जी-7 का तमाशा : कंगाल मालिकों की तफरीह

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— कुमार प्रशांत —

पने को दुनिया का मालिक समझने वाले जी-7 के देशों का शिखर सम्मेलन इंग्लैंड के कॉर्नवाल में कब शुरू हुआ और कब खत्म, कुछ पता चला क्या?  हम दुनिया वालों को तो पता नहीं चला, उनको जरूर पता चला जो दुनिया का मालिक होने का दावा करते हैं : अमरीका, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान और इंग्लैंड। इन मालिकों के हत्थे दुनिया की जनसंख्या का 10 फीसद और दुनिया की संपत्ति का 40 फीसद आता है। अब यहीं पर एक सवाल पूछना बनता है कि जो 10 फीसद लोग हमारे 40 फीसद संसाधनों पर कब्जा किए बैठे हैं, उनकी मालिकी कैसी होगी और वे हमारी कितनी और कैसी फिक्र करेंगे?

दुनिया की सबसे बड़ी जनसंख्या का हिसाब करें कि सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का तो इस सम्मेलन में चीन की अनुपस्थिति का कोई तर्क नहीं बनता है। हम अपने बारे में कहें तो हम भी जनसंख्या व अर्थव्यवस्था के लिहाज से इस मजलिस में शामिल होने के पूर्ण अधिकारी हैं। लेकिन आकाओं ने अभी हमारी औकात इतनी ही आंकी कि हमें इस बार आस्ट्रेलिया व दक्षिण कोरिया के साथ अपनी खिड़की से झांकने की अनुमति दे दी।

हमारा गोदी-मीडिया भले गा रहा है कि हमारे लिए लाल कालीन बिछाई गई लेकिन यह वह दरिद्र मानसिकता है जिसमें आत्म-सम्मान की कमी और आत्म-प्रचार की भूख छिपी है।

अगर जी-7 को जी-8 या जी-9 न बनने देने की कोई जिद हो तो फिर इसमें चीन और भारत की जगह बनाने के लिए इटली और कनाडा को बाहर निकालना होगा। इन दोनों की आज कोई वैश्विक हैसियत नहीं रह गई है। आखिर 1998 में आपने रूस के लिए अपना दरवाजा खोला ही था न, जिसे 2014 में आपने इसलिए बंद कर दिया कि रूस ने क्रीमिया को हड़प कर अपना अलोकतांत्रिक चेहरा दिखलाया था। योग्यता-अयोग्यता की ऐसी ही कसौटी फिर की जाए तो भारत व चीन को इस क्लब में लिया ही जाना चाहिए। लेकिन जब योग्यता-अयोग्यता की एक ही कसौटी हो कि आप अमरीका की वैश्विक योजना के कितने अनुकूल हैं, तब कहना यह पड़ता है कि हम जहां हैं वहां खुश हैं, आप अपनी देखो!

जिस दुनिया की मालिकी का दावा किया जा रहा है, उस दुनिया को देने के लिए और उस दुनिया से कहने के लिए जी-7 के पास भी और हमारे पास भी है क्या? हमने और हमारे मालिकों ने तो यह सच्चा आंकड़ा देने की हिम्मत भी नहीं दिखाई है कि कोरोना ने हमारे कितने भाई-बहनों को लील लिया? अगर ऐसी सच्चाई का सामना करने की हिम्मत हमारे मालिकों में होती तो यह कैसे संभव होता कि जी-7 के हमारे आका कह पाते कि हम गरीब मुल्कों को 1 बिलियन या 1 अरब या 100 करोड़ वैक्सीन की खुराक देंगे? अगर हम आज दुनिया की जनसंख्या 10 अरब भी मानें तो भी हमें 20 अरब वैक्सीन खुराकों की जरूरत है – आज ही जरूरत है और अविलंब जरूरत है। अब तो हम यह जान चुके हैं न कि 10 अरब लोगों में से कोई एक भी वैक्सीन पाने से बच गया तो वह संसार में कहीं भी एक नया वुहान रच सकता है। ऐसे में जी-7 यह भी नहीं कह सका कि जब तक एक आदमी भी वैक्सीन के बिना रहेगा, हम चैन की सांस नहीं लेंगे।

कोविड ने यदि कुछ नया सिखाया है हमें तो वह यह है कि आज इंसानी स्वास्थ्य एक अंतरराष्ट्रीय चुनौती है जिसके लिए अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता जरूरी है। वैसी किसी प्रतिबद्धता की घोषणा व योजना के बिना ही जी-7 निबट गया। यह जरूर कहा गया कि कोविड का जन्म कहां हुआ इसकी खोज की जाएगी। यह चीन को कठघरे में खड़ा करने की जी-7 की कोशिश है।

