— क़ुरबान अली —
महात्मा गांधी के सच्चे वारिस, आदर्श राष्ट्रप्रेमी, अद्भुत वक्ता, उत्कृष्ट लेखक, इतिहासकार, स्वप्नदृष्टा और आधुनिक भारत के निर्माता के ख़िताब से नवाज़े जाने का श्रेय अगर किसी एक व्यक्ति को जाता है तो नि:संदेह वे भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ही हैं। आजादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाने के साथ-साथ भारत के नवनिर्माण, यहां लोकतंत्र को स्थापित करने और सांप्रदायिक सौहार्द को मजबूत बनाने में पंडितजी ने जो भूमिका निभाई उसके निए भारत हमेशा उनका कर्जदार रहेगा।
पंडितजी को राजनीति, अपने पिता पंडित मोतीलाल नेहरू से विरासत में मिली थी लेकिन उनके असली राजनीतिक गुरु महात्मा गाँधी ही थे जिन्होंने बाद में जवाहरलाल को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित किया। भारत की आजादी की लड़ाई की एक बड़ी और अहम घटना माने जानेवाले सन 1919 के जलियाँवाला बाग कांड के बाद से पंडितजी ने भारतीय राजनीति को दिशा देने में अहम भूमिका निभाई थी। उस समय वे जलियाँवाला कांड के कारणों की जांच के लिए बनाई गई कांग्रेस कमेटी के सदस्यों मोतीलाल नेहरू, देशबंधु चितरंजन दास और महात्मा गांधी के सहायक के रूप में नियुक्त किए गए।
कांग्रेस के इतिहास में अध्यक्षता सीधे पिता से पुत्र को मिलने की विरल घटना भी जवाहरलालजी के संदर्भ में ही देखने को मिलती है जब 1929 में लाहौर में रावी के तट पर कांग्रेस अधिवेशन के दौरान पंडित मोतीलाल नेहरू की जगह गांधीजी ने जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का फैसला किया था। इसी अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में जवाहरलाल जी ने भारत को आजाद कराने का संकल्प लिया और उसके लिए तारीख भी तय कर दी 26 जनवरी।
मगर पंडित जी के राजनीतिक जीवन से भी ज्यादा जिस चीज ने मुझे प्रभावित किया वह है उनकी इतिहास दृष्टि।
‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ यानी भारत की खोज और ‘ग्लिम्पसेस ऑफ द वर्ल्ड हिस्ट्री’ यानी ‘विश्व इतिहास की झलक’ उनकी ऐसी अदभुत किताबें हैं जो स्कूली छात्रों के पाठ्यक्रम में शामिल की जानी चाहिए।
जेल में रहते हुए बिना किसी संदर्भ के और इतिहास लेखन की विधिवत ट्रेनिंग लिये बिना उन्होंने अपनी बेटी इंदिरा गांधी को जो पत्र लिखे और जिसने बाद में एक विशाल ग्रंथ का रूप लिया वह पंडितजी की अद्भुत कृति है। दुनिया के पाँच हजार साल के इतिहास को जिस सलीके से पंडितजी ने लिपिबद्ध किया है उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती और इतिहासकारों ने इसे एच.जी. वेल्स की ‘आउटलाइन ऑफ द वर्ल्ड हिस्ट्री’ के समकक्ष का दर्जा दिया है। इसी किताब में पंडितजी ने लिखा है कि महमूद ग़ज़नवी ने सोमनाथ पर हमला किसी इस्लामी विचारधारा से नहीं किया था बल्कि वह विशुद्ध रूप से लुटेरा था और उसकी फौज का सेनापति एक हिंदू तिलक था। फिर इसी महमूद ग़ज़नवी ने जब मध्य एशिया के मुस्लिम देशों को लूटा तो उसकी सेना में असंख्य हिंदू थे।
पंडितजी को ‘आधुनिक भारत का निर्माता’ कहा जाता है और शायद इसमें कोई अतिशयोक्ति भी नहीं है।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद आर्थिक रूप से खस्ताहाल और विभाजित हुए भारत का नवनिर्माण करना कोई आसान काम नहीं था लेकिन पंडितजी ने अपनी दूरदृष्टि और समझ से जो पंचवर्षीय योजनाएँ बनाईं उसके नतीजे वर्षों बाद मिले। मुझे याद पड़ता है 1980 के दशक में जब भारत में अयोध्या का मुद्दा गरम था और रामजन्भूमि के लिए आंदोलन चल रहा था, दिल्ली में एक वरिष्ठ पत्रकार केवल वर्मा ने मुझसे मजाक में एक टिप्पणी करते हुए कहा था, “पचास के दशक में जब हम लोग पत्रकारिता में आए थे तो भारत का नवनिर्माण हो रहा था और उसके नए-नए मंदिर बन रहे थे जैसे भाखड़ा नांगल बाँध, रिहंद बाँध, भिलाई, राऊरकेला, बोकारो इस्पात कारखाना आदि और हम उनके निर्माण और आधारशिला रखने की खबरों को रिपोर्ट किया करते और तुम्हें अयोध्या जैसे मुद्दे रिपोर्ट करने पड़ रहे हैं, कितने बदक़िस्मत हो तुम लोग।”
