— आनंद कुमार —
जाति-व्यवस्था से विद्रोह और सामाजिक समता की तलाश ने भारत के दलित विमर्श को परिभाषित किया है और इसके प्रेरणा-स्रोत के रूप में महात्मा जोतिबा फुले (1827-1890), पेरियार रामासामी नायकर (1879-1973) और बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर (1891-1956) की त्रिमूर्ति के चिंतन और कर्म का बुनियादी योगदान है। इनके अतिरिक्त केरल के श्रीनारायण गुरु, उत्तर प्रदेश के स्वामी अछूतानंद, पंजाब के मंगूराम आदि की भी उल्लेखनीय भूमिका रही है। इस विमर्श के अंतर्गत जाति-विरोध आधारित कई धाराएं निकलती रही हैं। दक्षिण भारत का ब्राह्मण-विरोधी आंदोलन और पश्चिम भारत में गैर-ब्राम्हण राजनीतिक मोर्चों का उत्थान-पतन इसकी दो उल्लेखनीय प्रवृत्तियां रहीं। इसके दक्षिण भारतीय अंग में ‘उत्तर-विरोध’ और ‘हिंदी-विरोध’ का भी पुट मिल जाता था। अस्पृश्यता के विरुद्ध पीड़ितों के प्रतिरोध में धर्मांतरण की भी एक धारा विद्यमान थी। ब्रिटिश राज के वर्षों में दलित जातियों में ईसाई मिशनरियों ने धर्मांतरण को प्रोत्साहित किया। स्वाधीनता के बाद के दिनों में डॉ. आंबेडकर के आह्वान पर 1956 में दलित जातियों का हिंदू धर्म छोड़कर बौध्द धर्म अपनाना सबसे चर्चित घटना रही है।
एक अन्य प्रवृत्ति के रूप में हिन्दू-धर्म सुधार और अस्पृश्यता-उन्मूलन आंदोलन ने भी दलित-विमर्श में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस प्रवृत्ति को ब्रह्म समाज (1828), प्रार्थना समाज (1867), आर्य समाज (1875), रामकृष्ण मिशन (1897) से लेकर स्वामी श्रद्धानंद (1856–1926) की दलित उद्धार सभा और महात्मा गांधी (1869-1948) के हरिजन सेवक संघ से बल मिला। गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र, केरल, कर्नाटक, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, ओड़िशा समेत कई अन्य प्रदेशों में कांग्रेस और गांधी की पहल पर चले इन कार्यक्रमों का उल्लेखनीय असर था। बाबू जगजीवन राम (1908-1986) और उनके द्वारा स्थापित अखिल भारतीय रविदास महासभा (1934) और भारतीय दलित वर्ग संघ इसके प्रमुख उदाहरण रहे हैं। भारत के समाजवादी आन्दोलन ने 1934 और 1967 के बीच दलित-विमर्श की इन चारों प्रवृत्तियों से अलग दृष्टि और कार्यक्रम विकसित किया। इसमें ‘जाति’ की हिन्दू समेत सभी धर्मों में प्रबलता को चिह्नित करते हुए ‘जाति-निर्मूलन’ के चतुर्मुखी अभियान- धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक- की अनिवार्यता पर बल दिया गया। सिर्फ हिन्दू दलित जातियों को ‘ब्राह्मणवाद’ या ‘हिन्दू-विरोध’ के आधार पर आंदोलित करने की जगह समाज में (क) जातिभेद, (ख) वर्गभेद और (ग) लिंगभेद से पीड़ित सभी वंचितों की एकता और राजनीतिक नेतृत्व, शिक्षा और रोजगार में ‘विशेष अवसर’ की व्यवस्था के लिए विविध उपाय अपनाए गए।
+++
यह उल्लेखनीय है कि अनेक समाजवैज्ञानिक अध्येताओं ने दलित-विमर्श के उद्भव और विकास को भारत में संपन्न लोकतांत्रिक क्रांति का जुड़वां पक्ष माना है। इसी के समांतर भारतीय समाज के लोकतंत्रीकरण में समाजवादी आन्दोलन की भी महत्त्वपूर्ण हिस्सेदारी रही है। इसकी व्यवस्थित शुरुआत 1934 में राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़े स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा की गयी थी। इनमें आचार्य