धर्म और धर्मनिरपेक्षता : भारत की चुनौती

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Randhir K Gautam

— रणधीर कुमार गौतम —

जिस प्रकार हाल ही में संविधान की प्रस्तावना (Preamble) से ‘पंथनिरपेक्ष’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने की वकालत कुछ संघ विचारधारा से जुड़े लोग कर रहे हैं, उस पर सोचते हुए सबसे पहले हमें यह समझना चाहिए कि सेकुलरिज्म शब्द का मूल अर्थ या अनुवाद है “लौकीकीकरण।” अर्थात् राज्य लौकिक मामलों में किसी भी धर्म के साथ पक्षपात नहीं करेगा।

जिस तरह से पश्चिमी अवधारणाओं (Western conceptions) को भारतीय समाज पर जबरन लादा जाता है, उसके भी अपने राजनीतिक दुष्परिणाम होते हैं। यह जो सेकुलरिज्म की अवधारणा है, इसका मूल उद्गम फ्रांस और जर्मनी से हुआ। जैसा कि हम सब जानते हैं, राज्य की आधुनिक अवधारणा से पहले जर्मनी और फ्रांस में सत्ता चर्च के अधीन केंद्रीकृत रहती थी। और उस चर्च का नियंत्रण रोम से होता था, जिसके कारण समस्त आर्थिक लाभ रोम को प्राप्त होते थे।

यह स्थिति जर्मन हितों के अनुकूल नहीं थी। अतः बिस्मार्क ने इसका समाधान खोजने के लिए राज्य और धर्म के बीच दूरी स्थापित की। जर्मनी के एकीकरण के प्रयासों के साथ-साथ बिस्मार्क ने राज्य की शक्ति का विस्तार किया, जिसके परिणामस्वरूप कालांतर में धर्म की सत्ता कमजोर पड़ गई। इसी प्रक्रिया को Kulturkampf (जिसका अर्थ है “संस्कृति संघर्ष”) कहा जाता है, जो लौकिक (secular) और धार्मिक सत्ता के बीच अथवा भिन्न सांस्कृतिक मूल्यों वाले समूहों के बीच संघर्ष को दर्शाता है।
इसी प्रकार फ्रांस की क्रांति के बाद नेपोलियन और पोप (चर्च) के बीच भी इसी तरह का संघर्ष देखने को मिला।

फ्रांस की क्रांति के पश्चात इस मूल्य को वैश्विक राजनीति में भी महत्व मिला, और जहाँ-जहाँ भी सेकुलर राज्य की संकल्पना विकसित हुई, वहाँ इसे अपनाया गया। इसका सार यही है कि राज्य का अधिकार केवल लौकिक मामलों तक सीमित होगा, अलौकिक मामलों में नहीं। यहाँ तक कि जब भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) का प्रावधान किया गया, तब उसमें स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom) और धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Religious Freedom) दोनों ही शामिल किए गए। इसीलिए डॉ. भीमराव अंबेडकर समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को संविधान की प्रस्तावना (Preamble) में विशेष रूप से जोड़ने के पक्ष में नहीं थे। उनका कहना था कि भारतीय संविधान में इन मूल्यों को पहले से ही मौलिक अधिकारों एवं अन्य प्रावधानों के माध्यम से सुनिश्चित किया गया है।

हालाँकि समाजवाद शब्द को लेकर कुछ आशंकाएँ भी थीं क्योंकि उस समय विश्व में समाजवाद के राजनीतिक प्रयोग, विशेषकर रूस आदि में, व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कुछ हद तक प्रतिबंधात्मक माने जाते थे। फिर भी 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से इंदिरा गांधी ने इस उद्देश्य से प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े। जबकि सोशलिस्ट पार्टी पहले से ही समाजवाद शब्द को प्रस्तावना में रखना चाहती थी। यहाँ तक कि वाजपेयी सरकार ने भी अपनी आर्थिक नीति को गांधीयन समाजवाद के अंतर्गत रखा।

