— जयराम शुक्ल —
लोकभाषा के बडे़ कवि कालिका त्रिपाठी ने कभी रिमही में एक लघुकथा सुनाई थी। कथा कुछ ऐसी थी कि..दशहरे के दिन ननद और भौजाई एक खेत में घसियारी कर रही थी। घास काटते-काटते बात चल पड़ी..
ननद बोली-भौजी ये दशहरा क्या होता है..?
भौजी ने अकबकाते हुए जवाब दिया- ये दशहरा में न.. राजा सजधज के रथ पर सवार होकर शहर में निकलता है।
शहर में क्यों निकलता है..?
ताकि लोग जाने कि वह राजा है।
अच्छा..। वह पहने क्या रहता है?
राजा तो राजा है रेशम,मखमल, सोना,चाँदी,हीरा, मोती कुछ भी पहन ले।
अच्छा.. तो भौजी ये बताओ कि राजा खाता क्या होगा..?
बेसहूर कहीं की..राजा है चाहे गुड़इ गुड़ खाए।
जो गुड़ और चने राजा के घोड़े की खुराक हैं वही गुड़ उस गरीबन के स्वाद की चरम वस्तु , उसके तृप्ति की आकांक्षा की आखिरी सीमा।
यह लघुकथा तब के जमाने में अमीरी और गरीबी के बीच का पैमाना तय करती है। इधर शादी-ब्याह की दावतों की जूठन से पेट भरते बच्चों को देखता हूँ तो समझ में आता है कि इस तरक्की-ए-वक्त में गरीबी का पैमाना तय करना और भी दुष्कर हो गया है।
हमारे अर्थशास्त्री अपने देश-काल के हिसाब से गरीबी को परिभाषित करते रहे हैं। उच्चन्यायालयों में गरीबी की परिभाषा दिलचस्प है। मैंने कुछेक साल जबलपुर हाईकोर्ट में वकालत का भी आनंद लिया। यहां भूखे गरीब मुव्वकिलों को भी देखा और हर साल बदल दी जाने वाली नई चमचमाती कारों वाले वकीलों को भी।
भाषा की गरीबी से भी वास्ता पड़ा। यहां आकर जाना कि अँग्रजी लैटिन के आगे कितनी गरीब है,भले ही चाँदी का चम्मच लेकर पैदा हुई हो। पेट भरने के लिए दोना-पत्तल तक का संघर्ष करते हुए हिन्दी की भी दशा देखी।
वकालत की भाषा में यहां गरीबी की अलग परिभाषा देखने को मिली जो अँग्रेजी में एप्लीकेशन व रिट पिटीशन की प्रेयर में लिखी जाती है। ..माई लार्ड प्रार्थी पर इसलिए कृपा करें क्योंकि यह परिवार का एक मात्र ..ब्रेड बटर अर्नर.. है।
उच्चन्यायालयों में अभी भी अँग्रेजी या यों कहें अँग्रेजों सा चलन है। जहां वे छोड़ गए थे वहीं से हम आगे बढ़े, अँग्रेजियत को और पुख्ता करते हुए। हमने जाना कि अँग्रजों का गरीब मख्खन चुपरी डबलरोटी खाता है। एक अपनी गरीबी जिसके लिए गुड़ ही स्वाद की चरम परिणति है, एक उनकी गरीबी जो ब्रेड-बटर से शुरू होती है।
इस विरोधाभास को लेकर मैंने अपने सीनियर एनएस काले जो संवैधानिक मामलों के ख्यात वकील थे का ध्यान खींचा और कहा कि ब्रेड-बटर तो अपने गरीबों पर तंज है। अँग्रेजी में ही सही ब्रेड-बटर की जगह दाल -रोटी तो लिखा ही जा सकता है। वे मुसकाते हुए बोले-गुलामी गहरे तक धँसी है क्या-क्या बदलोगे?
