संविधान की मंजिल और रास्ते की दुश्वारियां

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— रवींद्र गोयल —

बीते शुक्रवार 26 नवम्बर को देश में संविधान दिवस बड़े जोर-शोर से मनाया गया। 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा ने संविधान के उस प्रारूप को स्वीकार किया था, जिसे डॉ. भीमराव आंबेडकर की अध्यक्षता में मसविदा समिति (ड्राफ्टिंग कमेटी) ने तैयार किया था। इसी रूप में संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ और भारत एक गणराज्य बना। आंबेडकरवादी और बौद्ध लोगों द्वारा कई दशकों पूर्व से ‘संविधान दिवस’ मनाया जाता है लेकिन 2015 में डॉ. आंबेडकर के 125वें जयंती वर्ष के रूप में 26 नवंबर को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने इस दिवस को ‘संविधान दिवस’ के रूप में मनाने के केंद्र सरकार के फैसले को अधिसूचित किया था। तब से ही यह दिवस हर साल सरकारी तौर पर भी मनाया जाता है। 26 नवंबर को राष्ट्रीय कानून दिवस के रूप में भी जाना जाता है।

यह सही है कि कोई भी सभ्य समाज संविधान विहीन नहीं हो सकता या नहीं होना चाहिए। संविधान ही वो दस्तावेज है जो किसी भी राष्ट्र के कार्यकलापों को संगठित/संचालित करने का ढांचा प्रदान करता है। इसके अभाव में सरकारें तानाशाह हो जाती हैं और नागरिकों पर असीमित ज्यादतियों के अधिकार समेट लेती हैं। इसलिए इस दस्तावेज पर चर्चा होना स्वाभाविक है, जरूरी है। लेकिन हमें इस बारे में जरूर स्पष्ट होना चाहिए कि हम इस दिवस को किस उद्देश्य से मनाएं। इसके किन पहलुओं पर चर्चा करें।

सरकारी तंत्र या मुक्तिबोध के शब्दों में ‘रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध’ ज्ञानियों की चर्चा तो आमतौर पर इस बात पर सिमट कर रह जाती है कि किसने इसको बनाने में क्या भूमिका अदा की या अपने विरोधियों से बेकार की बहस करने में। उदहारण के लिए प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर देश को बताया कि ‘भारत एक ऐसे संकट की तरफ बढ़ रहा है, जो संविधान को समर्पित लोगों के लिए चिंता का विषय है, लोकतंत्र के प्रति आस्था रखनेवालों के लिए चिंता का विषय है और वह है पारिवारिक पार्टियां।’ बहुत से ईमानदार लोग भी चर्चा को यहीं तक केन्द्रित रखते हैं। इसके आगे नहीं बढ़ पाते।

लेकिन गंभीर लोगों को इस अवसर का इस्तेमाल अर्थपूर्ण चर्चा के लिए करना चाहिए ताकि हम समझ सकें कि कहाँ तक हमारा समाज संविधान के अनुरूप चल रहा है, ठीक से चल रहा है या नहीं, संविधान में क्या कमियां हैं और इन्हें लोकहित में कैसे सुधारा जा सकता है।

इस सम्बन्ध में मेरी समझ से (अन्य मित्रों की राय भिन्न हो सकती है) सबसे जरूरी सवाल जिस पर चर्चा होनी चाहिए वह यह है कि संविधान देश के नागरिकों को क्या अधिकार देता है और उसमें क्या घटाया या बढ़ाया जाय कि इस देश के बहुलांश नर-नारी एक मानवीय जीवन जीते हुए तथा अपनी अन्तर्निहित क्षमताओं और संभावनाओं को आगे बढ़ाते हुए समाज को आगे ले जा सकें। इस सम्बन्ध में आवश्यक है कि संविधान द्वारा स्वीकृत मौलिक अधिकारों से बात शुरू की जाए।

1949 में स्वीकृत संविधान द्वारा हर नागरिक को सात मूल अधिकार प्रदान किए गए थे- समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म, संस्कृति एवं शिक्षा की स्वतंत्रता का अधिकार, संपत्ति का अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार। लेकिन बाद में संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकार से हटा कर उसे कानूनी अधिकार बना दिया गया। 4 अगस्त 2009 से शिक्षा अधिकार कानून के तहत 6 से 14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे को शिक्षा का मौलिक अधिकार है।

यदि इस बहस को छोड़ भी दिया जाए कि आम नागरिक ऊपर दिये गये अधिकारों में से कितनों का सही अर्थों में उपभोग कर पाता है तब भी उपरोक्त को पढ़ने से पता चलता है कि हमारे संविधान में नागरिक को आवास,भोजन, चिकित्सा या रोजगार का मौलिक अधिकार नहीं है और न ही इन अधिकारों को संपत्ति के अधिकार की तरह कानूनी अधिकार का ही दर्जा प्राप्त है। यानी सरकार पर आम नागरिक को ये सुविधाएँ प्रदान करने की कोई जिम्मेवारी नहीं। ऐसे में देश की बहुसंख्यक आबादी कुपोषित, बीमार और रोजगार विहीन हो और सरकारें बेलगाम तो क्या आश्चर्य!

ऐसा नहीं है कि दुनिया के सभी देशों में मौलिक अधिकारों के मामले में भारत जैसी स्थिति ही है। क्यूबा सरकार राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली पर काम करती है और अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए पूर्ण वित्तीय और प्रशासनिक जिम्मेदारी लेती है। और इन्टरनेट पर देखने से और भी ऐसे उदहारण मिल जाएंगे जहाँ सरकारें अपने नागरिकों को भारत से ज्यादा अधिकार देती हैं। और कोई कारण नहीं कि हमारे देश में आवास,भोजन, चिकित्सा या रोजगार का अधिकार आम नागरिकों को नहीं दिया जाना चाहिए या नहीं दिया जा सकता। समय की मांग है कि जिम्मेदार दोस्त मौलिक अधिकार और उसकी अंतर्वस्तु पर चर्चा करें, आम जन को इसके बारे में जाग्रत करें, गोलबंद करें और रास्ता निकालें कि कैसे देश के हर नागरिक को आवास,भोजन,चिकित्सा और रोजगार का मौलिक अधिकार मिले। फ़ैज़ याद आ रहे हैं :

ऐ ज़ुल्म के मारो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक
कुछ हश्र तो इनसे उट्ठेगा, कुछ दूर तो नाले जाएंगे।

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