नरेन्द्रदेव, डॉ. संपूर्णानंद, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, अशोक मेहता, यूसुफ मेहर अली, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, मीनू मसानी आदि उल्लेखनीय थे। विदेशी गुलामी से मुक्ति और राजनीतिक तथा आर्थिक समता के साथ ही सामाजिक समता की आधारशिला पर नए भारत का निर्माण समाजवादियों का प्रधान उद्देश्य था। इस प्रकार दलित विमर्श और समाजवादी आन्दोलन में लक्ष्यों के स्तर पर बुनियादी एकता थी और दलित विमर्श के सैद्धांतिक और सामाजिक आधार को मजबूत बनाने में समाजवादी चिंतकों की उल्लेखनीय हिस्सेदारी रहती आई है।
समाजवादियों के राष्ट्रनिर्माण कार्यक्रम में दलितों, विशेषकर अस्पृश्यों के साथ होनेवाले अन्यायों का उन्मूलन अनिवार्य अंग था। यह प्रक्रिया आजादी के बाद के दशकों में भी जारी रही। समाजवादियों ने सामाजिक विषमता के प्रसंग में अस्पृश्यता निवारण के साथ ही स्त्रियों, आदिवासियों, अन्य पिछड़े वर्गों, और अल्पसंख्यकों के पिछड़े समुदायों के सरोकारों को सम्मिलित करने का प्रयास किया था। इसे स्वाधीनोत्तर राजनीति के दौरान अस्पृश्यता-निर्मूलन के सत्याग्रहों और ‘पिछड़ों के लिए विशेष अवसर का सिद्धांत’ के रूप में महत्त्वपूर्ण स्वरूप दिया गया। आदिवासियों के बीच हुए कार्यक्रमों में स्वतंत्रता सेनानी मामा बालेश्वर दयाल और चटगाँव विद्रोह के लिए कालापानी की सजा भुगत चुके दिनेश दासगुप्ता प्रमुख सूत्रधार थे। गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश की गतिविधियों का केंद्र बामनिया (झाबुआ, म.प्र.) का भील आश्रम रहा और बंगाल, बिहार, झारखंड, ओड़िशा और उत्तर प्रदेश में अभियानों का संयोजन निखिल भारत बनवासी पंचायत के जरिये किया जाता था।
लेकिन भारत से ब्रिटिश शासन को समाप्त करने और महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति दलित मार्गदर्शकों और समाजवादियों में दृष्टिकोण की भिन्नता के कारण राजनीतिक स्तर पर सहयोग की सीमाएं भी थीं। क्योंकि दलित विमर्श के तीनों प्रमुख नायकों- महात्मा फुले, नायकर और डॉ. आंबेडकर की भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन से विशेष निकटता नहीं थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से दूरी और ब्रिटिश राज से प्राय: सहयोग रहा। कांग्रेस और गांधी का दलितों के बीच अपना प्रभाव भी था। इस प्रकार दलित विमर्श के कम से कम दो पक्ष सक्रिय थे और दोनों में परस्पर दूरियां थीं। दूसरी तरफ समाजवादियों की अपनी स्थापना के साथ ही राष्ट्रीय आन्दोलन में पूरी हिस्सेदारी थी। महात्मा गांधी और दलित संगठनों, विशेषकर डॉ. आंबेडकर से लगातार सकारात्मक संवाद और सहयोग था। इस अनूठेपन के कारण समाजवादी आन्दोलन का दलित प्रश्नों से अलग तरह का सरोकार रहा।
यह उल्लेखनीय है कि दलितों की समस्याओं के बारे में समाजवादियों को शुरू से सजग बनाने में महात्मा गांधी का मौलिक योगदान था। समाजवादियों के शुरुआती दस्तावेजों में अस्पृश्यता के प्रश्न की अनुपस्थिति को सर्वप्रथम गांधी ने रेखांकित करके इसे प्राथमिक मुद्दों में जोड़ने का सुझाव दिया। गांधीजी ने 1934 में ही आलोचना करते हुए इसके समाधान के ठोस कार्यक्रम सामने लाने पर बल दिया था। 1947 में ब्रिटिश राज समाप्त होने के बाद यह सैद्धांतिक निकटता मंदिर-प्रवेश, भूमि के पुनर्वितरण, तथा ‘जाति-तोड़ो’ के आन्दोलनों और विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में परस्पर राजनीतिक सहयोग के रूप में विकसित हुई।
समाजवादियों की दृष्टि का विकास
भारतीय समाजवादी आन्दोलन का सैद्धांतिक आधार विश्व-समाजवादी दर्शन रहा है जिसमें आरंभिक दौर में मार्क्सवादी दृष्टिकोण की केन्द्रीयता थी। इस नाते समाज-विश्लेषण में वर्ग से जुड़े प्रश्नों और समाधानों की प्रधानता थी। लेकिन मार्क्सवादी धारा में उत्पन्न विविधताओं, दलित प्रश्नों की बढ़ती प्रबलता और गांधी मार्ग से गहराते संबंधों के सम्मिलित प्रभाव के कारण भारत के समाजवादियों ने स्वाधीनोत्तर काल में जाति व्यवस्था के बारे में एक देशज सिद्धांत अपनाया जिससे दलित विमर्श से निकटता बढ़ती गई। इस दृष्टि-विकास में प्रथम चरण में आचार्य नरेन्द्रदेव और डॉ. संपूर्णानंद और स्वाधीनता के बाद डॉ. लोहिया ने मौलिक योगदान किया है।
समाजवादी मंच के स्थापना काल में दलितों की दशा
समाजवादियों द्वारा राष्ट्रीय आन्दोलन के अंतर्गत एक केन्द्रीय संगठन के निर्माण की प्रक्रिया में बीसवीं सदी के तीसरे दशक के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों का बुनियादी योगदान था। इसलिए यह जानना उपयोगी होगा कि इस दौर में भारत में दलित स्त्री-पुरुषों की क्या स्थिति थी? उनके प्रति राजनीतिक समुदाय में कैसी सक्रियताएं थीं? 1931 की जनगणना के अनुसार, भारत में, देशी रियासतों समेत, कुल 35 करोड़ 5 लाख 20 हजार 557 स्त्री-पुरुष थे। इनमें 23 करोड़ 91 लाख से अधिक हिन्दू धर्म के अनुयायी थे और 5 करोड़ से अधिक दलित (‘बहिष्कृत’) जातियों के लोग थे। यह हिन्दू जनसंख्या का 21 प्रतिशत था। कुल साक्षरता पूरी जनसंख्या में 23.9 प्रतिशत थी लेकिन दलितों में मात्र 1.9 प्रतिशत पायी गयी। दलित साक्षरता की दृष्टि से भी प्रदेशों के बीच बहुत अंतर था- पंजाब 0.4 प्रतिशत, संयुक्त प्रांत 0.5 प्रतिशत, बिहार और ओड़िशा 0.6 प्रतिशत, हैदराबाद 0.6 प्रतिशत, मैसूर 1.4 प्रतिशत, मद्रास 1.5 प्रतिशत, बम्बई 2.3 प्रतिशत, बंगाल 5 प्रतिशत, बडोदा 10.3 प्रतिशत, त्रावनकोर 14.9 प्रतिशत।
दलित समुदाय की साक्षरता की प्रांतीय तस्वीर में उल्लेखनीय अंतर के अलावा विभिन्न जातियों की संख्या और प्रादेशिक उपस्थिति का दलित विमर्श की अंदरूनी विविधता से महत्त्वपूर्ण संबंध रहा है। वस्तुत: 1921 से 1931 की अवधि दलित समुदायों समेत सम्पूर्ण भारतीय समाज के लिए एक गतिशील दशक था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद के आर्थिक परिवर्तन, राजनीतिक सुधारों और जन-जागरण ने 1921 से देश में एक नया परिवेश बना दिया था। इसका एक नतीजा साक्षरता और शिक्षा के विस्तार के रूप में सामने आया था।
ब्रिटिश राज में दलित विमर्श और राजनीति का अंतर्संबंध
भारत में ब्रिटिश शासन ने प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद राजनीतिक-सामाजिक स्तर पर 1919 से कुछ नई पहल की थी जिसे ‘मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार’ (डायार्की सिस्टम) के नाम से जाना गया। इन सुधारों ने भारत के आभिजात्य वर्ग में एक नए प्रकार की प्रतिद्वंद्विता का दौर शुरू किया था क्योंकि विधान मंडल में सामुदायिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था में विस्तार हुआ था। इसमें उच्च शिक्षा, संपत्ति, और सामुदायिक आधार की कसौटी पर सीमित मतदाता समूह द्वारा प्रतिनिधियों के चुनाव के लिए ‘मतदाता मंडल’ के विस्तार