रोचक तथ्य यह है कि भारतीय जनता पार्टी के संविधान में भी ‘सेकुलर’ शब्द का उल्लेख है। कई विद्वानों का मानना है कि ‘सेकुलरिज्म’ का उचित हिंदी अनुवाद ‘धर्मनिरपेक्षता’ के बजाय ‘पंथनिरपेक्षता’ होना चाहिए। हाँ, जहाँ तक धर्म के औचित्य को निष्क्रिय करने का प्रश्न है, उस रूप में हमें सेकुलरिज्म को नहीं देखना चाहिए। भारतीय समाज के संदर्भ में यह राज्य और धर्म के बीच पृथक्करण (separation) नहीं है। राज्य को किसी विशेष धर्म से प्रभावित नहीं होना चाहिए, बल्कि राज्य का दायित्व है कि वह सभी धर्मों को समान रूप से सम्मान दे।

उदाहरण के लिए, हर भारतीय नागरिक के पासपोर्ट पर केवल भारतीय गणराज्य लिखा होता है, भारतीय समाजवादी पंथनिरपेक्ष गणराज्य नहीं। भारत के आम लोगों को प्रायः इस बात की जानकारी नहीं होती कि पंथनिरपेक्ष या धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग समाज के लिए नहीं, बल्कि राज्य के लिए किया गया है। इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि समाज में धर्म नहीं होगा, बल्कि इसका तात्पर्य यह है कि राज्य का कोई विशेष धर्म नहीं होगा और वह सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखेगा। यही सेकुलरिज्म का मूल अर्थ है। यहाँ तक कि राज्य और समाज के बीच की दूरी को आज भी बहुत से भारतीय ठीक से नहीं समझ पाते। हमारे जीवन की अनेक परंपराएँ, रीति-रिवाज आदि राज्य द्वारा नहीं, बल्कि समाज द्वारा नियंत्रित होते हैं।

यदि इंग्लैंड का उदाहरण लें, तो वहाँ राज्य और समाज के बीच इस द्वैत (dichotomy) को समाप्त करने के लिए राजा को ही धर्म और राज्य दोनों का सर्वोच्च बना दिया गया। Anglican Church की अवधारणा को इसी रूप में समझा जा सकता है।

सेकुलरिज्म शब्द का सही अर्थ धर्म-समभाव की प्रेरणा है। यहाँ यह बात रेखांकित की जानी चाहिए कि यह भावना संविधान में राज्य के लिए निर्देशित की गई है, व्यक्ति के लिए नहीं। व्यक्ति के लिए हर धर्म एक समान नहीं भी हो सकता। इसी विमर्श को समझने की आवश्यकता है। जैसे, राज्य के नीति निदेशक तत्वों (Directive Principles of State Policy) में गौ-हत्या पर प्रतिबंध लगाने की बात कही गई है, बावजूद इसके भारत के कई राज्यों में गो-हत्या को अनुमति प्राप्त है। इसीलिए ‘सेकुलर’ शब्द का वास्तविक अनुप्रयोग (real implication) एक जटिल और विवादग्रस्त प्रक्रिया हो सकता है।

यहाँ तक कि जब मौलिक अधिकारों में निहित धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Religion) और स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom) आपस में टकराते हैं, तो अधिकतर मामलों में राज्य स्वतंत्रता के अधिकार को प्राथमिकता देता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि राज्य के लिए नागरिक की स्वतंत्रता सर्वोपरि होती है। यह भी रेखांकित करने योग्य बात है कि स्वतंत्रता के भी कई रूप होते हैं – व्यक्तिगत, सामूहिक और धार्मिक। जैसे मोरारजी देसाई की सरकार में शराबबंदी लागू की गई थी।

यहाँ यह बात भी महत्वपूर्ण है कि हर प्रकार के सुधार का दायित्व केवल राज्य पर नहीं डाल देना चाहिए। राज्य को चाहिए कि वह सामाजिक शक्तियों को भी प्रोत्साहित करे। कई बार देखा गया है कि सामाजिक आंदोलनों और सामाजिक पहलों के चलते अनेक सुधार बिना किसी संवैधानिक प्रावधान के ही संभव हो जाते हैं।

उदाहरण के लिए, हिंदू समाज में पहले बहुपति या बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी, जिसे हिंदू विवाह अधिनियम, 1954 के तहत समाप्त किया गया। हालाँकि, इस प्रयास को हिंदू समाज में हुए सामाजिक सुधार आंदोलनों (social reform movements) के परिणामस्वरूप भी देखा जाना चाहिए। इसके बावजूद आज भी कई ऐसे समूह हैं जहाँ बहुपत्नी प्रथा प्रचलित है, जैसे कुछ धार्मिक संप्रदायों और आदिवासी समुदायों में। इसीलिए समान नागरिक संहिता (UCC) का मुद्दा भी अब तक उलझा हुआ है।

यहाँ तक कि जब धार्मिक मामलों में मौलिक अधिकारों का हनन होता है, तब भी राज्य को चाहिए कि वह मानवाधिकारों (human rights) और मौलिक अधिकारों (fundamental rights) की रक्षा को प्राथमिकता दे। शाहबानो के प्रकरण को ध्यान में रखते हुए राजीव गांधी सरकार की आलोचनाओं को भी इसी संदर्भ में समझने की आवश्यकता है। हालाँकि स्त्रियों के विरोध (या उनके अधिकारों को सीमित करने) की प्रवृत्ति हर धर्म में किसी न किसी रूप में विद्यमान है। इसीलिए डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे विचारक लगातार संवैधानिक नैतिकता (constitutional morality) को विकसित करने पर बल देते रहे। वे सामाजिक नैतिकता की अपेक्षा सदैव संवैधानिक नैतिकता को प्राथमिकता देने की वकालत करते थे।

हेगेल (Hegel) ने भी दो प्रकार की नैतिकता का उल्लेख किया है — सार्वभौमिक नैतिकता (Universal morality) और जातीय या सांस्कृतिक नैतिकता (Ethnic morality)। भारतीय दर्शन में भी इसी प्रकार दो नैतिक अवधारणाएँ मिलती हैं —लोकाचार और सदाचार। हमें सदैव सदाचार को प्रोत्साहित करने वाली संस्कृति विकसित करनी चाहिए। इसी संदर्भ में कहा जा सकता है कि एक ओर रीति-रिवाज की नैतिकता (morality of customs) है, और दूसरी ओर मूल्यों की नैतिकता (morality of values)।जब भी इन दोनों में टकराव हो, हमें मूल्यों की नैतिकता को प्राथमिकता देनी चाहिए।

इसी प्रकार, यदि कभी संविधान (constitution) और लोकतंत्र (democracy) के बीच भी कोई विरोधाभास उत्पन्न हो, तो लोकतंत्र को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इसी संदर्भ में हमें आपातकाल (emergency) के औचित्य को भी समझने की आवश्यकता है। लोकतंत्र (democracy) और अनुशासन (discipline) में भी जब कभी संघर्ष हो, तब हमें हमेशा लोकतंत्र को महत्व देना चाहिए।

1971 में जब इंदिरा गांधी ने चुनाव जीता, तो उसका एक मुख्य कारण यह था कि वे राइट टू प्रॉपर्टी (Right to Property) को मौलिक अधिकारों की सूची से हटाना चाहती थीं। सुप्रीम कोर्ट की अनिच्छा के बावजूद उन्होंने संविधान संशोधन के माध्यम से इसे हटवा दिया। यहाँ यह विचारणीय है कि जहाँ सुप्रीम कोर्ट राइट टू प्रॉपर्टी को एक मौलिक अधिकार के रूप में देख रही थी, वहीं इंदिरा गांधी इसे पूँजीवाद (capitalism) के परिप्रेक्ष्य में देख रही थीं और स्वयं को अधिक समाजवादी सिद्ध करने का प्रयास कर रही थीं।

उसी समय यह प्रश्न भी गंभीरता से उठ खड़ा हुआ कि संसद सर्वोच्च है या न्यायालय (कोर्ट)। इसके बाद हम देख सकते हैं कि गोलकनाथ केस से लेकर उत्तर प्रदेश के एक महंत पर चले मुक़दमे तक इसी प्रकार की बहस जारी रही, जहाँ न्यायालय राइट टू प्रॉपर्टी (संपत्ति के अधिकार) के साथ खड़ा था। इसीलिए यह आवश्यक है कि हम कानूनी इतिहास (legal history) और विधिशास्त्र (jurisprudence) को गहराई से समझें।