देश में गरीबी पर बात करना आसान नहीं है। बड़े संपादक लोग पहली नजर में ही रिजेक्ट कर देते हैं। गरीब-गुरबे बड़े मीडियाहाउसों का टारगेट ग्रुप (टीजी) नहीं है। इन पर स्टोरी छपेगी तो मर्सडीज वाले विग्यापन नहीं देंगे। हम दुनिया को मर्सडीज वाला इंडिया दिखाना चाहते हैं। जहां लकदक मॉल है, सिक्स लेन एक्सप्रेस हाइवे है। हर आदमी मस्त है, खुश है। पर ये मस्ती और खुशी कित्ते परसेंट है, अमीर देशों ने इसे भी नापने का पैमाना बना रखा है।
भारत में निजी क्षेत्रों में 90 फीसदी की मिल्कियत सिर्फ 10 प्रतिशत लोगों के पास है। इधर भुखमरी सूचकांक में हम पाकिस्तान से भी पीछे 100वें क्रम पर आ गए हैं। चार सौ करोड़ वाले बंगलाधारी (अंबानी जी का एंतीलियो) के देश में एक तिहाई लोगों के पास छत नहीं। इतने ही लोग एक बखत का खाना खाकर सो जाते हैं।
लोहिया को गोबर से खाने के लिए अन्न छानते हुए वो महिला दिख गयी थी। आँखों में पानी बचा हो तो आपको भी दिखेगा यह सब। अपने-अपने शहरों की सब्जीमंडियों की रोज शाम सैर करें। दिखेगा कि सड़ी हुई सब्जियों में से वो थोड़ा सा साबुत हिस्सा कैसे निकाला जाता है, जो झोंपड़ियों के ..डिनर..का हिस्सा बनता है। दावतों के जूठन को सहेजते हुए बच्चे भी दिख जाएंगे। आपकी तमाम राशनपानी देने की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के बावजूद।
तरक्की हो रही है पर इकतरफा। हाल ही प्राइसवाटरहाउस कूपर्स और स्विस बैंक यूबीएस की एक रिपोर्ट पढ़ने को मिली। रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका, यूरोप के मुकाबले एशिया में अरबपति तेजी से बढ़ रहे हैं।
2018 में एशिया में 637अरबपति थे जबकि अमेरिका में 563। एशिया में एक साल में 117 के मान से अरबपति बढ़े हैं। दुनिया की 87 फीसद संपत्ति 500 अरबपतियों की तिजोरियों में है। एशिया में कुल जितने अरबपति हैं उनमें से आधे चीन और भारत के हैं। इधर भुखमरी और बीमारियों से मरने की होड़ में भी एशिया अफ्रीका के साथ खड़ा।
धन और धरती तेजी से चंद मुट्ठीभर लोगों के पास जा रही है। भारत में इस प्रक्रिया ने रफ्तार पकड़ी है। वह दिन दूर नहीं जब देश के 10 अग्रणी पूँजीपतियों के पास उतनी पूँजी जमा हो जाएगी जितनी कि भारत सरकार के कोष में है। तब क्या होगा? आज भी नीतियाँ इनके हिसाब से बनती हैं। कल असली बागडोर इनके हाथ में होगी। विधान संस्थानों में इनके पपेट बैठेंगे। और तब उस गरीब की बात कौन करेगा जिसका बच्चा भात,भात चिल्लाते हुए दम तोड़ देता है।
पूँजीवाद का पुरखा अमेरिका है। यह तमगा अब ड्रैगन और लायनवाला एशिया छीनने जा रहा है। पूँजीवाद का रोड रोलर सबकुछ कुचलता, रौंदता हुआ चलता है, इच्छाएं,संवेदनाएं, आवाज़, अंदाज,समरसता, मनुष्यता।
नोट कर लीजिए इसकी जद में अटलजी का गाँधीवादी समाजवाद भी आएगा और दीनदयालजी का एकात्ममानव वाद भी। दुष्यंतजी के शेर ने इन गरीबों की नियति तो सत्तर के दशक में ही बयान कर दी थी…
न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए।