(‘दलित विमर्श और समाजवादी आंदोलन’ शीर्षक से 14 अप्रैल 2021 को प्रकाशित लेख का दूसरा भाग )
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की 1934 में स्थापना के काल से ही वाराणसी स्थित काशी विद्यापीठ समाजवादियों का एक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय केंद्र था। आचार्य नरेन्द्रदेव यहाँ 1923 से ही प्रमुख शिक्षक थे। डॉ संपूर्णानंद की पुस्तक ‘समाजवाद’ 1936 में काशी विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित हुई और इसे कांग्रेस सोशलिस्टों ने पाठ्य-पुस्तक के रूप में महत्त्व दिया। डॉ. संपूर्णानंद ने समाज को ‘समम अजन्ति जना: अस्मिन इति’ से परिभाषित करते हुए चारों तरफ फैले हुए विभेदों को रेखांकित किया और इंगित किया कि ‘सब पृथ्वी पर रहते हैं पर उसी भाँति जैसे जंगल में हिंस्र पशु रहते है।’ यह भी लिखा कि ‘भारत में वर्णव्यवस्था ने एक और जटिलता उत्पन्न कर दी है। कुछ लोगों के हाथ में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकार हैं; दूसरे लोग जो प्रत्यक्ष रूप से उनसे किसी भी गुण में कम नहीं प्रतीत होते, इस सारे अधिकार से वंचित हैं।
समाजवादी परिवार के वरिष्ठतम चिंतक आचार्य नरेन्द्रदेव कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना के बरसों पहले से ही संयुक्त प्रांत में अस्पृश्यता विरोधी आंदोलन में सक्रिय थे। समाजवादियों की आरंभिक दिशा के बारे में समीक्षा करते हुए डॉ. भीमराव आंबेडकर ने वर्ग-विश्लेषण को भारतीय संदर्भ से जोड़ने की जरूरत महसूस की। उन्होंने समाजवादियों द्वारा समाज में व्याप्त विषमताओं और शोषण की समाप्ति की खातिर प्रस्तावित आर्थिक सुधारों के लिए सामाजिक सुधारों की अनिवार्यता पर बल दिया। उनके 1936 के मशहूर भाषण में कहा गया था कि, “भारत के समाजवादी,यूरोप के अपने साथियों का अनुसरण करते हुए, भारत के तथ्यों पर इतिहास की आर्थिक व्याख्या को लागू करना चाह रहे हैं। वे प्रतिपादित करते हैं कि मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है, उसकी गतिविधियाँ और आकांक्षाएं आर्थिक तथ्यों से बँधी हैं और संपत्ति ही शक्ति का एकमात्र स्रोत है। इसलिए वे यह शिक्षा देते हैं कि राजनीतिक और सामाजिक सुधार एक विराट भ्रम है, और किसी भी अन्य सुधार के पहले जरूरी है कि संपत्ति की बराबरी लाकर आर्थिक सुधार किया जाए। इन तीन तर्कों पर ही समाजवादियों की यह धारणा टिकी हुई है कि आर्थिक सुधारों को दूसरे सभी सुधारों पर प्राथमिकता देनी चाहिए, और इनमें से प्रत्येक तर्क पर बहस की जा सकती है। कोई जवाब दे सकता है कि आर्थिक प्रेरणा ही एकमात्र प्रेरणा नहीं है, जो मनुष्य को संचालित करती है। आर्थिक शक्ति ही शक्ति का एकमात्र प्रकार है, यह मानव समाज का कोई भी विद्यार्थी स्वीकार नहीं कर सकता।”
डॉ. आंबेडकर ने जोर देकर कहा कि, “धर्म, सामाजिक स्थिति और संपत्ति, ये तीनों शक्ति या सत्ता के स्रोत होते हैं, जो दूसरे की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने में किसी व्यक्ति को सक्षम बनाते हैं। फर्क सिर्फ इतना ही है कि इतिहास के किसी चरण में एक प्रमुख हो उठता है, तो किसी चरण में दूसरा…किसी खास समय में या किसी खास समाज में शक्ति का स्रोत जब सामाजिक और धार्मिक दोनों हैं, तब सामाजिक सुधार और धार्मिक सुधार, दोनों को ही सुधार के आवश्यक स्वरूप के रूप में स्वीकार करना होगा।”
