— प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन —
(तीसरी किस्त )
महात्मा गांधी, बादशाह ख़ाँ, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया तथा उन जैसे अनेक लोगों ने हिंदुस्तान को अँग्रेज़ी सल्तनत से आज़ाद करवाने के लिए लंबी-लंबी जेल यातनाएँ तथा घोर कष्ट सहे थे उनके विरोध के बावजूद हिंदुस्तान का बंटवारा होकर पाकिस्तान बन गया। डॉ लोहिया ने अपनी पुस्तक ‘भारत विभाजन के गुनहगार’ में हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटवारे की योजना के बारे में कांग्रेस कार्य समिति की उस बैठक का जिक्र किया है जिसमें बंटवारे के प्रस्ताव को स्वीकार किया गया था। उन्होंने लिखा है :
“हम दो सोशलिस्ट श्री जयप्रकाश नारायण और मुझे इस बैठक में विशेष निमंत्रण पर बुलाया गया था। हम दोनों, महात्मा गांधी और ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ाँ को छोड़कर और कोई बंटवारे की योजना के खिलाफ़ एक शब्द भी नहीं बोला।
ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ाँ महज दो वाक्य बोले। उनके सहयोगियों ने विभाजन योजना स्वीकृत कर ली। इस पर उन्होंने अफसोस ज़ाहिर किया। उन्होंने विनती की कि प्रस्तावित जनमत संग्रह में पाकिस्तान या हिंदुस्तान में सम्मिलित होने के इन दो विकल्पों के अलावा क्या यह भी जोड़ा जा सकता है कि उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत चाहे तो स्वतंत्र भी रहे, इससे अधिक किसी भी अवसर पर वे एक शब्द भी नहीं बोले; निश्चय ही उन्हें काफी सदमा लगा था।”
3 जून 1947 को दिल्ली में वाइसरॉय ने कांग्रेस, लीग और सिक्खों के नेताओं से हिंदुस्तान के विभाजन की योजना पर मुहर लगवा ली थी। इसमें यह भी फैसला हुआ था कि पंजाब, बंगाल, सिंध की विधानसभा से पूछा जाए कि वे हिंदुस्तान में जाना चाहते हैं या पाकिस्तान में, परंतु सीमा प्रांत को यह अधिकार नहीं दिया गया। उस समय सीमा प्रांत में कांग्रेसी सरकार, बादशाह ख़ाँ के बड़े भाई डॉ. ख़ान साहब – अब्दुल जब्बार ख़ान के नेतृत्व में बनी हुई थी।
सीमांत प्रांत की विधानसभा से न पूछकर सरकार ने निर्णय लिया कि वहाँ रेफरेंडम (जनमत संग्रह ) करवाया जाए।
परंतु कांग्रेस सरकार बादशाह ख़ाँ इसके विरुद्ध थे, क्योंकि इसके पीछे एक गहरी साजिश थी। कांग्रेस का कहना था कि इस जनमत संग्रह का मकसद अगर लोगों की राय जानना है तो अभी एक साल पहले ही इसी मुद्दे पर चुनाव हुए थे। जहाँ जनता ने अपना फैसला सुना दिया था। यदि कांग्रेस भी लीग की तरह विभाजन की बात को स्वीकार कर चुकी है तो बादशाह ख़ाँ के कांग्रेस वर्किंग कमेटी का सदस्य होने से उनके सूबे पर भी यह लागू होता है, इसलिए नए सिरे से जनमत संग्रह की ज़रूरत नहीं रहती।
परंतु मुस्लिम लीग का मकसद कुछ और ही था, वो चाहती थी कि ऐसा माहौल बने जिससे लगे कि खुदाई खिदमतगार मुस्लिम राज्य के खिलाफ़ है।
इसके अलावा पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत की मुस्लिम लीग को विश्वास था कि यदि जनमत संग्रह होगा तो उसमें शामिल होने के लिए खुदाई खिदमतगार तैयार नहीं होंगे और ऐसे हालात में बाकी मतों को पाकिस्तान के समर्थन में खींचा जा सकेगा। और यदि जनमत पाकिस्तान के पक्ष में आए तो उस मुद्दे को आधार बनाकर सीमाप्रांत की सरकार को हटाने के लिए आंदोलन किया जा सकेगा।