अमरीकी राष्ट्रपति बाइडन जी-7 बिरादरी को दो बातें बताना या उससे दो बातें मनवाना चाहते थे : पहली बात तो यह कि अमरीका डोनाल्ड ट्रंप के हास्यास्पद दौर से बाहर निकल चुका है; दूसरी बात यह कि दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती चीन को उसकी औकात बताने की है। पहली बात बाइडन से कहीं पहले अमरीकी मतदाता ने दुनिया को बता दी थी। बाइडन को अब बताना तो यह है कि अमरीका में कहीं ट्रंप ने बाइडन का मास्क तो नहीं पहन लिया है! पिछले दिनों फलस्तीन-इजराइल युद्ध के दौरान लग रहा था कि ट्रंप ने बाइडन का मास्क पहन रखा है। चीन को धमकाने के मामले में भी बाइडन का चेहरा दिखाई देता है, ट्रंप की आवाज सुनाई देती है। बड़ी पुरानी कूटनीतिक उक्ति कहती थी कि अमरीका में आप राष्ट्रपति बदल सकते हैं, नीतियां नहीं। सवाल वीजा, नागरिकता, रोजगार नीति आदि में थोड़ी उदारता दिखाने भर का नहीं है। गहरा सवाल यह है कि दुनिया को देखने का अमरीकी नजरिया बदला है क्या?

जी-7 ने नहीं कहा कि वह कोविड के मद्देनजर वैक्सीनों पर से अपना एकाधिकार छोड़ता है और उसे सर्वसुलभ बनाता है। उसने यह भी नहीं कहा कि वैक्सीन बनाने के कच्चे माल की आपूर्ति पर उसकी तरफ से कोई प्रतिबंध नहीं रहेगा।

उसने यह जरूर कहा कि सभी देश अपना कॉरपोरेट टैक्स 15 फीसद करेंगे तथा हर देश को यह अधिकार होगा कि वह अपने यहां से की गई वैश्विक कंपनियों की कमाई पर टैक्स लगा सके। दूसरी तरफ यह भी कहा गया कि भारत, फ्रांस जैसे देशों को, जिन्होंने अपने यहां कमाई कर रही डिजिटल कंपनियों पर टैक्स का प्रावधान कर रखा है, इसे बंद करना होगा। ऐसी व्यवस्था से सरकारों की कमाई कितनी बढ़ेगी, इसका हिसाब लगाएं हिसाबी लोग लेकिन मेरा हिसाब तो एकदम सीधा है कि ऐसी कमाई का कितना फीसद गरीब मुल्कों तक, और गरीब मुल्कों के असली गरीबों तक पहुंचेगा, इसका पक्का गणित और इसकी पक्की योजना बताई जाए! कोविड की मार खाई दुनिया में यह सुनिश्चित करने की तत्काल जरूरत है कि किसी भी देश की कुल कमाई का कितना फीसद स्वास्थ्य-सेवा पर और कितना फीसद शिक्षा के प्रसार पर खर्च किया ही जाना चाहिए; और यह भी कि शासन-प्रशासन के खर्च की उच्चतम सीमा क्या होगी। ऐसे सवालों का जी-7 के पास कोई जवाब है, ऐसा नहीं लगा।

चीन के बारे में बाइडन को जी-7 का वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा वे चाहते थे। वह संभव नहीं था क्योंकि यूरोपीयन यूनियन चीन के साथ आर्थिक साझेदारी की संभावनाएं तलाशने में जुटा है। ब्रेक्जिट के बाद का इंग्लैंड भी चीन के साथ आर्थिक व्यवहार बढ़ाना चाहता है। चीन भी यूरोपीयन यूनियन के साथ संभावित साझेदारी का आर्थिक व राजनीतिक पहलू खूब समझता है। इसलिए उसने काफी रचनात्मक, लचीला रुख बना रखा है। इससे लगता नहीं है कि चीन का डर दिखाकर दुनिया का नेतृत्व हथियाने की बाइडन की कोशिश सफल नहीं हो सकेगी। आज हालात अमरीका के नहीं, चीन की तरफ झुके हुए हैं। चीन के पास भी दुनिया को देने के लिए वह सब है जो कभी अमरीका के पास हुआ करता था।

चीन के पास जो नहीं है वह है साझेदारी में जीने की मानसिकता। इसमें कोई शक नहीं कि चीन तथाकथित आधुनिकता से लैस साम्राज्यवादी मानसिकता का देश है। वह निश्चित ही दुनिया के लिए एक अलग प्रकार का खतरा है और वह खतरा गहराता जा रहा है। लेकिन उस एक चीन का मुकाबला, कई चीन बनाकर नहीं किया जा सकता है। चीन को दुनिया से अलग-थलग करके या जी-7 क्लब के भीतर बैठकर उसे काबू में करने की रणनीति व्यर्थ जाएगी। चीन का सामरिक मुकाबला करने की बात उसके हाथों में खेलने जैसी होगी। फिर चीन के साथ क्या किया जाना चाहिए? हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसे जगह देकर, अंतरराष्ट्रीय समाधानों के प्रति उसे वचनबद्ध करके ही उसे साधा जा सकता है। रचनात्मक नैतिकता व समता पर आधारित आर्थिक दवाब ही चीन के खिलाफ सबसे कारगर हथियार हो सकता है। सवाल तो यह है कि क्या जी-7 के पास ऐसी रचनात्मक नैतिकता है?  जी-7 के देशों का अपना इतिहास स्वच्छ नहीं है और उनके अधिकांश आका अपने-अपने देशों में कोई खास उजली छवि नहीं रखते हैं।

अंधेरे से अंधेरे का मुकाबला न पहले कभी हुआ है, न आज हो सकता है।

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