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जेपी की कारावास की कहानी – दूसरी किस्त

by Rajendra Rajan
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(26 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा हुई तो जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर तत्कालीन सरकार ने जेल में डाल दिया। विपक्षी दलों के तमाम नेता भी कैद कर लिये गए। कारावास के दौरान जेपी को कुछ लिखने की प्रेरणा हुई तो 21 जुलाई 1975 से प्रायः हर दिन वह कुछ लिखते रहे। जेल डायरी का यह सिलसिला 4 नवंबर 1975 पर आकर रुक गया, वजह थी सेहत संबंधी परेशानी। इमरजेन्सी के दिनों में कारावास के दौरान लिखी उनकी टिप्पणियां उनकी मनःस्थिति, उनके नेतृत्व में चले जन आंदोलन, लोकतंत्र को लेकर उनकी चिंता, बुनियादी बदलाव के बारे में उनके चिंतन की दिशा और संपूर्ण क्रांति की अवधारणा आदि के बारे में सार-रूप में बहुत कुछ कहती हैं और ये ‘कारावास की कहानी’ नाम से पुस्तक-रूप में सर्वसेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी से प्रकाशित हैं। आज जब लोकतंत्र को लेकर चिंता दिनोंदिन गहराती जा रही है, तो यह जानना और भी जरूरी हो जाता है कि जेपी उन भयावह दिनों में क्या महसूस करते थे और भविष्य के बारे में क्या सोचते थे। लिहाजा कारावास की कहानी के कुछ अंश हम किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। यहां पेश है दूसरी किस्त।)

18 अगस्त

मुझे आज के समाचारपत्रों में यह पढ़कर राहत मिली कि बांग्लादेश ने अब भी अपना राजकीय नाम ‘पीपुल्स रिपब्लिक’ (जनवादी गणतंत्र) ही रखा है, उसे इस्लामिक रिपब्लिक (इस्लामी गणतंत्र) में परिवर्तित नहीं कर दिया है। फिलहाल धर्मनिरपेक्षता वहाँ निरापद है, ऐसा लगता है। अहमद के मंत्रिमंडल में दो हिन्दू मंत्री हैं जैसा कि मुजीब के मंत्रिमंडल में भी थे। मुझे इस बात की खुशी है कि राष्ट्रीयता अभी तक वहाँ बच रही है। बांग्लादेश किसी अन्य देश का पिछलग्गू नहीं बनेगा। पाकिस्तान के साथ उसका किसी प्रकार का संवैधानिक सम्बन्ध-  महासंघ, संघ या किसी अन्य रूप में- कायम होने की सम्भावना भी नहीं है। जहाँ तक मैंने अहमद को समझा है वे चाहेंगे कि भारत उनका मित्र बना रहे। परन्तु किसी देश की अधीनता या उसके साथ ऐसा कोई सम्बन्ध वे नहीं स्वीकारेंगे जो गैरबराबरी पर आधारित हो।

मुजीब ने अपने राज्य की आधारशिला जिन चार सिद्धान्तों पर रखी थी, उनमें से लोकतंत्र और समाजवाद उसके नाम के साथ जुड़े रह जायेंगे, इसमें मुझे संदेह है। लोकतंत्र को खुद मुजीब ने ही नष्ट किया। इसलिए अब प्रश्न उसके जीवित रहने का नहीं, उसको पुनर्जीवित करने का है। बांग्लादेश में समाजवाद कांग्रेसी भारत की तरह ही एक नारा मात्र है, और कुछ नहीं।

जैसा कि कल मैंने अनुमान किया था, रूस या रूस के समाचारपत्रों ने बांग्लादेश की घटना पर मौन या निरपेक्ष रुख अपनाया है। परन्तु यूरोप के कम्युनिस्ट समाचारपत्रों ने मेरे अनुमान के अनुसार ही अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। ‘ह्यूमैनाइट्’ ने सबसे खुली आलोचना की है और उसने कहा है कि सीआईए का हाथ इस घटना के पीछे है। पूर्वी योरोप के देश इस प्रश्न पर विभाजित हैं। उनमें से कुछ देशों का खयाल है कि यह अमरीका की मदद से सम्पन्न किया गया दक्षिणपंथी सत्ता-पलट है; कुछ देश इसे चीन की सहायता से की गयी उग्रपंथी कार्रवाई मानते हैं। यूगोस्लाविया को केवल इस बात का अफसोस है कि मुजीब द्वारा प्रतिपादित गुट-निरपेक्षता की नीति का लोप हो गया।

मुझे यहाँ ‘ट्रिब्यून’ पढ़ने को मिलता है। इसमें, पश्चिमी समाचारपत्र क्या कह रहे हैं, इसके बारे में बहुत नहीं निकला है। परन्तु ऐसा लगता है कि उन समाचारपत्रों को या तो कुछ पता नहीं है या वे तय नहीं कर पा रहे हैं कि इस घटना के सम्बन्ध में क्या कहें। इस्लामी गणतंत्रवाली अफवाह अमरीकी प्रेस एजेन्सी ने फैलायी है। पता नहीं, अमरीकी लोग क्यों हमेशा इस ढंग की शरारत पर उतर आते हैं। मैंने भारतीय समाचारपत्रों की टिप्पणियाँ अभी तक नहीं देखी हैं। अन्य समाचारों की तरह ये टिप्पणियाँ भी सेंसर की कैंची से गुजरेंगी। मतलब यह है कि सीआईए की ओर उँगली उठानेवाली टिप्पणियाँ तो प्रकाशित की जायेंगी; परन्तु अगर संतुलित दृष्टि से कुछ कहा गया, तो वह शायद नहीं छपेगा। सीआईए और केजीबी दोनों शक्तिशाली हैं और दुनिया के हर देश में सक्रिय हैं। लगता है, भारत में केजीबी पहले से ज्यादा सक्रिय है। बहुत संभव है कि बांग्लादेश में सीआईए ने केजीबी को मात कर दिया।

मेरी अपनी राय में बांग्लादेश की यह एक घरेलू घटना है। परन्तु यह समझना कठिन है कि क्यों सशस्त्र सेना के लोगों ने मुजीब के विरुध्द बगावत करने के लिए इतना पाशविक ढंग अपनाया। यह भी समझना कठिन है कि यह सारी घटना इतनी आसानी से कैसे हो गयी। बांग्लादेश में कोई बहुत रक्तपात हुआ हो या सशस्त्र सेनाओं में मतभेद पैदा हुए हों, ऐसा तो नहीं लगता।

मैं सोचता हूँ कि इन पृष्ठों में जनान्दोलन के विषय में हर दिन, या जब इच्छा हो, अपने कुछ विचार उल्लिखित करूँ। कुल मिलाकर वे आन्दोलन की मेरी सम्पूर्ण दृष्टि प्रस्तुत करेंगे। इन टिप्पणियों को फिर से व्यवस्थित और सम्पादित करने की आवश्यकता हो सकती है।

मुझे स्मरण है कि विनोबाजी की वह बात जो उन्होंने अपना मौन कुछ क्षणों के लिए भंग कर मुझे कही थी। (यह 14 मार्च 1975 को हुआ था) उन्होंने मुझसे कहा था कि ‘आपकी संघर्ष की कल्पना से मैं सहमत हूँ और इसमें आपकी सहायता भी कर सकता हूँ; परन्तु शासन के विरुध्द संघर्ष का विचार आपको छोड़ देना चाहिए।’ शासन के विरुध्द संघर्ष किये जाने पर उन्हें आपत्ति इस कारण थी कि पाकिस्तान का रुख, अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को फिर से शस्त्रों की आपूर्ति (उसपर से रोक का उठ जाना) तथा चीन द्वारा अपने रास्ते से हटकर पाकिस्तान के प्रति मैत्री-प्रदर्शन आदि बातों से उन्हें लगता था कि युध्द का खतरा है। इसलिए शासन के विरुध्द संघर्ष छेड़ने से देश कमजोर होगा, ऐसा उनका खयाल था। विनोबाजी को यह आशंका कभी नहीं हुई कि इस संघर्ष की परिणति भारतीय लोकतंत्र की समाप्ति में होगी।