की शुरुआत की गई। एक दशक पहले, 1909 से लागू मोरले-मिन्टो सुधारों के जरिये भारतीयों को तीन आधारों पर सीमित प्रतिनिधित्व प्राप्त था – विभिन्न वर्ग, प्रजातियाँ और हित-समूह। इन तीन मापदंडों के जरिये आठ प्रकार के प्रतिनिधि बनते थे : 1. जमींदार, 2. मुसलिम समुदाय, 3. भारतीय व्यापारी समाज, 4. यूरोपीय व्यापारी समुदाय, 5. अवकाशप्राप्त अधिकारीगण, 6. कार्यरत अधिकारीगण, 7. विश्वविद्यालय, और 8. स्थानीय स्व-शासन इकाइयां। तत्कालीन सरकार में तीन प्रकार के सदस्य थे– सरकारी अधिकारी, अति-सीमित आधार पर बने निर्वाचक मंडल द्वारा चुने हुए व्यक्ति, और नामांकित सदस्य। प्राय: नामांकन प्रक्रिया ही दलित प्रतिनिधित्व के लिए एकमात्र तरीका था। लेकिन इस व्यवस्था के प्रति व्यापक असंतोष था। राज्यसत्ता संचालन में भारतीयों की भागीदारी बढ़ाने के लिए एनी बेसेंट और लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में ‘होमरूल’ आन्दोलन का प्रथम विश्वयुद्ध के वर्षों में व्यापक प्रभाव पड़ा। इसके परिणामस्वरूप भारतीय राजनीतिक समुदाय के अंतर्गत एक तरफ कांग्रेस में 1907 से चले आ रहे ‘नरमपंथ’ और ‘गरमपंथ’ में एकता आई और कांग्रेस का मुस्लिम लीग से एक राष्ट्रीय मांगपत्र के आधार पर समझौता हुआ।
दूसरी तरफ, विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप ब्रिटिश साम्राज्य के कमजोर होते आधार ने नई आशाएं पैदा कीं। इसके प्रति-उत्तर में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के जरिये ब्रिटिश राज ने बिना ‘स्वशासन’ की मांग को स्वीकारे हिस्सेदारीको बढ़ानेवाले सुधार लागू किये। इन औपनिवेशिक सुधारों ने राजनीति में नए मोड़ पैदा किये। 1919 के रौलट कानून और जालियांवाला नर-संहार (13 अप्रैल, 1919) के बाद ब्रिटिश भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन में देशव्यापी प्रतिरोध का नया अध्याय शुरू हुआ। रौलट सत्याग्रह (1919), खिलाफत आन्दोलन (मार्च, 1919-जनवरी, 1921), प्रिंस ऑफ़ वेल्स की भारत यात्रा का बहिष्कार (अप्रैल, 1921) और असहयोग आन्दोलन (दिसम्बर, 1921–फरवरी, 1922) – यह सब कुछ एक के बाद एक कुल तीन बरस की अवधि में हजारों लोगों की हिस्सेदारी से आयोजित किये गए थे। सभाएं, प्रदर्शन, हड़तालें, पुलिस-दमन, सत्याग्रह और गिरफ्तारियां राजनीतिक जीवन का हिस्सा बन गयीं।
1923 में मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के आधार पर हुए नए चुनावों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समूचा संगठन, जो एक दशक लम्बी फूट के बाद 1916 में एकताबद्ध हुआ था, फिर से सात साल के अंदर ही ‘असहयोगवादी’ (नो-चेंजर) और ‘सहयोगवादी’ (प्रो-चेंजर) खेमों में बँट गया। गांधी के नेतृत्व में आस्था रखनेवालों ने 1923 में ‘गांधी सेवा संघ’ की स्थापना करते हुए गांधी की शिक्षाओं के आधार पर देशसेवा के जरिये (क) साम्प्रदायिक एकता, (ख) कताई और हथकरघे का प्रचार, व (ग) अस्पृशयता का उन्मूलन के लिए काम जारी रखने का निर्णय लिया। इस संगठन ने पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की एक श्रृंखला बनाकर 1940 तक निरंतर कार्य किया। 1934 में गांधी द्वारा स्थापित हरिजन सेवक संघ के लिए इन्हीं कार्यकर्ताओं द्वारा संचालित रचनात्मक केन्द्रों ने आधारशिला का काम किया।
