रोजगार का हाल और सरकार की जिम्मेदारी का सवाल

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— राकेश सिन्हा —

स्सी के दशक में भारतीय राजनीति में नवउदारवाद के आने के बाद से ही यह बात बार-बार और लगातार कही जाने लगी कि उद्योग-धंधे चलाना सरकार का काम नहीं है। अंग्रेजी में इसे यूं कहा जाता था कि धंधे चलाना सरकार का धंधा नहीं है। जैसे-जैसे नवउदारवाद का प्रभाव बढ़ता गया, सरकार ने न सिर्फ उद्योगों से बल्कि अर्थव्यवस्था संचालन की अपनी जिम्मेदारी से भी हाथ खींचना शुरू कर दिया। सरकारी उपक्रमों को बेचने का सिलसिला शुरू हुआ तो साथ ही शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य व्यवस्था का भी निजीकरण और बाजारीकरण होने लगा।

पूरी व्यवस्था बाजार के हवाले कर दिये जाने से कृषि धीरे-धीरे घाटे का धंधा बनती गयी और युवा पीढ़ी में बेरोजगारी लातार बढ़ने लगी। निजी धंधे वालों का धंधा और मुनाफा बढ़ाना ही सरकार का एक धंधा बन गया तो भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी कंपनियों द्वारा मुनाफा कमाने के अनुकूल माहौल देना सरकार का दूसरा प्रमुख काम हो गया।

एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश की सरकार से आशा की जाती है कि वह देश की पूरी आबादी के आत्मनिर्भऱ विकास के लिए पूरी जिम्मेदारी से काम करेगी। इस तरह के विकास में सरकारी उपक्रमों की कोई भूमिका हो सकती है या नहीं, इसपर अलग से चर्चा हो सकती है लेकिन देश की पूरी आबादी के लिए रोजगार उपलब्ध हों और सारी आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन हो इसके अनुकूल अर्थव्यवस्था बनाने की जिम्मेदारी सरकार की है इससे तो किसी तरह इनकार नहीं किया जा सकता।

सबसे पहले तो कृषि के क्षेत्र में इस तरह के नियम और कानून बनने चाहिए जिससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी होनेवाला कृषिभूमि का बँटवारा बंद हो, सामुदायिकता और सहकारिता के आधार पर तर्कसंगत रूप से हर पंचायत की पूरी जमीन पर सघन खेती हो सके। कृषि की लागत का सारा सामान गाँवों में ही तैयार किया जा सके, छोटे औजारों के इस्तेमाल के साथ भारत की पारंपरिक खेती का आधुनिकीकरण हो सके। कृषि में काम करनेवाले लोगों को उनके श्रम का सही फल मिल सके और जमीन के मालिकों को उनका उचित हिस्सा। गाँवों में ही कृषि उत्पादों का मूल्य वर्धन हो सके और कृषि से जुड़े फल-सब्जी के उत्पादन, पशुपालन, मछली और मुर्गी पालन का काम हो सके। इस बात को अंजाम देने के लिए क्या नीति हो और किस तरह के कानून बनाये जाने चाहिए, इसपर सही तरीके से विचार-विमर्श कर ऐसे कानून बनाये और संसद से पारित कराये जाने चाहिए।

देश का औद्योगिक विकास ग्राम केंद्रित हो और नये उद्योग, खासकर कुटीर, लघु और मध्यम दर्जे के उद्योगों को ग्रामीण क्षेत्रों, कस्बों और छोटे शहरों में खोला जाए। इसके लिए उचित नीतियां और योजनाएं बनें और लागू हों। इसके लिए जरूरी प्रशिक्षण का काम स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बने और इस तरह के स्कूल ग्रामीण आबादी की पहुंच के अंदर हों। इस प्रकार की उद्योग व्यवस्था को स्थापित करने के लिए जरूरी वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराये जाने चाहिए।

एक बात यह भी देखी गयी है कि हमारे समाज के कुछ वर्गों के लोग शारीरिक श्रम वाले काम से दूर रहते हैं। समाज में श्रम की गरिमा को स्थापित करने के लिए जरूरी है कि उत्पादन से संबंधित श्रम वाले कामों के लिए मिलनेवाला पारिश्रमिक समकक्ष स्तर के कागजी काम से हमेशा अधिक हो। यह भी जरूरी है कि न्यूनतम आय, सभी परिवारों के लिए, जीविका के लिए जरूरी आय, लिविंग इनकम, से कम न हो। इसके लिए चार से पांच सदस्यों के औसत परिवार से दो सदस्यों को पूर्णकालिक रोजगार की व्यवस्था करने की जरूरत हो सकती है।

जब तक पूरी आबादी के लिए पूर्णकालिक रोजगार और उसी के अनुरूप आय और उत्पादन का ढांचा पूरी तरह तैयार नहीं हो जाता तब तक के लिए हमें मनरेगा की तर्ज पर रोजगार गारंटी योजनाओं की जरूरत होगी। इसी तरह की योजनाओं को शहरी क्षेत्रों में भी लागू किया जाना चाहिए। इसमें एक न्यूनतम आमदनी की भी गारंटी होनी चाहिए। इस प्रकार की रोजगार गारंटी योजना पूर्ण रोजगार और उचित आमदनी का स्थायी विकल्प नहीं हो सकती लेकिन पूर्ण रोजगार वाली व्यवस्था बन जाने के बाद भी इस प्रकार की योजना की एक भूमिका हो सकती है।

शिक्षण और प्रशिक्षण पूरा करके हर साल श्रम बाजार में आनेवाले युवाओं को उद्योगों और अन्य रोजगार के क्षेत्र में शामिल होने के लिए सही काम के प्रशिक्षण और अनुभव की जरूरत होगी। इस दौरान वे समाज के लिए उपयोगी काम भी कर रहे होंगे। ऐसी स्थिति में शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार गारंटी योजनाएं उन्हें काम सीखते हुए एक निश्चित आमदनी की गारंटी दे सकती हैं।

शिक्षा और स्वास्थ्य, ये दो ऐसी सेवाएं हैं जिन्हें पूरी आबादी के लिए उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है जिससे वह मुंह नहीं मोड़ सकती। ग्रामीण समाज तक सारी सेवाएं जरूरत के हिसाब से उपलब्ध हों इसे सुनिश्चित करने में सरकार की भूमिका अहम होगी। स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए स्थानीय स्वास्थ्य गारंटी संस्था बनायी जा सकती है। पूर्ण रोजगार की व्यवस्था बन जाने के बाद परिवारों के रोजगार प्राप्त सदस्यों के वेतन से हर माह परिवार के सदस्यों की संख्या के अनुपात में स्वास्थ्य सेवा शुल्क काट कर

सरकार के खाते में जमा कर दिये जाएं और उसके बदले में स्वास्थ्य संबंधी सारी सुविधाएं उपलब्ध कराना सरकारी तंत्र की जिम्मेदारी होगी।

इसी तरह स्कूली शिक्षा को हर पंचायत तक पहुंचाने की व्यवस्था करना भी सरकार की जिम्मेदारी होगी। इसके लिए परिवार के 18 वर्ष तक के बच्चों की संख्या के अनुपात में शिक्षा शुल्क भी परिवार के रोजगार प्राप्त सदस्यों के वेतन से काट कर सरकार के खाते में जमा कर दिया जाय और सबके लिए समान शिक्षा की व्यवस्था भी सरकार की जिम्मेदारी होगी।

रोजगार उपलब्ध कराने में सरकारी नौकरियों की सीमित भूमिका पर भी चर्चा कर ली जानी चाहिए। अगर केंद्र और राज्यों की सभी प्रकार और सभी स्तर की नौकरियों की गणना करें तो यह दो से ढाई करोड़ के बीच की संख्या आती है। इनमें से कई तरह की सेवाओं में तो अभी भर्तियां भी नहीं हो रही हैं। लेकिन अगर पूरी संख्या को भी ले लें और नौकरी का औसत कार्यकाल तीस वर्ष का भी ले लें तो औसतन सात से आठ लाख नौकरियों की हर साल संभावना बनती है। हर साल इससे दस गुने अधिक स्नातक शिक्षा प्राप्त करके निकलते हैं।

ऐसा देखा गया है कि बड़ी संख्या में ये युवा कई साल तक किसी भी तरह की सरकारी नौकरी प्राप्त करने के प्रयास में लगे रहते हैं। इस तरह कई करोड़ युवाओं का समूह किसी भी समय इन सरकारी नौकरियों की तलाश में रहता है और यह स्थिति कई तरह के सामाजिक तनाव का कारण बन रही है।

सबसे पहले तो हम यह समझ लें कि आम युवाओं में सरकारी नौकरी के लिए इतना गहरा आकर्षण क्यों है? इसका पहला मुख्य कारण तो यह है कि सरकारी नौकरियों में वेतन अन्य नौकरियों से अधिक है। चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को भी 18 हजार रुपये प्रतिमाह का वेतनमान मिलता है, जहां पूरा वेतन महंगाई के साथ बढ़ता ही जाता है। जबकि निजी क्षेत्र में बहुत कम लोगों को दस हजार रुपये महीने से अधिक की आमदनी होती है। सरकारी नौकरी प्राप्त व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा तुरंत बढ़ जाती है। इसके साथ ही सरकारी नौकरी के साथ एक तरह की निश्चिन्तता हो जाती है कि एक बार मिल जाने के बाद नौकरी छिनने का डर नहीं होता। जबकि निजी क्षेत्र की नौकरियों में यह डर हमेशा बना रहता है और नए श्रम कानून बनने के बाद तो और बढ़ गया है।

दूसरी बात यह है कि सरकारी नौकरी के माध्यम से हमें प्रशासन में हिस्सेदारी मिल जाती है जबकि अधिकांश लोग किसी तरह की जिम्मेदारी से भी मुक्त रहते हैं, अर्थात बिना जवाबदेही के अधिकार मिल जाते हैं। एक बार सरकारी नौकरी मिल जाने के बाद लोगों की अपने काम के प्रति निष्ठा बहुत कमजोर हो जाती है। जबकि अपने पद का फायदा उठाने में वे नहीं चूकते। जाति-बिरादरीवाद से ग्रसित भारतीय समाज में सरकारी पदों का इस्तेमाल स्वजातीय वर्ग को लाभ दिलाने में होना बिलकुल सामान्य बात है। इसलिए सभी सामाजिक वर्गों में सरकारी नौकरियों में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की होड़ बढ़ती जा रही है।

दलित और वंचित समुदायों को लंबे अरसे से प्रशासनिक हथकंडों का शिकार बनाया जाता रहा है। इस तरह के शोषण से सुरक्षा करने के लिए जरूरी था कि प्रशासन में और साथ ही सभी सार्वजनिक संस्थानों में दलित एवं वंचित वर्गों की समानुपातिक हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाए और इसी के लिए आरक्षण की व्यवस्था बनायी गयी। लेकिन जिन वर्गों का प्रशासनिक सेवाओं में वर्चस्व था उन्होंने आरक्षण को कभी ठीक से लागू नहीं होने दिया और आज तो इसे बिलकुल निष्प्रभावी बनाने की पूरी कोशिश की जा रही है। एक तरफ तो सामाजिक वर्चस्व वाले वर्ग आरक्षण के खिलाफ अभियान चलाकर इसे ठीक से लागू नहीं होने दे रहे हैं तो दूसरी ओर कई सशक्त जातियां जो कुछ समय पहले तक अपने आपको पिछड़े, दलित और वंचित तबकों के साथ गिने जाने के खिलाफ थीं आज आरक्षण में हिस्सेदारी माँग रही हैं।

(जारी)

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