— विमल कुमार —
अगर प्रेमचन्द के बारे में सोचते हुए अमृतराय का और निराला को याद करते हुए रामविलास शर्मा का नाम याद आना स्वाभाविक है तो कुछ उसी तरह रेणु का नाम आते ही अब भारत यायावर का नाम याद आना स्वाभाविक हो जाएगा। यद्यपि रामविलास शर्मा और अमृतराय से उनकी तुलना का कोई सवाल नहीं उठता लेकिन उन्होंने अपनी लगन, मेहनत तथा साहित्य सेवा व समर्पण के बूते अपने जीवन को रेणु की स्मृति में समर्पित कर दिया था, यह बात कम से कम निःसंकोच कही जा सकती है। आज हिंदी की दुनिया में बहुत कम ऐसे लेखक हैं जो किसी पुराने लेखक में इतनी गहरी रुचि रखते हैं जितना भारत रखते थे।
हिंदी के अधिकतर लेखक अपने लेखन में ही ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं और दिन-रात उसी को प्रमोट करने में लगे रहते हैं लेकिन भारत ने अपने निजी लेखन को एक तरह से त्याग कर महावीर प्रसाद द्विवेदी और रेणु के पीछे अपने जीवन का कीमती समय लगा दिया था।
भारत रांची विश्वविद्यालय में जब एमए हिंदी के छात्र थे तो उन दिनों मैं उसी परिसर में स्थित रांची कॉलेज में बीए हिंदी ऑनर्स का छात्र था। यह 1980 के आसपास की बात होगी। यह चालीस साल पुरानी बात है जिसकी अब धुँधली सी स्मृति मेरे मन में बची है। भारत से मेरी पहली मुलाकात बालेंदु शेखर तिवारी के मोराबादी स्थित घर पर ही हुई थी जो हिंदी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार थे और रांची कॉलेज में हिंदी के प्राध्यापक थे तथा ‘अभीक’ नामक एक पत्रिका निकालते थे। यद्यपि हिंदी मेरा विषय नहीं था लेकिन हिंदी साहित्य से लगाव के कारण मैं बालेंदु शेखर तिवारी से अकसर उनके घर मिलता था जहाँ पास में ही बचन देव कुमार का भी घर हुआ करता था जो उन दिनों रांची विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे और तब उनका बहुत जलवा हुआ करता था और उनके किस्से मशहूर थे। उन दिनों रांची विश्वविद्यालय में वचन देव कुमार के अलावा प्रसाद के नाटकों के प्रसिद्ध आलोचक डॉ सिद्धनाथ कुमार तथा डॉ दिनेश्वर प्रसाद जैसे अत्यंत विनम्र और विद्वान प्राध्यापक थे।
भारत यायावर इन लेखकों के संपर्क में थे लेकिन उनकी अधिक निकटता तिवारी जी से हुआ करती थी क्योंकि तिवारी जी समकालीन लेखन से जुड़े थे। उन दिनों उदय प्रकाश, श्याम कश्यप, रामकृष्ण पांडेय, शम्भू बादल, शंकर ताम्बी जैसे लेखक उभर रहे थे। रांची विश्वविद्यालय में उन दिनों तुलसी पर एक बड़ा सेमिनार हुआ था जिसमें आचार्य देवेन्द्र नाथ शर्मा, प्रसिद्ध विद्वान-आलोचक विद्यानिवास मिश्र, नामवर सिंह और संभवतः इस्रायल भी आए थे। भारत उसमें भी काफी सक्रिय थे और लेखकों से मिलने-जुलने, संपर्क बनाने में उनकी गहरी रुचि थी। वे कंधे पर एक झोला लटकाये अकसर नजर आते थे लेकिन उनसे मेरा संवाद कम था क्योंकि वह मुझसे सीनियर थे। बाद में मेरा उनसे दोस्ताना रिश्ता बन गया और उनसे संपर्क लगातार बना रहा। जब मैं दिल्ली पढ़ने आ गया तो वह जब कभी दिल्ली आते थे तो कहीं न कहीं रास्ते में जरूर टकरा जाते थे। तब अनिल जनविजय और स्वप्निल श्रीवास्तव, राजा खुगशाल से उनकी गहरी मित्रता थी और वे सब साहित्य में काफी सक्रिय थे। अनिल जनविजय ने इन तीनों कवियों पर एक-एक पुस्तिका भी निकाली थी। कुछ दिन के बाद ही भारत का पहला कविता संग्रह ‘मैं हूं यहां हूं’ प्रकाशित हुआ था और उन्होंने अपनी पत्रिका ‘विपक्ष’ का केदारनाथ सिंह तथा रेणु पर सुंदर विशेषांक भी निकाला था। भारत में बाद में साहित्य के प्रति खोजी प्रवृत्ति जागने लगी जिसके कारण उन्होंने अपने कवि को तिलांजलि देकर अपने भीतर शोधार्थी अधेयता को अधिक विकसित किया जिसका नतीजा यह हुआ कि हिंदी साहित्य को महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली और रेणु रचनावली प्राप्त हुई।
हिंदी में रचनावलियों के प्रकाशन का सिलसिला तब शुरू हो चुका था और मुक्तिबोध, निराला की रचनावलियाँ प्रकाशित हो चुकी थीं। यही नहीं, रामकुमार भ्रमर की भी रचनावली प्रकाशित हो चुकी थी जो डाकुओं से संबंधित साहित्य के प्रमुख और लोकप्रिय लेखक थे। लेकिन हिंदी का दुर्भाग्य था कि द्विवेदी जी पर रचनावली प्रकाशित नहीं हुई थी जबकि कायदे से हिंदी समाज को सबसे पहले महावीर प्रसाद रचनावली निकालनी चाहिए थी। हिंदी के किसी लेखक ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया कि द्विवेदी जी की रचनावली निकालनी चाहिए।