प्रतिनिधित्व के विस्तार के लिए लागू नए सुधारों का लाभ उठाते हुए चुनाव में हिस्सा लेने के समर्थकों ने चितरंजन दास, मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय आदि के नेतृत्व में स्वराज पार्टी का गठन किया। स्वराज पार्टी ने 1923 के चुनावों में प्रभावशाली तरीके से हिस्सा लिया। इनको सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव काउंसिल में 145 में से 38 सीटों पर विजय मिली। प्रेसिडेंसी काउंसिल के चुनावों में बम्बई में 111 में 32 और बंगाल में 139 में 49 सीटों पर जीत हुई। मद्रास प्रेसिडेंसी में ब्राह्मण-विरोधी जस्टिस पार्टी के हाथों में पुन: सत्ता आई। चुने हुए सदस्यों में स्वराज पार्टी के 11 सदस्य चुने गए। जाति-धर्म दृष्टिकोण से 61 गैर-ब्राह्मण सदस्य, 13 ब्राह्मण और 13 मुस्लिम सदस्य थे। नई विधानसभा में 9 दलित सदस्य भी नामांकित हुए थे।
यह दशक दलित विमर्श की खास शख्सियत डॉ. आंबेडकर के लिए भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। इसी दौरान 1920 में कोल्हापुर नरेश शाहूजी महाराज की अध्यक्षता और डॉ. आंबेडकर की सक्रिय हिस्सेदारी के जरिये प्रथम अखिल भारतीय दलित वर्ग सम्मेलन हुआ। इसके पूर्व डॉ आंबेडकर ने मताधिकार के बारे में गठित साउथबरो कमिटी को 1919 में एक ज्ञापन देकर दलितों के लिए अलग निर्वाचक-मंडल की मांग रखी तथा 1920 से ‘मूकनायक’ साप्ताहिक का मराठी में प्रकाशन आरंभ किया। फिर 1920-23 के बीच उन्होंने लन्दन जाकर अर्थशास्त्र और कानून की उच्च शिक्षा पूरी की। (डॉ. आंबेडकर इससे पहले 1913 और 1916 के बीच अमरीका के कोलंबिया विश्वविद्यालय से एम.ए. और पीएच.डी. तथा 1917 में ब्रिटेन के लंदन स्कूल ऑफ़ इकनामिक्स और ग्रे’ज इनमें शिक्षा प्राप्त कर चुके थे।) उन्होंने वापस आकर 1924 में बहिष्कृत हितकारिणी सभा गठित की। 1927 में उन्हें बम्बई लेजिस्लेतिव काउंसिल के लिए मनोनीत किया गया और यह सदस्यता 1932 में पांच बरस के लिए जारी रखी गई। उन्होंने 1927 में ही महाड सत्याग्रह का नेतृत्व और ‘मनुस्मृति’ का दहन किया था। समाज समता संघ और समता सैनिक दल भी गठित किए गए।
साइमन कमीशन के सामने बयान (1928), गवर्नमेंट लॉ कॉलेज में प्राध्यापक पद पर नियुक्ति (1928), दलित शिक्षा समिति का गठन (1928), जनता साप्ताहिक का प्रकाशन (1930), नासिक में कालाराम मंदिर सत्याग्रह (1930), नागपुर में अखिल भारतीय दलित कांग्रेस की अध्यक्षता (1930), प्रथम गोलमेज सम्मेलन में हिस्सेदारी (1930), द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के लिए मनोनयन (1931), पूना समझौता और तीसरे गोलमेज सम्मेलन में हिस्सेदारी (1932), येओला सम्मेलन में बुद्ध धर्म अपनाने की घोषणा (1935), ‘जाति-विनाश’ भाषण का प्रकाशन (1936) और फेबियन समाजवादी विचारों के आधार पर इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का गठन (1936) इस दौर की महत्त्वपूर्ण घटनाएं थीं। 1938 में ‘खोटी प्रथा’ के विरुद्ध अभूतपूर्व किसान प्रदर्शन, बम्बई म्युनिसिपल वर्कर्स यूनियन का गठन और औद्योगिक विवाद विधेयक के खिलाफ मजदूरों की हड़ताल भी ऐतिहासिक आयोजन थे। इन सभी प्रसंगों का डॉ. आंबेडकर द्वारा किए गए दलित-विमर्श के निरूपण में स्थायी महत्त्व था। जाति, धर्म और वर्ग के बारे में कांग्रेस, कम्युनिस्ट, कांग्रेस सोशलिस्ट और परिगणित जातियों की नीतियों और कार्यक्रमों के बारे में अनेक खट्टे-मीठे अनुभव हुए।
( लेख का बाकी हिस्सा कल )