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हमारे लिए आपदा उनके लिए अवसर

by Rajendra Rajan
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— रामस्वरूप मंत्री —

स्पताल और श्मशान में फर्क मिट गया है। दिल्ली और लखनऊ का फर्क मिट गया है। अमदाबाद और मुंबई का फर्क मिट गया है। पटना और भोपाल का फर्क मिट गया है।

अस्पतालों के सारे बिस्तर कोविड के मरीजों के लिए रिजर्व कर दिए गए हैं। कोविड के सारे गंभीर मरीजों को अस्पताल में बिस्तर नहीं मिल रहा है। कोविड के अलावा दूसरी गंभीर बीमारियों के मरीजों को कोई इलाज नहीं मिल पा रहा है। कीमो के मरीजों को भी लौटना पड़ा है। अस्पताल के बाहर एंबुलेंस की कतारें हैं। भर्ती होने के लिए मरीज घंटों एंबुलेंस में इंतजार कर रहे हैं। दम तोड़ दे रहे हैं।

जिन्हें आईसीयू की जरूरत है उन्हें जनरल वार्ड भी नहीं मिल पा रहा है। जिन्हें जनरल वार्ड की जरूरत है उन्हें लौटा दिया जा रहा है। शवों को श्मशान ले जाने के लिए गाड़ियां नहीं मिल रही हैं। सूरत से खबर है कि विद्युत शवदाह गृह में इतने शव जले कि उसकी चिमनी पिघल गई। लोहे का प्लेटफार्म गल गया। कई और शहरों से खबर है कि श्मशान में लकड़ियां कम पड़ जा रही हैं। अखबारों में जगह-जगह से खबरें हैं। संवाददाता श्मशान पहुंचकर वहां आनेवाले शवों की गिनती कर रहे हैं क्योंकि सरकार के आंकड़ों और श्मशान के आंकड़ों में अंतर है। सूरत के अलावा भोपाल और लखनऊ से भी इसी तरह की खबरें आ रही हैं। अंतिम संस्कार के लिए टोकन बँट रहा है।

एबुंलेंस आने में वक्त लग रहा है। एंबुलेंस के आने में कई घंटे लग रहे हैं। लखनऊ के इतिहासकार और पद्मश्री योगेश प्रवीण के परिजन एंबुलेंस का इंतजार करते रह गए। कानूनमंत्री ब्रजेश पाठक ने चिकित्सा अधिकारी को फोन किया। तब भी एंबुलेंस का इंतजाम नहीं हो सका। ब्रजेश पाठक ने पत्र लिखा है कि हम लोगों का इलाज नहीं करा पा रहे हैं। यही हाल सैंपल लेने का है।कोविड के मरीज के फोन करने के दो-दो दिन तक सैम्पल लेने कोई नहीं आ रहा है। सैम्पल लेने के बाद रिपोर्ट आने में देरी हो रही है।

सरकार के पास एक साल का वक्त था। अपनी कमजोरियों को दूर करने का। उसे पता था कि कोविड की लहर फिर लौटेगी लेकिन उसे प्रोपेगैंडा में मजा आता है। दुनिया में नाम कमाने की बीमारी हो गई है। दुनिया हँस रही है। चार महीने के भीतर हम डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों को भूल गए। उन्हें न तो समय से तनख्वाह मिली और न प्रोत्साहन राशि। जिन्हें कोविड योद्धा कहा गया वो बेचारा सिस्टम का मारा-मारा फिरने लगा। न तो कहीं डॉक्टरों की बहाली हुई और न नर्स की।

जो दिखाने के लिए पिछले साल कोविड सेंटर बने थे सब देखते-देखते गायब हो गए। आपको याद होगा। साधारण बिस्तरों को लगाकर अस्पताल बताया जाता था। आप मान लेते थे कि अस्पताल बन गया है। उन बिस्तरों में न आक्सीजन की पाइपलाइन है न किसी और चीज की। मगर फोटो खींची गई। नेताजी ने राउंड मार लिया और जनता को बता दिया गया कि अस्पताल बन गया है। क्या आप जानते हैं पिछले साल जुलाई में दिल्ली में सरदार पटेल कोविड सेंटर बना था। दस हजार बिस्तरों वाला। एक तो वह अस्पताल नहीं था। क्वारंटीन सेंटर जैसी जगह अस्पताल की तरह पेश किया गया। अस्पताल होता तो वहां डॉक्टर होते। एंबुलेंस होती। वो सब कहां है?

जगह-जगह से फोन आ रहे हैं। अस्पताल में भर्ती मरीज को ये दवा चाहिए वो दवा चाहिए। इस बात का कोई प्रचार नहीं है कि संक्रमण के लक्षण आने के पहले दिन से लेकर पाँचवे दिन तक क्या करना है। किस तरह खुद पर निगरानी रखनी है। कौन सी दवा लेनी है जिससे हालात न बिगड़े। इतना तो डॉक्टर समझ ही गए होंगे कि संक्रमण के लक्षण आने के कितने दिन बाद मरीज की हालत तेजी से बिगड़ती है। उससे ठीक पहले क्या किया जाना चाहिए। क्या आपने ऐसा कोई प्रचार देखा है जिससे लोग सतर्क हो जाएं। स्थिति को बिगड़ने से रोका जाए और अस्पतालों पर बोझ न बढ़े।

हमने एक मुल्क के तौर पर अच्छा-खासा वक्त गँवा दिया है। स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत नहीं किया। जनवरी, फरवरी और मार्च के महीने में टीकाकरण शुरू हो सकता था लेकिन तरह-तरह के अभियानों के नाम पर इसे लटका कर रखा गया और निर्यात का इस्तेमाल अपनी छवि चमकाने में किया जाने लगा। और जब दूसरी कंपनियों के टीका के लिए अनुमति मांगी जा रही थी तब ध्यान नहीं दिया गया। जब हालात बिगड़ गए तो आपात स्थिति में अनुमति दी गई। अगर पहले दी गई होती तो आज टीके को लेकर दूसरे हालात होते।

आप खुद भी देख रहे हैं। हर सवाल का जवाब धर्म में खोजा जा रहा है। सवाल जैसे बड़ा होता है धर्म का मसला आ जाता है। धर्म के मुद्दे को प्राथमिकता मिलती है। स्वास्थ्य के मुद्दे को नहीं। आप यही चाहते थे? धर्म की झूठी प्रतिष्ठा धारण करना चाहते थे? अधर्मी नेताओं को धर्म का नायक बनाना चाहते थे? उन्होंने आपको आपकी हालत पर छोड़ दिया है। गुजरात हाई कोर्ट ने कहा है राज्य में हालात भगवान भरोसे है। अस्पतालों का हाल भगवान भरोसे है। जिसे भगवान बनाते रहे वे चुनाव भरोसे हैं। उसका एक ही पैमाना है। चुनाव जीतो।

आम जनता लाचार है। उसे समझ नहीं आ रहा है कि उसके साथ क्या हो रहा है। वो बस अपनों को लेकर अस्पताल जा रही है, लाश लेकर श्मशान जा रही है। जनता ने जनता होने का धर्म छोड़ दिया है। सरकार ने सरकार होने का धर्म छोड़ दिया है। मूर्ति बन जाती है। स्टेडियम बन जाता है। अस्पताल नहीं बनता है। आदमी अस्पताल के बाहर मर जाता है।

इस बात का कोई मतलब नहीं है कि गृहमंत्री चुनाव प्रचार में हैं। मास्क तक नहीं लगाते। इस बात का कोई मतलब नहीं है कि प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार में हैं। मास्क लगाते हैं। एक ही बात का मतलब है कि क्या आप वाकई मानते हैं कि मरीजों की जान बचाने का इंतजाम ठीक से किया गया है? मेरे पास एक जवाब है। आप गोदी मीडिया देखते रहिए। अपने सत्यानाश का ध्वजारोहण देखते रहिए।

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