मानसिक गुलामी क्यों नहीं जाती

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          – अरमान अंसारी –

न 1920 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना एक मुसलिम विश्वविद्यालय के रूप में हुई थी। अपनी परंपरा में यह विश्वविद्यालय राष्ट्रवादी है, जो अलीगढ़ स्कूल के बरअक्स बनाया गया था। उसी जामिया मिल्लिया इस्लामिया का एक अध्यादेश (ऑर्डिनेन्स) है कि भाषाओं को छोड़कर  स्नातकोत्तर स्तर  का  कोई भी प्रश्न केवल अंग्रेजी भाषा में बनेगा। छात्रों को इस बात की आजादी है कि वे चाहें तो केवल अंग्रेजी में बने प्रश्न का हिंदी में भी जवाब दे सकते हैं। विश्वविद्यालय को उनका लिखा हुआ हिंदी जवाब स्वीकार होगा। जिस अंग्रेजी भाषा में पूछे गए प्रश्न को छात्र समझ ही नहीं सकेगा, पता नहीं उसका जवाब विद्यार्थी हिंदी में या अन्य भारतीय भाषाओं में कैसे देगा।

जामिया में ही एक घटना 2012 में हुई थी जब एक लड़के ने महात्मा गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय वर्धा से  स्त्री अध्ययन विषय में, हिंदी माध्यम से एमफिल की पढ़ाई करके पीएचडी में, जामिया में दाखिला लिया था। उसे विश्वविद्यालय ने पुनः अंग्रेजी माध्यम से कोर्स वर्क पास करने के लिए बाध्य किया जबकि वह वर्धा से अपने एमफिल के दरम्यान कोर्स वर्क करके आया था। वह आग्रह करता रहा कि मैं हिंदी माध्यम से ही कोर्स वर्क की परीक्षा दूँगा। विश्वविद्यालय ने उसकी एक न सुनी। वह अंग्रेजी माध्यम से लिये गए कोर्स वर्क की परीक्षा में फेल हो गया। नतीजतन अंततोगत्वा उसे विश्वविद्यालय ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। आज वह कहाँ होगा, क्या कर रहा होगा, मुझे नहीं पता। लेकिन मैं इतना कह सकता हूँ कि अंग्रेजी माध्यम की मूर्खतापूर्ण बाध्यता ने उसके सामने जो दीवार खड़ी कर दी वह उसे शायद ही आजीवन भूल पाएगा।

एक तीसरी घटना दुबई की है। इन पंक्तियों के लेखक के गांव के एक व्यक्ति असलम की। असलम मात्र सातवीं पास कर दुबई चले गए। वह करीब डेढ़ दशक से दुबई की एक कॉन्स्ट्रक्शन कंपनी में काम करते हैं। वह दुनिया के कई देशों के अभियंताओं के साथ काम कर चुके हैं। उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक को बताया कि सबसे काहिल अभियंता भारतीय होते हैं। सबसे अच्छे और कार्य-कुशल अभियंता चीन और जापान के होते हैं। कारण पूछने पर बताया कि भारतीय अभियंता सारी ऊर्जा भाषा को समझने में लगा देते हैं, क्योंकि उनकी अभियंता की पढ़ाई अंग्रेजी भाषा में हुई होती है। वहीं चीन और जापान के अभियंता क्रमशः अपनी-अपनी भाषाओं, चीनी और जापानी में अभियंता की पढ़ाई किये होते हैं। इसलिए वे पेशागत काम को सहजता से समझ भी जाते हैं और कर भी लेते हैं।

