— आयुष चतुर्वेदी —
कहने को तो भारत विश्व का सबसे युवा देश है, यानी यहां युवाओं की संख्या सबसे अधिक है। लेकिन सवाल है कि यहां का युवा कर क्या रहा है? क्या उसके पास नौकरी है? स्टार्टअप शुरू करने के पैसे हैं? इंजीनियरिंग-मेडिकल-कॉमर्स-आर्ट्स की डिग्री लेकर रेलवे के फॉर्म का इंतज़ार करता हुआ युवा आखिर कितना मजबूत है हमारे ‘विश्वगुरु भारत’ में ? उद्योगपति के बच्चे बिना डिग्री के भी राजा हैं, और हम आम लोग पीएचडी के बावजूद भी रंक हैं। ये बातें मैं बढ़ा-चढ़ाकर या आपको उत्तेजित करने के लिए नहीं लिख रहा हूँ. यही सच्चाई है। पूरी नहीं तो आधी सच्चाई तो है ही।
गांधी कहते थे कि आदमी की गरीबी ही सबसे बड़ी हिंसा है। लेकिन हम गरीबी को कितना मिटा पाए ? आये दिन योजनाएं बनती हैं, कानून पास होते हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं दिखता। यही कारण है कि युवा भटकता है। उमैर नजमी का एक शे’र है- “तूने छोड़ा तो किसी और से टकराऊँगा मैं कैसे मुमकिन है कि अंधे का कहीं सर न लगे।”हालाँकि ये शे’र उन्होंने प्रेम पर लिखा था, लेकिन यह आज युवाओं की स्थिति पर भी सटीक बैठता है।
तमाम प्राइवेट नौकरियों से दुत्कारे जाने के बावजूद आज का युवा हर जगह इंटरव्यू देता है, कुछ दिन नौकरी करता है, सरकारी नौकरी का फॉर्म भरता है, ढाई-तीन साल रिजल्ट का इंतजार करता है, खुद के साथ-साथ परिवार को भी सम्भालता है। यह लगभग हर मिडिल-क्लास घर की कहानी है। यहीं से समझ आता है अमीर और गरीब का फर्क।
देश की 70 प्रतिशत संपत्ति को 1 प्रतिशत अमीर लोगों ने हथियाया हुआ है। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ खड़ी हैं, बड़े-बड़े गोरखधंधे हो रहे हैं उद्योग-धंधे के नाम पर। अमीर और अमीर होता जा रहा है, गरीब और गरीब होता जा रहा है। लेकिन हमें ऐसे मुद्दों में फंसाकर बरगलाया जा रहा है जिनसे हमारा वास्ता होना ही नहीं चाहिए।
आप हिंदू हैं और आपको बताया जा रहा है कि मुसलमान आपके दुश्मन हैं। मुसलमानों के ख़िलाफ़ भयावह माहौल बनाया जा रहा है। लेकिन हम कब समझेंगे कि क्या हिंदू, क्या मुसलमान? नौकरी तो दोनों के ही पास नहीं है! इंटरव्यू की लाइन में दोनों को धक्के खाने पड़ते हैं।
आज आपकी नौकरी इस बात से तय हो रही है कि आप कौन-से कॉलेज और स्कूल से पढ़े हैं। शिक्षा का निजीकरण, और उससे भी घातक है नव-उदारवाद की नीति, इसने हमारी पूरी शिक्षा और रोजगार प्रणाली पर गहरी चोट की है। चोट क्या, बल्कि ध्वस्त कर दिया गया है। लेकिन कारण केवल यही नहीं है, कारण है कि रोजगार पैदा हो ही नहीं रहे हैं। नई कंपनियाँ खुलने की बजाय पुरानी भी बंद हो रही हैं। ऐसे तो किसी देश का विकास नहीं होता!
एक समस्या ‘ब्रेन ड्रेन’ की है। और संभव है कि रहेगी ही। एक पढ़े-लिखे और सुपात्र व्यक्ति को यदि अपने वतन में ढंग की नौकरी नहीं मिलेगी तो वो विदेश जाएगा ही। इसमें जितना दोष उसका है, उससे कहीं ज्यादा दोष हमारे देश की व्यवस्था का है।
पिछड़े, दलित, आदिवासी समुदाय का जीवन-स्तर अब भी बहुत सुधरा हुआ नहीं है। आरक्षण प्रणाली ने बेशक उनके जीवन-स्तर को ऊपर उठाने में मदद की, पर अब भी समाज में छुआछूत और जातिवाद व्याप्त है और इस बात से हम सभी वाकिफ हैं। ऊँची जातियों ने नीची जातियों को शुरू से दबाया है। और हम कितनी भी भोंडी हिपोक्रेसी कर लें, लेकिन यह सच है। अब आते हैं कि आज का युवा पढ़ और सीख क्या रहा है ?
