एसआईआर में जो हुआ है उसका कोई दृष्टांत नहीं था।

चुनाव आयोग का दूसरा झूठ यह है कि 2003 में दस्तावेजों की शर्त बहुत कड़ी थी — तब तो मतदाताओं को केवल चार दस्तावेजों का विकल्प दिया गया था, जबकि अब 11 दस्तावेज स्वीकार किए जा रहे हैं।

लेकिन गाइडलाइन बताती है कि 2003 में किसी से कोई दस्तावेज मांगा ही नहीं गया था। दस्तावेज केवल उन लोगों से मांगे गए थे जो किसी दूसरे प्रदेश से आकर पहली बार अपने पूरे परिवार का वोट बनवा रहे थे। या उनसे जिनके बारे में शक था कि वो अपनी आयु ठीक नहीं बता रहे हैं या अपना सामान्य निवास गलत बता रहे हैं। यानी कि पिछली बार कुछ एक अपवाद को छोड़कर किसी से कोई दस्तावेज मांगा ही नहीं गया था, कोई सार्वभौमिक दस्तावेज सत्यापन नहीं हुआ था।। इसके ठीक उलट एसआईआर में हर व्यक्ति से कुछ ना कुछ काग़ज़ मांगा गया था, या तो २००३ की वोटर लिस्ट में नाम का प्रमाण या फिर ११ दस्तावेजों में कोई एक। ग़नीमत थी की बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उस सूची में आधार कार्ड जोड़ दिया।

चुनाव आयोग का तीसरा और सबसे बड़ा झूठ यह है कि 2003 में नागरिकता का सत्यापन हुआ था। चुनाव आयोग का कहना था कि 2003 की वोटर लिस्ट में जो लोग थे, उनकी नागरिकता पहले ही जांची जा चुकी है।इसलिए अब बाकी लोगों से दस्तावेज मांगे जा रहे हैं। यहाँ फिर पुराना दस्तावेज इस झूठ का भंडाफोड़ करता है। इन गाइडलाइन में सभी वोटर की नागरिकता की जाँच की कोई व्यवस्था नहीं थी। उलटे पुरानी गाइडलाइन के पैरा 32 में साफ लिखा है कि एन्यूमरेटर का काम नागरिकता की जांच करना नहीं है। पिछले आदेश के अनुसार नागरिकता का प्रमाण केवल दो स्थितियों में मांगा जा सकता था। या तो ऐसा इलाका हो जिसको राज्य सरकार ने ‘विदेशी बाहुल्य क्षेत्र’ घोषित कर रखा हो। अगर ऐसे इलाके में कोई नया व्यक्ति वोट बनाने आए जिसके परिवार के किसी व्यक्ति का वोट ना हो तो उसकी नागरिकता की जांच की जा सकती थी। या फिर तब जबकि किसी व्यक्ति के बारे में लिखित आपत्ति आए कि वह भारत का नागरिक नहीं है। उस स्थिति में आपत्ति करने वाले को उस व्यक्ति के विदेशी होने का प्रमाण देना होता था। उसके इलावा ना किसी की जाँच होती थी, ना किसी का नाम इस आधार पर काटा जा सकता था। पुरानी गाइडलाइन में साफ़ लिखा है कि अगर किसी का नाम पूर्व स्थापित वोटर लिस्ट में है तो उसे वजन दिया जाएगा। इस बार चुनाव आयोग ने विदेशी को चिन्हित करने का काम अपने हाथ में ले लिया । पिछली बार यह दायित्व सरकार का था, चुनाव आयोग का नहीं।

मतलब यह कि चुनाव आयोग का यह दावा कि वह एसआईआर में 2003 की गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया को दोहरा रहे हैं सरासर झूठ साबित हो चुका है। यही नहीं, चुनाव आयोग द्वारा २००३ की मतदाता सूची में शामिल निर्वाचकों को दस्तावेजों से छूट देने का प्रावधान भी आधारहीन साबित हो चुका है। देखना है कि अब चुनाव आयोग बिहार के बाद अन्य राज्यों में एसआईआर के पक्ष में क्या तर्क गढ़ता है।


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment