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दिविक रमेश की चार कविताएं

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टूटता है एकांत   कई दिनों से महज टहनियाँ बनी जी रही थी गिलोय की बेल। फूटीं पत्तियाँ ताजगी भरी तो लगा कि नहीं जगती उम्मीद भर, जगती है द्वंदों में जकड़ी...

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