जहाँ तक समझने की बात है, मौलिक अधिकारों में पहले राज्य शिक्षा को सीधे-सीधे प्रायोजित (entertain) नहीं कर सकता था। बाद में इसे भी मौलिक अधिकार बना दिया गया। आज के संदर्भ में राइट टू प्रॉपर्टी एक कानूनी अधिकार (legal right) है, मौलिक अधिकार (fundamental right) नहीं। यहाँ तक कि उस समय, सोवियत रूस को छोड़कर लगभग सभी देशों में राइट टू प्रॉपर्टी मौलिक अधिकारों में शामिल था। कानून के विद्वान (legal luminaries) मानते हैं कि यदि संपत्ति का अधिकार नहीं होगा तो नागरिकों में सुरक्षा का भाव नहीं रहेगा, और वे हमेशा राज्य से भयभीत रहेंगे। इसीलिए राज्य का दायित्व है कि वह नागरिकों को जीवन और सुरक्षा का अधिकार दे।

जॉन लॉक ने भी राइट टू प्रॉपर्टी को बुनियादी अधिकारों में से एक माना था। उन्होंने कहा कि किसी भी राज्य के लिए रूल ऑफ लॉ (Rule of Law) सबसे महत्वपूर्ण है। आज भी संवैधानिकता (constitutionalism) के दर्शन में हम रूल ऑफ लॉ को अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हैं। हालाँकि, कानून और न्याय (justice) के बीच दूरी भी हो सकती है, विशेष रूप से तब जब विधि बनाने वाली संसद (legislature) स्वयं संवैधानिक मूल्यों को स्वीकार न करे। इसीलिए एनआरसी (NRC) जैसे मुद्दों को भी इस दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता है।

इसी विमर्श को आगे बढ़ाते हुए हम ‘Rule of Law’ और ‘Rule of Ruler’ के बीच के द्वंद्व को भी भलीभाँति समझ सकते हैं।
आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने यह साबित कर दिया कि संसद (Parliament) सर्वोच्च है। जेपी आंदोलन के समय जब आपातकाल लगाया गया, तब यह प्रश्न पुनः सामने आया कि संसद सर्वोच्च है या लोकतंत्र की आवाज?

जयप्रकाश नारायण के आंदोलन ने लोकतंत्र की आवाज को फिर से जीवित किया और अंततः उसे जीत भी दिलाई। जेपी आंदोलन के दौरान यह प्रश्न भी खड़ा हुआ कि रूल ऑफ लॉ (Rule of Law) का स्वामी कौन है — सरकार या जनता?

कई बार ऐसा हुआ है कि संसद द्वारा पारित कानून को सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक मूल्यों के विपरीत पाते हुए निरस्त कर दिया।
लेकिन सरकार यदि चुनाव दोबारा कराकर दो-तिहाई बहुमत प्राप्त कर ले, तो वह उसी मसले को पुनः कानून के रूप में लागू कर सकती है। इसे इस दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है कि यदि संसद के पास असीमित शक्ति हो जाए, तो वह उसका दुरुपयोग भी कर सकती है। यही से लोकतंत्र की सीमाओं (limits of democracy) पर विमर्श प्रारंभ होता है।

आज संसद किसी भी तरह का कानून बना सकती है। और यदि बहुमत से संविधान में ही बदलाव कर दिया जाए, तो न्यायपालिका भी उसे चुनौती नहीं दे सकती। इसलिए चुनाव और लोकतंत्र पर भरोसा करने से पहले हमें इनके संभावित दुरुपयोग को भी समझना चाहिए।