यह आकलन मात्र सातवीं पास व्यक्ति का है। जब असलम जैसा कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति इस बात को आसानी से समझ जाता है कि विदेशी भाषा से आदमी ज़ेहनी तौर पर कमजोर व कुंठित हो जाता है, उसकी रचनात्मकता खत्म हो जाती है, वह कोई मौलिक काम नहीं कर सकता, तो आखिर हमारे विश्वविद्यालय इस छोटी-सी बात को क्यों नहीं समझ पाते हैं। आजादी के 72 वर्षों के बाद भी अंग्रेजी भाषा को लेकर यह स्थिति बनी हुई है तो यह सोचने का विषय है। आखिर हमारे विश्वविद्यालय ज्ञान का निर्माण भारतीय भाषाओं में क्यों नहीं करते। जब यूरोपीय देशों के विश्वविद्यालय ज्ञान का निर्माण अपनी भाषाओं में कर सकते हैं तो हमारे विश्वविद्यालय क्यों नहीं कर सकते? गुलामी की भाषा को हम कब तक ढोते रहेंगे?

भारत के विश्वविद्यालयों में ज्यादातर बच्चे अंग्रेजी माध्यम में अहसज हैं। वे हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करना चाहते हैं, जबकि हमारे स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय मात्र अंग्रेजी माध्यम के आग्रही हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि हमारे शिक्षण संस्थान कब तक ज्ञान की दुनिया को अंग्रेजी में कैद करके रखेंगे। इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि अंग्रेजी माध्यम के शिक्षण संस्थान भाषाई कैदखाने हो गए हैं, जो हमारे समाज और हमारे विद्यार्थियों की स्वाभाविक प्रतिभा को उभर कर आगे आने से रोक रहे हैं। यदि हमने इस स्थिति को यूं ही आगे बढ़ने दिया तो बच्चों में सृजनात्मकता की जगह मूढ़ता व कुंठा बढ़ेगी।

महात्मा गांधी ने मातृभाषा व क्षेत्रीय भाषाओं में सभी तरह की शिक्षा की बात की है। उनका कहना है कि हमें अंग्रेजी का मोह छोड़कर, अपनी भाषाओं में विभिन्न ज्ञान-विज्ञान के पारिभाषिक शब्द गढ़ने चाहिए ताकि ज्ञान का निर्माण हमारी अपनी भाषाओं में हो सके। उदाहरणस्वरूप गांधी जी कहते हैं- जिस प्रकार जापान और चीन ने ज्ञान का निर्माण, अपनी भाषा में किया है हमें भी ऐसा करना चाहिए। चिकित्सा विज्ञान सहित विभिन्न विज्ञानों तथा ज्ञान के अन्य शास्त्रों की पूर्ण शिक्षा हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में नहीं दी जा सकती है, ऐसी कोई भाषा वैज्ञानिक तर्क नहीं है।

जिस अंग्रेजी के प्रति हम इतने मोहित हैं यदि हम उस अंग्रेजी भाषा के विकास के इतिहास को देखें तो 16वीं -17वीं शताब्दी तक अंग्रेजी ज्ञान की भाषा नहीं थी। उसे भी अपने उचित स्थान के लिए संघर्ष करना पड़ा। मुख्यतः अंग्रेजी भाषा में ज्ञान का निर्माण नहीं के बराबर हुआ है। फ्रांसिस बेकन, न्यूटन आदि ने न्याय, दर्शन, गणित, विज्ञान आदि का निर्माण  लैटिन भाषा में किया है। जब अंग्रेजी भाषा संघर्ष कर ज्ञान की भाषा बन सकती है तो हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में ज्ञान का निर्माण क्यों नहीं हो सकता है?

हमें यह समझना होगा कि रोजी-रोटी दूसरी भाषा के जरिए मिल सकती है लेकिन समझ तो अपनी भाषा में बनती है। आज भाषाई गुलामी के कारण, हमारी बुद्धि कोई मौलिक चिन्तन नहीं कर पा रही है। उदाहरण के लिए आजादी के बाद कोई मौलिक चिंतन करनेवाला वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री हमारा देश नहीं दे पा रहा है तो निश्चित रूप से इसका कारण अपनी भाषा में शिक्षा का न होना है।

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