डॉ. आंबेडकर ने समाजवादियों को दो बातों के लिए सचेत भी किया। एक, समाजवादियों का यह आश्वासन काफी नहीं है कि जाति में उनकी आस्था नहीं है। इस आश्वासन की नींव अधिक गहरी होनी चाहिए। दूसरे, भारत में प्रचलित सामाजिक व्यवस्था एक ऐसा मसला है, जिससे किसी भी समाजवादी को निपटना ही पड़ेगा। जब तक वह ऐसा नहीं करता, वह क्रांति के अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। जाति एक ऐसा राक्षस है जो समाजवादियों का रास्ता रोकेगा ही नहीं, बल्कि काटेगा भी। जब तक इस दैत्य का वध नहीं होता, तब तक न राजनीतिक सुधार हो सकता है न आर्थिक सुधार। यहाँ यह जोड़ना जरूरी है कि स्वयं डॉ आंबेडकर के विचारों में, निरंतर विकासशीलता के बावजूद, फेबियन समाजवादी मूल्यों और आदर्शों और अमरीकी समाजवादी चिंतक प्रो. जॉन डेवी का गहरा प्रभाव था। जॉन डेवी सामाजिक नवनिर्माण में सर्वहारा वर्ग की बजाय बुद्धिजीवियों और मध्यम वर्ग के प्रगतिशील तत्त्वों को जादा महत्त्वपूर्ण मानते थे। ‘ह्यूमनिस्ट मेनिफेस्टो’ (1933) के सह-लेखक के नाते प्रसिद्ध इस विचारक की मार्क्स के सिद्धांतों से असहमति थी। कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन डेवी से उनका संपर्क अमरीका में उच्च शिक्ष प्राप्त करने के दौरान एक विद्यार्थी के रूप में 1913-16 के दौरान हुआ। डॉ. आंबेडकर के पी-एच. डी. निदेशक प्रो. एडविन सेलिग्मन भी इसी समाजवादी चिंतन-धारा से जुड़े थे। डॉ. आंबेडकर पर फेबियन समाजवादियों का असर उनका उच्च शिक्षा के प्रति आग्रह, मार्क्सवाद के प्रति आकर्षण और असहमतियां, फेबियन इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का अनुकरण, समाजवादी समाज की रचना में राज्य की भूमिका के बारे में दृष्टि से लेकर समतामूलक समाज की रचना में बौद्ध धर्म की प्रासंगिकता तक में बार-बार सामने आता रहा है।
गैरबराबरी की चतुर्मुखी चुनौती
नरेन्द्रदेव-संपूर्णानंद की बनायी अस्पृश्यता-उन्मूलन और जाति संबंधी नीति में आजादी के शुरुआती दो दशकों में डॉ राममनोहर ने लोहिया भारत की शक्ति-संरचना में जातिगत विषमता को स्त्री-पुरुष की गैरबराबरी, संपत्ति और अंग्रेजी शिक्षा की भूमिका से जोड़कर नया मोड़ दिया।
इस चतुर्मुखी चुनौती का सामना करने के लिए समाजवादियों ने ‘जाति-तोड़ो’ के लक्ष्य से जुडी कई शुरुआतें भी कीं– जाति अध्ययन व निर्मूलन समिति, जाति तोड़ो सम्मेलन, मंदिर प्रवेश सत्याग्रह, अंतरजातीय विवाह, दलित नेतृत्व निर्माण आदि। अपने को ‘कुजात गांधीवादी’ धारा का माननेवाले डॉ. लोहिया ने डॉ. आंबेडकर से वैचारिक और राजनीतिक निकटता का प्रयास किया जिसके प्रति दोनों तरफ से अनुकूलता थी। वह गांधी और आंबेडकर को आधुनिक भारत के दो श्रेष्ठतम प्रतीक मानते थे। लेकिन लोहिया की पहल डॉ आंबेडकर की मृत्यु के कारण अधूरी रह गई।
डॉ. लोहिया और पेरियार रामासामी नायकर का भी महत्त्वपूर्ण संवाद हुआ था। डॉ. लोहिया ने जाति-व्यवस्था के बारे में सत्रह सूत्री विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए दलित-विमर्श को नए आयाम दिए– “यों जाति का मामला केवल हिन्दुस्तान में है। लेकिन जाति में जो बीज हैं, तत्त्व हैं वे किसी न किसी रूप में संसार के हर देश में मौजूद हैं। मेरा ऐसा विचार है कि मनुष्य का इतिहास जहां और कई किस्म की पेंगें लेता रहा है, वहां वर्ग और जाति की दो धुरियों के बीच में, या दो कोनों के बीच में झूला झूलता रहा है। पेंग लेता रहा है। वर्ग है ढीली जाति और जाति है जकड़ा हुआ वर्ग…हिंदुस्तान में कभी ये वर्ग थे या क्या था?”
डॉ. लोहिया ने औरत, शूद्र, दलित, आदिवासी और धार्मिक अल्पसंख्यकों की ‘छोटी जातियों’ को समाज के अन्याय-पीड़ित अंश के पांच अंगों के रूप में चिह्नित किया। इसके साथ ही भारत के सत्ताधारी वर्ग के तीन लक्षण गिनाये– 1. ऊँची जाति, 2. संपत्ति, और 3. अंग्रेजी शिक्षा। जातिव्यवस्था के समाजशास्त्रीय पक्ष के प्रति सजगता दिखाते हुए एक तरफ शूद्रों के बीच की प्रभुजातियों जैसे केरल के नायर, तमिलनाडु के मुदलियार, आंध्र के रेड्डी, महाराष्ट्र के मराठा, कर्नाटक के वोक्कालिग्गा और लिंगायत आदि की जाति निर्मूलन के प्रति उदासीनता को चिह्नित किया क्योंकि ऐसी जातियों की विचारधारा के स्तर पर द्विजों से निकटता बढ़ती रही है। दूसरी तरफ, यह भी समझना जरूरी माना कि ‘ऊंची’ जातियों का भी एक छोटा हिस्सा ही अमीर है। इसलिए जाति समूहों के अंतर्गत तीन श्रेणियों को भी दिमाग में रखना चाहिए- 1. ‘ऊंची जाति’ के अमीर मर्द, 2. ‘ऊंची जाति’ के गरीब मर्द, और 3. ‘छोटे’ लोग। तीसरे, भारत की गरीबी और दुनिया में भारत की स्थिति को भी ध्यान में रखना चाहिए। क्योंकि संसार में यह सबसे भूखा, रोगी और विषमता पीड़ित देश है। इस देश में जाति-प्रथा और गरीबी एक दूसरे के पूरक होते हुए एक दूसरे को मजबूत करते हैं।
जाति-प्रथा के ऐतिहासिक परिणामों को देश की पराजय और पराधीनता की सदियों लंबी परंपरा से जोड़ते हुए जाति उन्मूलन को देश की स्वराज यात्रा और समाजवादी क्रांति से जोड़ना लोहिया का बुनियादी योगदान कहा जाएगा। उनके अनुसार, “देश की जनता का 90 सैकड़ा मुर्दा हो गया है और 9 सैकड़ा अर्ध-मुर्दा। केवल 1 सैकड़े में विचित्र प्रकार की विकृत जान है। पिछले 1500 वर्ष में, मालूम होता है, ऐसा लगातार रहा है। इसीलिए हिन्दुस्तान दुनिया का सबसे जादा विजित देश है। जो लोग कहते हैं कि फूट के कारण देश गुलाम बनता है, वे इतिहास, राजनीति और समाजशास्त्र- कुछ नहीं जानते। हिन्दुस्तान गुलाम बनता रहा है मुख्यत: जनता की उदासी के कारण, और इस उदासी का सबसे बड़ा कारण जातिप्रथा रही है और इसी के साथ-साथ बड़े आदमी का आर्थिक फरक।” उन्होंने आगे इंगित किया कि जातिप्रथा और आर्थिक गैर-बराबरी ने जनता को क्रांति की दृष्टि से नालायक बना दिया है।
पिछले डेढ़ हजार बरसों में जनता ने किसी भी देशी जालिम या जुल्म के खिलाफ क्रांति नहीं की। क्यों? जहां पूरी बराबरी अथवा गैर-बराबरी है वहां क्रांति संभव नहीं होती– एक जगह क्रांति की जरूरत नहीं, तो दूसरी जगह जिनको क्रांति की जरूरत है उनमें क्रांति कर सकने की शक्ति नहीं रहती। लोहिया के चिंतन की यह विशेषता रही कि उन्होंने ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर जाति प्रथा के निर्मूलन के बारे में आशावादी निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं। उनके अनुसार जाति के इतिहास को देखते हुए यह लग सकता है कि यह प्रथा अब अनंत है क्योंकि जाति प्रथा पर हजारों बरसों से लगातार हमले होते रहे हैं लेकिन नाकामयाब रहे। वस्तुत: इस नाकामयाबी का कारण यह रहा है कि अभी तक जाति प्रथा पर केवल डेढ़-मुखी हमले हुए हैं – एक धार्मिक और आधा सामाजिक। लेकिन अब राष्ट्रीय आंदोलन से पैदा नए उत्साह के कारण 1. धार्मिक (आर्य समाज, गांधी का हृदय परिवर्तन अभियान, व अन्य सुधार प्रयास) 2. सामाजिक (अस्पृश्यता उन्मूलन और अंतरजातीय विवाह), 3. राजनीतिक (बालिग़ मत्ताधिकार और विशेष अवसर का सिद्धांत) तथा 4. आर्थिक (न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने, अलाभकर जोत से लगान खतम करने, जमीन बँटवारे आदि) मोर्चों पर प्रभावशाली पहल का दौर आ गया है। अब चौतरफा हमला होने के कारण आशा जगी है कि जातिप्रथा शायद अबकी बार खतम हो।
डॉ. लोहिया जाति प्रथा और आर्थिक गैर-बराबरी को एक ही सिक्के के दो पहलू के रूप में देखने के आग्रही थे। वह जाति और जेंडर को भारतीय समाज के ऐसे दो कठघरे मानते थे जिसने भारतीय जीवन में से आनंद और उत्साह को ख़तम कर दिया है। इसीलिए न्याय और समता आधारित राष्ट्रनिर्माण के लिए समाज-मंथन के जरिये जातिप्रथा के विरुद्ध क्रांति की जरूरत पर बल देते थे जिससे एक तरफ जाति और वर्ग से जुड़े अन्याय समाप्त हों और दूसरी तरफ स्त्री-पुरुष के बीच समता का संबंध संभव हो। डॉ आंबेडकर की तरह डॉ. लोहिया ने भी अपने विचारों और राजनीतिक-सामाजिक कर्म को एक दूसरे से जोड़कर विकसित किया था। इसलिए उनकी निगाह में ‘राष्ट्रवर्धक जाति-तोड़ो नीति’ को लागू करने की रुकावटों का भी महत्त्व था। उन्होंने माना कि बिना नफरत, वैरभाव और बदले की भावना के राजनीतिक पहल का जोश नहीं पैदा होता। लेकिन जब जलन किसी का औजार बन जाती है तो उसकी शक्ति और गुण नहीं उभर पाते। इसका समाधान राजनीतिक प्रशिक्षण से ही संभव है। फिर जब ‘वंचित’ जातियों द्वारा जाति पर हमला होता है तो बहुसंख्यक ‘वंचित जातियां’ जादा फायदा उठाती हैं। इसीलिए हमेशा इस बात की चेतना रहनी चाहिए कि कम संख्यावाली ‘वंचित’ जातियों में भी नेतृत्व पैदा हो और जान आए।
वंचितों के नेतृत्व पर जोर
इसी के समांतर जाति तोड़ने के लिए सहमत मंचों द्वारा भी महिलाओं, शूद्रों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों, तथा अल्पसंख्यकों में ‘वंचित’ जातियों में से निरंतर नेतृत्व निर्माण हो। यह भी एक कठिनाई है कि जाति तोड़ो के प्रयास से ‘दलित’ समूहों में उत्साह पैदा होने के पहले ही सवर्णों में प्रतिरोध और प्रतिक्रिया पैदा हो जाया करती है। इसी प्रकार परिवर्तन की राजनीति से आगे बढ़ने का अवसर मिलने पर ‘वंचित’ समुदायों के अधिकांश प्रतिनिधियों में सवर्णों की गंदी आदतों की नकल की प्रवृत्ति फैलने लगती है। इस सब के बावजूद इसके खिलाफ समाज में एकजुटता कठिन नहीं है क्योंकि जातिप्रथा के कारण पूरे देश में अवसर और योग्यता दोनों की कमी की प्रक्रिया का फैलाव होता है। फिर जाति की चक्की ‘छोटी’ जातियों को पीसने के बाद ‘ऊंची’ जाति के गरीब मर्दों को भी पीसती है। इसलिए विशेष अवसर के सिद्धांत के जरिये ‘ऊंची’ जातियों और ‘वंचितों’ के मिले-जुले नेतृत्व के जरिये सच्ची और आधुनिक क्रांति होना संभव है। लेकिन यह लंबा प्रयत्न है और इसमें ‘पहले जहर फिर अमृत’ वाली बात सही है।
डॉ. आंबेडकर की हिंदू धर्म के बारे में दृष्टि से अलग दृष्टि प्रस्तुत करने वाले डॉ. लोहिया की मान्यता है कि भारतीय इतिहास में सबसे बड़ी लड़ाई हिन्दू धर्म में उदारवाद और कट्टरता की लड़ाई है जो पिछले पांच हजार सालों से भी अधिक समय से चल रही है। क्योंकि चार बड़े और ठोस सवालों के बारे में हिन्दू धर्म बारी–बारी से कट्टरता और उदारता का रुख लेता रहा है – वर्ण, स्त्री, संपत्ति और सहनशीलता। कट्टरपंथियों ने हिन्दू धर्म में एकरूपता की एकता कायम करने की कोशिश की है। लेकिन अच्छे उद्देश्यों के बावजूद उनके कामों के नतीजे हमेशा बहुत बुरे हुए हैं। जब भी भारत में एकता या खुशहाली आई तो हमेशा उदारवादियों का प्रभाव अधिक था। उन्होंने यह भी जोड़ा है कि आज हिन्दू धर्म में उदारता और कट्टरता की लड़ाई ने हिन्दू-मुस्लिम झगड़े का ऊपरी रूप ले लिया है और कोई हिन्दू मुसलामानों के प्रति सहिष्णु नहीं हो सकता जब तक कि वह उसके साथ ही वर्ण और संपत्ति के विरुद्ध और स्त्रियों के हक में काम न करे। (समाप्त)
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