हो सकता है कुछ लोग केवल वर्मा की इस टिप्पणी से सहमत न हों लेकिन भारत को विकासशील देशों की श्रेणी में खड़ा करने का जो काम पंडितजी ने किया उससे कौन असहमत हो सकता है। मेरी नजर में पंडितजी का दूसरा बड़ा काम भारत में लोकतंत्र को खड़ा करना था जिसकी जड़ें अब काफ़ी मजबूत हो चुकी हैं और जिसका लोहा पूरी दुनिया मानती है। सन 1952 में पंडितजी के नेतृत्व में देश के पहले आम चुनाव में स्वस्थ लोकतंत्र की जो नींव रखी गई थी वह आज तक जारी है।
अपनी जिंदगी के दो अन्य आम चुनाव 1957 और 1962 में अपनी पूरी शक्ति लगाकर उन्होंने इसे न सिर्फ और मजबूत बनाया बल्कि अपने विपक्ष को भी पूरा सम्मान दिया। जवाहरलाल जी ने अपनी पार्टी के सदस्यों के विरोध के बावजूद 1963 में अपनी ही सरकार के खिलाफ विपक्ष की ओर से लाए गए पहले अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा कराना मंजूर किया और उसमें भाग लिया। जितना समय पंडितजी संसद की बहसों में दिया करते थे और बैठकर विपक्षी सदस्यों की बात सुनते थे उस रिकॉर्ड को अभी तक कोई दूसरा प्रधानमंत्री नहीं तोड़ पाया है बल्कि अब तो प्रधानमंत्री के संसद की बहसों में भाग लेने की परंपरा निरंतर कम होती जा रही है।
पंडितजी प्रेस की आजादी के भी बड़े भारी पक्षधर थे और कहा करते थे कि लोकतंत्र में प्रेस चाहे जितना गैर-जिम्मेदार हो जाए मैं उसपर अंकुश लगाए जाने का समर्थन नहीं कर सकता।
शायद इसकी एक वजह यह भी थी कि वे एक दौर में खुद पत्रकार थे और प्रेस की आजादी का महत्त्व समझते थे। इसके अलावा भारत को सही ढंग से समझने और अंतरराष्ट्रीय मामलों की जो पकड़ पंडितजी की थी वह आज तक भारत के किसी दूसरे नेता की नहीं हो पाई है।
उनके प्रधानमंत्रित्व-काल में विदेश विभाग हमेशा उनके पास रहा और इसी दौरान उन्होंने मार्शल टीटो, कर्नल नासिर और सुकार्णो के साथ मिलकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी जो शीतयुद्ध की समाप्ति से पहले तक काफी प्रभावी रहा।
देश आजाद हो जाने के बाद से ही नेहरू जी ने अरब देशों के साथ रिश्ते मजबूत करने शुरू कर दिए। 1956 में स्वेज नहर संकट के दौरान पंडित जी अरब देशों के साथ मजबूती से खड़े नजर आये। इसी दौरान उन्होंने सऊदी अरब की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान सऊदी अरब शासक शाह सऊद ने नेहरू को ‘रसूल-अस-सलाम’ कह कर पुकारा जिसका अरबी में अर्थ होता है ‘शांति का संदेश वाहक’। लेकिन अरबी में इसे पैगम्बर मोहम्मद के लिए इस्तेमाल किया जाता है। नेहरू के लिए ये शब्द इस्तेमाल करने के लिए पाकिस्तान में शाह सऊद की काफी आलोचना हुई लेकिन उसी समय पाकिस्तान के जाने- माने शायर रईस अमरोहवी ने नेहरू की शान में एक क़सीदा लिखा जिसे कराची से छपनेवाले ‘जंग’ अखबार ने प्रकाशित भी किया।
‘जप रहे हैं माला एक हिंदू की अरब, ब्राहमनज़ादे में शाने दिलबरी ऐसी तो हो!
हिकमते पंडित जवाहरलाल नेहरू की कसम, मर मिटे इस्लाम जिस पर काफ़िरी ऐसी तो हो।’
जवाहरलाल नेहरू के लिए सेक्युलरिज्म और सांप्रदायिक सौहार्द उनके मज़हब और यकीन का हिस्सा थे जिसपर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने दिल्ली में हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द के उस त्यौहार ‘फूल वालों की सैर’ को दोबारा शुरू करवाया जो अंग्रेजों ने बंद करवा दिया था।
मशहूर शायर अली सरदार जाफ़री ने नेहरू की मौत पर दो नज़्में लिखी थीं एक का उन्वान था ‘रहबर की मौत’ और दूसरी थी ‘संदल ओ गुलाब की राख’; उन्होंने नेहरू को मुल्क की इज्जत और आबरू का रखवाला बताया।
‘वो वतन की आबरू, एहले वतन का इफ़्तिख़ार, महफ़िले इंसान में इंसानियत का ताजदार’
सरदार जाफ़री लिखते हैं,
‘सुना है जिस की चिता से ये खाक़ आई है, वो फ़सले ए गुल का पयम्बर था, अहदे नौ का रसूल’
मगर यह भी सच है कि अपने आखिरी वक्त में पंडितजी को कुछ नाकामियों का भी मुंह देखना पड़ा और चीन के साथ दोस्ती करना काफ़ी महंगा साबित हुआ।
हालांकि चीन के साथ दोस्ती की पहल उन्होंने काफी ईमानदारी से की थी और ‘पंचशील’ के सिद्धांत के साथ-साथ ‘हिंदी चीनी भाई-भाई’ का नारा दिया लेकिन 1962 में भारत पर चीन के हमला करने से पंडितजी भी बहुत दुखी हुए और कुछ लोगों का तो यह भी मानना है कि उनकी मौत का कारण यह सदमा ही था।