हिंदी समाज को भारत के प्रति ऋणी होना चाहिए कि उन्होंने हिंदी के पितामह की रचनावली संपादित की। पर हिंदी के एक आलोचक ने उसका उपहास भी किया और कमियाँ भी बतायीं। हिंदी के प्राध्यापक आलोचना अधिक करते हैं, काम कम करते हैं। पर वह रचनावली अब शोधार्थियों के लिए आधारभूत सामग्री बन गयी है। दरअसल, हिंदी साहित्य में अब समकालीन साहित्य पर अधिक जोर है और अपनी परंपरा को जानने-पहचानने, उसकी पड़ताल तथा मूल्यांकन करने के प्रति बहुत कम लोगों की रुचि है। ऐसे में भारत ने द्विवेदी जी और रेणु जी पर रचनावलियाँ निकालकर एक बड़ा उपकार जरूर किया है।
भारत यायावर ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत एक कवि के रूप में की थी और वह ठीकठाक कवि भी थे। उनके चार या पाँच संग्रह निकल चुके थे लेकिन उनकी पहचान उस तरह कवि के रूप में नहीं बनी जिस रूप में उनके अन्य समकालीन कवियों की बनी। अलबत्ता एक शोधार्थी और अध्येता के रूप में उनकी धीरे-धीरे पहचान बनने लगी और जब वह रेणुजी के साहित्य में डूबे तो डूबते ही चले गये और उन्होंने रेणु की समस्त रचनाओं को उपलब्ध कराया। आज वह सारी सामग्री शोधार्थियों के लिए एक आधारभूत सामग्री बन गयी है। बाद में उन्होंने नामवर जी पर एक जीवनीनुमा किताब भी निकाली। लेकिन उन दिनों हिंदी के मठाधीश लेखकों ने भारत यायावर को गंभीरता से नहीं लिया। इसके पीछे उनका अजीबोगरीब व्यक्तित्व भी रहा। उनमें एक कस्बाई अनौपचारिकता और बड़बोलापन भी था। इसलिए तब लोगों ने उनके उस कार्य की सराहना भी खुले मन से नहीं की क्योंकि उनका मानना था कि भारत यायावर के पास से आलोचकीय दृष्टि नहीं है और उन्होंने यह सारा काम बहुत हड़बड़ी और जल्दी में किया है।
भारत इससे विचलित हुए बिना अपना काम करते रहे और उन्होंने अपना लोहा मनवा लिया। रेणु जी पर आठ किताबें लिखीं या संपादित कीं। इतनी किताबें किसी ने एक लेखक पर नहीं लिखीं।
पिछले दिनों उनकी रेणु पर लिखी जीवनी का पहला खंड आया तो उसको लेकर भी हिंदी समाज में मिश्रित प्रतिक्रिया थी। कुछ लोग इस बात पर आपत्ति व्यक्त कर करे थे कि रेणुजी की जीवनी किसी उपयुक्त लेखक से लिखवानी चाहिए थी लेकिन कुछ लोगों का मत था कि रेणु की जीवनी वही लिख सकते थे क्योंकि उन्होंने रेणु के बारे में काफी सामग्री जुटा ली थी और अन्य लोग इतना परिश्रम नहीं कर सकते। इस बात में सच्चाई भी है। हिंदी में आलोचना करने की प्रवृत्ति अधिक है, काम करने का माद्दा बहुत कम है। रजा फाउंडेशन ने कई लेखकों को जीवनियाँ लिखने का काम सौंपा पर कई लोग आज तक लिख नहीं पाये। भारत में एक खूबी थी कि वह जो काम अपने हाथ में लेते थे पूरा कर देते थे। रेणु जी से उनकी कोई मुलाक़ात नहीं थी और लतिका जी से वह केवल एक बार मिल पाये थे। रेणु जी के समकालीनों और उनके अन्य कुछ मित्रों से मिले होते तो वे और अच्छी जीवनी लिख पाते पर जितना लिखा उसमें बहुत नयी जानकारियाँ हैं जो हिंदी समाज को अब तक नहीं पता थीं। भारत ने महावीर प्रसाद द्विवेदी जी पर उनके समकालीनों के संस्मरण की एक किताब संपादित की थी जो बहुत महत्त्वपूर्ण है। उससे द्विवेदी युग के बारे में कई दुर्लभ जानकारियाँ हैं।
भारत अपने वैचारिक विचलनों के कारण बाद में विवादों में रहे और उनके बहुतेरे आलोचक और निंदक भी पैदा हो गये। भारत अपनी सफाई में कहते रहे कि किसी पार्टी विशेष में उनकी आस्था नहीं है पर लोगों ने उनकी सफाई को नहीं माना। इस विवाद से भारत से एक दूरी बनी पर उनके कार्यों में मेरी दिलचस्पी आज भी है और यह स्वाभाविक भी है क्योंकि 1979 में मैंने उन्हें एक ऐसे युवक के रूप में देखा था जो साहित्य को लेकर काफी उत्साहित था और कंधे पर झोला लटकाये लोगों से लपक कर मिलता था। भारत के लेखकीय व्यक्तित्व का पूरा विकास मेरी नजरों के सामने हुआ। हिंदी को ऐसे शोधार्थियों और अध्येताओं की हमेशा जरूरत रहेगी। रेणु जी का जब भी जिक्र होगा आप भारत की उपेक्षा नहीं कर सकते। भारत का काम जैसा भी हो पर वह रेणु जी के लिए एक अनिवार्य व्यक्ति और लेखक जरूर बन गये हैं।
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.
