यह विषय न टिप्पणियों के लिए एक अच्छा प्रारम्भिक विषय हो सकता है।

हमारा संघर्ष या आंदोलन सम्पूर्ण क्रांति के लिए अर्थात् सामाजिक जीवन एवं संगठन के प्रत्येक क्षेत्र में क्रांति लाने के लिए था। यह क्रांति शान्तिपूर्ण होती, इसलिए वह आकस्मिक रूप से तथा तेजी से होनेवाली नहीं थी। इस क्रांति में समय लगेगा। परन्तु चूँकि यह युग ही क्रांतिकारी है, इसलिए इसमें बहुत समय भी नहीं लगेगा- शायद एक या दो दशक लग जायें। इस सिलसिले में बुनियादी व्यवस्थागत परिवर्तन पहले होंगे और व्यक्तिगत एवं समूहगत अनुवर्त्तन, अधिकतर मनोवैज्ञानिक स्तर पर, बाद में होंगे।

इससे यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि राजनीतिक व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन सम्पूर्ण क्रान्ति का और इसलिए इस संघर्ष का अभिन्न एवं अनिवार्य अंग होगा।

शायद विनोबाजी मानते थे और अब भी मानते हैं कि राजनीतिक ढाँचे में व्यवस्थागत परिवर्तन लाने के लिए संघर्ष का होना- शान्तिपूर्ण संघर्ष का होना भी- जरूरी नहीं है। परन्तु अपने एक साल के ग्रामस्वराज्य-कार्य के अनुभव से मुझे विश्वास हो गया है कि ग्रामस्वराज्य अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक संगठन हो सकता है, बशर्ते कि उसका अमली रूप प्रकट हो, न कि केवल कागज पर रह जाय। परन्तु भी तक तो ग्रामस्वराज्य आन्दोलन कोई व्यवस्थागत राजनीतिक क्रान्ति लाने में असमर्थ रहा है।

कोई सैध्दानतिक कारण नहीं है कि यह आंदोलन ऐसी क्रांति लाने में समर्थ न हो। न जाने कितनी सभाओं में, सैकड़ों या हजारों सभाओं में मैंने यह समझाया है कि किस प्रकार ग्राम- स्वराज्य के आधार नयी राज्य-व्यवस्था खड़ी होगी और वर्तमान व्यवस्था की जगह लेगी। मुझे पता नहीं है कि मेरे सर्वोदय के सहयोगियों में से- जिनमें वे लोग भी शामिल हैं जो अब मेरे कठोर आलोचक बन गये हैं- किसी ने कभी यह बताया हो कि नयी राज्य-व्यवस्था संबंधी जो विचार मैंने प्रस्तुत किया है, उसमें कोई दोष है। उस राज्य-व्यवस्था का नमूना खड़ा करने के लिए जिले का क्षेत्र लिया गया था और बाद में सामुदायिक विकास प्रखंड का क्षेत्र (जैसे बिहार के सहरसा जिले में) लिया गया था। परंतु कहीं भी सफलता नहीं मिली।

अगर संपूर्ण क्रांति के काम को हम संकीर्ण सिद्धांतवादी (यद्यपि ऐसा कभी माना नहीं गया) सर्वोदयी दृष्टिकोण से भी देखें तो यह प्रकट होगा कि बिहार में ग्राम-जन-संघर्ष समितियां ग्राम स्वराज्य का ही काम कर रही थीं और उनमें से अनेक सक्रिय थीं, केवल कागज पर नहीं थीं। संघर्ष ज्यों-ज्यों गहरा होता जाता ये समितियां अधिकाधिक सक्रिय बनतीं और (ग्राम स्तर पर) वास्तविक जनता सरकारें बन जातीं। ग्राम स्वराज्य आंदोलन भूदान से शुरू होकर और ग्रामदान से गुजरकर (इन कार्यक्रमों का उद्देश्य ग्राम स्वराज्य के लिए एक बुनियाद तैयार करना था) वर्तमान विफलता की स्थिति में आज पहुंचा है, और यहां पहुंचने में उसको बीस साल से भी अधिक लगे।

दूसरी ओर हमने देखा कि ग्राम-जन-संघर्ष समितियां कुछ ही महीनों में प्राणवंत हो गयी थीं और इतने थोड़े समय में ही अनेक स्थानों पर वे ग्राम स्वराज्य से कहीं अधिक वास्तविक रूप से काम करने लगी थीं। मैं मानता हूं कि इसका कारण था संघर्ष के वातावरण का होना। मुझे लगता है कि इस वातावरण में ऐसी मनोवैज्ञानिक शक्तियों की सृष्टि होती है, जो लोगों को आकृष्ट करती हैं और उन्हें चुनौतियां स्वीकार करने तथा अपने आपको और दूसरों को बदलने की शक्तिशाली प्रेरणा प्रदान करती हैं।

ग्राम स्वराज्य का आंदोलन जिस गतिहीन वातावरण में चला, उसमें वे मनोवैज्ञानिक शक्तियां सुषुप्तावस्था में रह गयीं। आध्यात्मिक एवं नैतिक निवेदनों तथा विनोबाजी के पावन प्रभाव के फलस्वरूप कुछ व्यक्तियों में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए। भूदान आंदोलन के दौरान जब सैकड़ों-हजारों भूमिपतियों ने अपनी जमीन दान में दी तो यह कहा जा सकता है कि उस समय वास्तव में एक व्यापक नैतिक शक्ति का निर्माण हुआ था और वह कुछ ही लोगों तक सीमित नहीं थी। शायद ऐसा हुआ भी। परंतु वह स्थिति क्षण-स्थायी थी, क्योंकि बाद में अनगिनत दाताओं ने दान में दी हुई अपनी जमीन वापस ले ली या लेने की कोशिश की।

शीघ्र ही वह नैतिक शक्ति बिखर गयी, यद्यपि विनोबाजी अब भी कार्य-क्षेत्र में मौजूद थे, और जब ग्रामदान आंदोलन आया तो उस शक्ति का अल्पांश ही शेष रह गया था। भूमि और संपत्ति विषयक कुछ विचार अवशिष्ट रहे, परंतु सर्वमान्य रूप में नहीं। अगर वे सर्वसाधारण द्वारा मान्य हुए होते तो वे विचार समाज-परिवर्तन के लिए एक बड़ी शक्ति बन सकते थे।

ऊपर जो कुछ लिखा गया है, उससे यह निष्कर्ष निकालना अनुचित होगा कि संघर्ष का वातावरण चुटकी बजाकर पैदा किया जा सकता है। संघर्ष की स्थितियां तभी परिपक्व होती हैं, जब जनता- जिसमें युवक और छात्र तथा बुद्धिवादी वर्ग शामिल हैं- और इसका बहुत महत्त्व भी है- आमतौर से असंतोष, निराशा, मोह-भंग का शिकार हो चुकी हो, और सत्ता से (सरकार की सत्ता से लेकर कॉलेज की सत्ता तथा स्थानिक सत्ता तक) उसका दुराव हो गया हो।

संघर्ष या तो हिंसक रूप लेगा या वह शांतिमय रूप धारण करेगा। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि क्रांतिकारी परिवर्तनों के लिए शांतिपूर्ण संघर्ष ही, अन्य देशों की अपेक्षा गांधी के भारत को, अधिक स्वीकार्य हो सकता है, और वह क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं की दृष्टि में काल्पनिक प्रतीत नहीं होगा। दोनों स्थितियों में क्रांतिकारी परिस्थिति के गर्भ से एक क्रांतिकारी आंदोलन पैदा करने के लिए नेतृत्व एवं संगठन की आवश्यकता होगी। नेतृत्व एवं संगठन के अभाव में, क्रांतिकारी परिस्थिति का अंत अराजकता या तानाशाही की स्थापना में हो जा सकता है।

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