दिल्ली में 3 जून को विभाजन की योजना की मंजूरी के तुरंत बाद, बादशाह ख़ाँ ने अपने एक बयान में साफ रूप से कहा था कि, “मेरी राय में जनमत संग्रह का सवाल ही पैदा नहीं होता। मुस्लिम लीग की जीत इस्लाम की जीत एकदम नहीं है। संविधान सभा का फैसला आने तक सांस्थानिक दर्जे वाले दो हिंद रहेंगे। पठानों को एक दिन के लिए भी सांस्थानिक दर्जा नहीं चाहिए, वे तो अपना निजी संविधान बना लेंगे तथा पूर्ण स्वराज का निर्णय करने वाले हिंद के साथ जुड़ना अधिक पसंद करेंगे। पठान पूरी दुनिया के मित्र बनेंगे, वे किसी के दुश्मन नहीं बनेंगे। उनकी सलाह थी कि जब तक राजनैतिक वातावरण स्पष्ट नहीं हो जाता, सीमा प्रांत को अलग रहने देना चाहिए। गांधीजी इस बारे में बादशाह ख़ाँ से पूरी तरह सहमत थे। उनकी मान्यता थी कि पठान किसी के प्रभाव में आए बिना अपना फैसला खुद करें। 20 जून को अपनी प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा, कांग्रेस तथा लीग दोनों पठानों की भावना को मान दें और आंतरिक व्यवस्था के लिए उन्हें अपना संविधान बनाने दें, इसमें पठानों में एकता को प्रोत्साहन मिलेगा, परंतु हक़ीक़त यह थी कि मुस्लिम लीग घात लगाए बैठी थी कि चाहे जैसे भी हो एक और प्रांत उसके कब्जे में आ जाए और कांग्रेस इस लोभ में वाइसराय की योजना पर मुहर लगा चुकी थी कि झटपट देश के बड़े भाग का शासन उसके हाथ में आ जाए।
जनमत संग्रह के बारे में स्पष्ट कर दिया गया था कि आपको वोट करना है कि क्या हिंदुस्तान के साथ रहना है या पाकिस्तान के। इसके साथ यह भी प्रचार किया गया कि हिंदुस्तान में हिंदू राज होगा ऐसे हालात में कौन मुस्लिम पाकिस्तान को छोड़ना चाहता। इन हालात में बादशाह ख़ाँ चाहते थे कि फिलहाल सीमा प्रांत के लोग ना तो पाकिस्तान के साथ, और ना ही हिंदुस्तान के साथ जाएं वह एक स्वतंत्र राज्य रहे तथा पठान लोग अपने कानून और संविधान बना लेंगे। बादशाह ख़ाँ का कहना था कि जनमत संग्रह इस बात के लिए न हो कि पाकिस्तान के साथ जाना है या हिंदुस्तान के साथ बल्कि इस बात के लिए क्या पाकिस्तान या पठाननिस्तान के लिए हो।
बादशाह ख़ाँ की व्यथा को व्यक्त करते हुए 29 जून को गांधीजी ने वाइसराय माउंटबेटन को ख़त लिखा कि बादशाह ख़ान ने मुझे लिखा है कि :
“स्वाधीन पठानिस्तान के लिए अपने प्रयास में मैं नाकामयाब हुआ हूँ। इसलिए जनमत संग्रह का काम मेरे अनुयायियों के किसी प्रकार की दखलंदाजी के बिना चलेगा, वे लोग एक या दूसरे तरीके से मत नहीं देंगे। यह वे अच्छी तरह समझते हैं कि इस तरह सीमा प्रांत पाकिस्तान में ही जाएगा।”
बादशाह ख़ान विकट हालात में काम कर रहे थे, एक तरफ़ गर्वनर केरो, उसके अंग्रेज़ तथा मुस्लिम अफसर लीग के प्रयास को सफल करने के लिए, अपनी तरफ़, हर तरह का हथकंडा अपना रहे थे। सीमा प्रांत में जगह-जगह हिंसा शुरू हो गई थी, हिंदुओं और सिक्खों का कत्ल, उनके घर जलाना, उनकी माँ-बहनों पर जुल्म। पंजाबी मुसलमानों को सीमा प्रांत में आज़ाद रूप से दाखिल, गैर मुस्लिम लोगों को जनमत संग्रह में भाग न लेने की चेतावनी, यदि वे अपने मत देने का साहस करें तो उन्हें भयंकर सजा की धमकी दी जा रही थी।
12 जुलाई को बादशाह ख़ान ने गांधी जी को ख़त लिखा –
“मैं और मेरे कार्यकर्ता गाँव-गाँव घूम रहे हैं और मुस्लिम लीग के उकसावे के बावजूद लोगों को मुकम्मल रूप से अहिंसक रहने के लिए समझा रहे हैं। मुस्लिम लीग वाले हर रोज जुलूस निकालते हैं तथा बेहद आपत्तिजनक नारे लगाते हैं। वे हमें काफिर कहते हैं और गालियाँ देते हैं… मेरा भी हँसी मज़ाक उड़ाते हैं, मुस्लिम लीग वालों और जनमत संग्रह कराने का काम जिन्हें सौंपा गया है, उनके बीच एक गहरी साजिश है हम बेहद मुश्किल हालात में काम कर रहे हैं, परंतु इसके बावजूद हम विचार-वाणी और कर्म में अहिंसा को नहीं छोड़ेंगे, परंतु मैं कह नहीं सकता कि ऐसे हालात कब तक जारी रहेंगे।”
(जारी )
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मेरा खयाल इसकी जनमत संग्रह में भाग न लेने का कांग्रेस और की खुदाई खिदमतगार का निर्णय ग़लत था। जिन्होंने भाग लिया वे सब लीगी थे। उनको खुला मैदान मिल गया। अगर स्वतंत्र रहने की मांग को छोड़ कर हिंदुस्तान या पाकिस्तान का वोट स्वीकार कर लेते तो पाकिस्तान के समर्थक हार जाते।