रूस में भी स्टालिन के समय चुनाव होते थे, और जर्मनी में हिटलर ने भी चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से ही अपनी सत्ता स्थापित कर अधिनायकवाद (totalitarianism) की नई लहर चला दी। इसीलिए कहा जाता है कि रूल ऑफ लॉ और लोकतंत्र — दोनों की अपनी सीमाएँ होती हैं। फ्रैंकफर्ट स्कूल के समाजवैज्ञानिकों ने तो बहुत पहले ही ‘Mejotarian डेमोक्रेसी’ के रुझान को पहचान लिया था। लेकिन आज इसी ‘Mejotarian डेमोक्रेसी की ओर में बढ़ता अधिनायकवाद पूरी दुनिया को संकट में डाल रहा है।

यदि एक काल्पनिक उदाहरण लें, तो मान लें कि सरकार चाहे तो भारत के मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना सकती है, भले ही सुप्रीम कोर्ट उसका विरोध करे। यदि जनता चुनावों में ऐसी सरकार को बहुमत दे दे, तो यह भी हो सकता है। इसीलिए कहा जाता है कि भारत जैसे देश को हमेशा ‘Mejotarian डेमोक्रेसी’ से भी खतरा बना रहेगा। इस प्रकार के उदाहरण लोकतंत्र की सैद्धांतिक सीमाओं पर गंभीर विमर्श को जन्म देते हैं।

और दूसरी बात, धर्मनिरपेक्षता शब्द के संदर्भ में यह समझना ज़रूरी है कि किसी चीज़ के प्रति निरपेक्ष (neutral) होने का अर्थ उसका विरोध करना नहीं होता। धर्मनिरपेक्षता का मतलब है — राज्य का किसी भी धर्म के पक्ष या विपक्ष में न खड़ा होना, न कि धर्म का विरोध करना।

जहाँ तक ‘समाजवाद’ शब्द की बात है, तो यह शब्द संविधान की प्रस्तावना में होते हुए भी, Narasimha राव से लेकर मनमोहन सिंह और फिर बाद में मोदी सरकार तक, सभी ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (LPG — Liberalization, Privatization, Globalization) की नीतियों को महत्व दिया है। यह एक गंभीर प्रश्न है कि वैश्वीकरण (globalization) और संप्रभुता (sovereignty) के बीच उत्पन्न समस्याओं को राज्य कैसे सुलझाए?

इसी संदर्भ में धारा 370 को हटाए जाने के मामले पर भी गंभीर विमर्श और चिंतन की आवश्यकता है। किसी भी राज्य की प्रकृति या चरित्र का निर्धारण करते समय लोकतंत्र, संवैधानिक नैतिकता और न्याय (justice) के सवालों को सदैव ध्यान में रखना चाहिए। इसीलिए महात्मा गांधी से लेकर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में , लोकतंत्र को बचाने की जो कसौटी और संघर्ष रहे हैं, उन्हें हमेशा स्मरण रखना चाहिए। हमें यह भी प्रयास करना चाहिए कि नैतिकता और लोकतंत्र या नैतिकता और संविधान के बीच की दूरी को जन आंदोलनों के माध्यम से कम किया जाए। क्योंकि जिस देश में अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच जितनी अधिक खाई बनेगी, वहाँ लोकतंत्र उतना ही कमजोर होगा।

भारतीयता और हमारे स्वतंत्रता संग्राम की विरासत हमें हमेशा mejotarian डेमोक्रेसी और अल्पसंख्यक विश्वास को सशक्त बनाने की प्रेरणा देती है। इसीलिए लोकतंत्र को बचाने के लिए कहा जाता है: > “Vigilance is the price of liberty.” अर्थात् सतर्कता ही स्वतंत्रता की कीमत है।

इसलिए नागरिकता-बोध और नागरिकता निर्माण की परंपरा को निरंतर बनाए रखना चाहिए। भारत के पड़ोसी देशों की स्थिति देखकर हमें अपनी भूलों से सीखने और उन्हें सुधारने की आवश्यकता है। इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व, सामाजिक नेतृत्व और देश की संस्थाओं को मिलकर काम करना चाहिए। क्योंकि यदि देश के किसी भी वर्ग का लोकतंत्र से विश्वास उठ गया, तो हिंसा का सिलसिला शुरू हो सकता है और अंततः एक सभ्यता-संकट (civilizational crisis) खड़ा हो जाएगा।

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