श्रमिक नेता दत्ता इसवल्कर सच्चे समाजवादी थे

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टेक्सटाइल मिल वर्करों के लोकप्रिय नेता दत्ता इसवल्कर का बीते बुधवार को मुंबई में देहांत हो गया। कभी खुद मिल वर्कर रहे इसवल्कर की उम्र 72 साल थी और पिछले कुछ सालों से बीमार चल रहे थे। महाराष्ट्र के मिल वर्करों के अधिकारों के लिए किया उनका काम एक ऐसी बुनियाद बन चुका है जिस पर आज भी मिल वर्कर अपना संघर्ष जारी रखे हुए हैं। द हिंदू में लायला बावडम ने लिखा है कि एक सामान्य मज़दूर की पृष्ठभूमि से आने वाले इसवल्कर मज़दूरों को बड़े पैमाने पर संगठित करने और उनकी अगुवाई करने के मामले एक नज़ीर रहे हैं।

इसवल्कर उस समय मुंबई के एक कॉटन मिल – मॉडर्न मिल्स- में पियोन के रूप में काम करना शुरू किया जब इस शहर को आर्थिक नगरी बनाने में इन मिलों का बहुत बड़ा योगदान हुआ करता था। उस समय मिल वर्करों ने अपने संघर्षों के बूते बहुत सारे अधिकार हासिल किए हुए थे, मसलन उनके रहने के लिए हाउसिंग सोसाइटी थी, उनके बच्चों के पढ़ने और फिर उसी मिल में नौकरी पाने की गारंटी भी थी। जब ये मिलें बंद होनी शुरू हुईं तो उनके पीछे हज़ारों हेक्टेयर की बेशकीमती ज़मीनों पर अवैध कब्ज़े की शुरूआत हुई और वर्करों का बकाया, उनकी सामाजिक सुरक्षा को नज़रअंदाज़ किया जाने लगा।

यहां से एक अलग लड़ाई शुरू हुई और उसकी अगुवाई दत्ता इसवल्कर ने की। ये ज़मीनें मुंबई के बीचो बीच प्राइम लोकेशन में थीं। एक समय मिलों की जान रहे वर्कर अचानक मिल मालिकों की आंख की किरकिरी हो गए। मिल मालिक जल्द से जल्द ज़मीन बेच कर पैसा बनाना चाहते थे, जबकि वर्करों ने हर्जाने की मांग की।

इसी मांग और मज़दूर असंतोष के बीच दत्ता इसवल्कर ने मज़दूरों को संगठित करना शुरू किया। उन्होंने 1989 में गांधी जयंती के मौके पर गिरनी कामगार संघर्ष समिति का गठन किया और अंत तक इसके अध्यक्ष रहे। उनके संघर्षों का ही परिणाम था कि 1988 से 1990 के बीच मुंबई की बंद पड़ी 10 टेक्स्टाइल मिलें शुरू हो पाईं। 1999 में दत्ता इसवल्कर को इस बात का एहसास हुआ कि आखिरकार रियल इस्टेट किसी तरह बाज़ी मार ले जाएगा। धीरे धीरे मॉल, लक्ज़री घर और ऑफ़िस काम्प्लेक्स इन ज़मीनों पर खड़े होने लगे। उस समय पहली बार इसवल्कर ने मिल वर्करों के बच्चों को इसमें नौकरी दिए जाने की मांग उठाई।

उन्होंने ये भी अपील की कि अगर मिल की ज़मीन बिकती है तो उसमें मिल वर्करों को भी उनका हिस्सा मिलना चाहिए जिनकी वजह से मिलों ने एक समय में भारी मुनाफा कमाया था। इस संबंध में सरकार के सामने अपील दायर की गई और इसवल्कर की दृढ़ इच्चा शक्ति से 15000 पूर्व मिल वर्करों को घर मिल पाया। दत्ता सामंत की तरह इसवल्कर भी एक ट्रेड यूनियन नेता थे लेकिन उनसे उलट काफी शांत स्वभाव और संवाद में यकीन रखने वाले थे, वो याहे गुंडे हों या मिल मालिक। जबकि दत्ता सावंत बल प्रयोग पर भरोसा रखने वाले ट्रेड यूनियन नेता थे। जयश्री वालेंकर ने लिखा है कि एक ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट और रणनीतिकार कैसा हो ये दत्ता इसवल्कर से बेहतर कोई नहीं जान सकता।

1980 के दशक की ऐतिहासिक टेक्स्टाइल मिल हड़ताल और उसमें मज़दूरों की हार के बाद इसवल्कर ही वो यूनियन लीडर थे, जिन्होंने वर्करों की रिहाईश के मुद्दे को ज़िंदा रखा। सोते, जागते, सांस लेते हुए उन्होंने टेक्स्टाइल वर्करों के कल्याण के लिए ही अपना पूरा जीवन लगा दिया। एक बार वो भूखहड़ताल पर बैठे तो लोगों ने इनके गिरते स्वास्थ्य को लेकर चिंता ज़ाहिर की, तब उनका कहना था, चिंता मत करो, अगर मैं मरता हूं तो कम से कम उस मुद्दे को ही लाभ मिलेगा जिसके लिए हम लड़ रहे हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि वो समाजवादी धारा के व्यक्ति थे और सभी पार्टियों में उनके प्रति समान इज्ज़त थी, बावजूद वो किसी पार्टी से जुड़े नहीं थे। ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट चंदन कुमनार कहते हैं कि वो जार्ज फर्नांडिस के साथ भी थे लेकिन जब वो बीजेपी में चले गए तो दत्ता इसवल्कर ने उनका साथ छोड़ दिया। कड़ी मेहनत, ज़मीनी काम के साथ साथ इसवल्कर प्रतिभा के धनी भी थे। हर किस्म के आंकड़े उनकी ज़ुबान पर होते थे। बीते 25 सालों से उन्होंने कई संघर्षों की अगुवाई की। उनके करीबी बताते हैं कि इस दौरान कभी भी उन्हें गुस्सा होते या नियंत्रण खोते नहीं देखा गया।

पॉपुलर कल्चर में आम तौर पर वर्करों की बहुत उटपटांग सोचने वाले या आक्रामक, बात बात पर अपशब्द इस्तेमाल करने वाले माचो मैन की छवि बनाई जाती है। लेकिन दत्ता इसवल्कर इससे बिल्कुल उलट थे, बिल्कुल धीर गंभीर, शांत स्वभाव के थे। असल में वर्करों की आक्रामकता को हिंसक और बर्दाश्त न करने वाले व्यवहार के रूप में देखा जाता है। लेकिन दत्ता इसवल्कर ऐसे नहीं थे। वो वर्करों की आक्रामकता के कारणों की बहुत संवेदनशीलता से पड़ताल करते थे। 2014 में दिल्ली में ग्लोबल सिम्पोसियम ऑफ़ मेन इंगेज के एक सेमिनार में उन्होंने वर्करों के इस व्यवहार की जितनी सुंदर व्याख्या की, श्रोता हैरान रह गए।

असल में अपनी ज़िंदगी के लंबे संघर्ष और सामाजवादी उसूल ही वो चीज़ थी, जो उन्हें सबसे प्यारी थी। सभी राजनीतिक दलों ने उनकी मृत्यु पर शोक व्यक्त किया है। मिल वर्करों में मातम है, अपने एक रहनुमा के जाने का।

( workersunity.com से साभार  )

 

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