आज हर दूसरे-तीसरे बच्चे के हाथ में आपको स्मार्टफोन दिख जाएगा। स्मार्टफोन का इतना सुलभ होना कई मायनों में लाभदायक है, और बहुत मायनों में नुकसानदेह भी। अधिकतर बच्चे दिनभर गेम्स खेलते हैं। पब्जी-फ्रीफायर और तमाम फाइटिंग और रेसिंग गेम्स। ऐसे गेम्स की लत बहुत जल्दी लगती है। कुछ साल पहले तक बच्चे प्ले-स्टेशन या वीडियो गेम खेलते थे, या फिर साइबर कैफे में जाकर पैसे देकर कम्प्यूटर गेम्स खेलते थे। लेकिन अब हर बच्चे के हाथ में अपना खुद का गेम्स का मेला है। यह चीज उनकी पढ़ाई पर पूरी तरह असर डालती है।
यह तो रही बच्चों की बात। अब बात युवाओं की। युवा भी अधिकतर ये गेम्स खेलते ही हैं। उनकी पढ़ने की आदत छूट गई है। उनकी पढ़ाई बस उनके स्कूल-कॉलेज के सिलेबस तक सीमित रहती है। वो अलग से किताबें नहीं पढ़ते। यहाँ तक कि उपन्यास भी नहीं। पढ़ने की आदत का खत्म होना, या पढ़ने की आदत का होना ही नहीं, यह बहुत घातक चीज़ है। सिर्फ स्कूल-कॉलेज और कोचिंग की पढ़ाई तक अपने ज्ञान को सीमित करके रखना तो एक विपदा है। आप कम पढ़ेंगे, तो कम जागरूक होंगे, कम सवाल पूछेंगे। यह एक ट्रैप है। मार्कस सिसेरो ने कहा था कि ‘ए रूम विदाउट बुक्स इज लाइक ए बॉडी विदाउट सोल।’ यानी किताबों के बिना एक कमरा, आत्मा के बिना एक शरीर की तरह होता है। जो सजीव होते हुए भी निर्जीव है, पल-पल मर रहा है।
अपने कमरों की दीवारों पर सिर्फ शो-पीस, भगवान की मूर्तियाँ और गुलदस्ते ही नहीं, बल्कि कुछ किताबें भी सजाइए। और न सिर्फ उन्हें सजाइए बल्कि पढ़िए भी। उन्हें पढ़ने, और परस्पर पढ़ने की आदत डालिए।
कोई भी बदलाव पढ़कर ही आएगा। सीखकर ही आएगा। हमारे देश में एक-से-एक लोग हुए हैं। यह शिव की भूमि है, राम की भूमि है, कृष्ण की भूमि है। गांधीवादी और समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि- “हे भारतमाता! हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो, तथा राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो।”
आज हमें इन चीजों की बहुत जरूरत है। भारत शांति और समृद्धि का देश रहा है। बुद्ध से लेकर गांधी-नेहरू-आंबेडकर का देश रहा है। जरूरत है कि हम इन महापुरुषों से प्रेरणा लें। लेकिन देश की जो वर्तमान हालत है, वो तो कुछ और ही है। युवा अहिंसा, शांति तथा प्रेम के रास्ते से भटक गया है और हिंसा, उन्माद तथा नफरत के रास्ते पर चल रहा है। बेहद दुख होता है जब धर्म के नाम पर झगड़े और हत्याएँ होती हैं। इन चीजों के खिलाफ जो आवाज उठाने वाले लोग हैं, उन्हें पकड़कर जेल में ठूंस दिया जाता है।
क्रांति के लिए हमारे पास तमाम मुद्दे हैं, लेकिन वो नवचेतना नहीं है। युवाओं का विजन खत्म हो गया है। हम कितना भी बढ़ा-चढ़ाकर अपने देश की बड़ाई करें, लेकिन सच्चाई हमको भी पता है कि हमारा देश सुस्त लोगों का देश है। यहां सुस्त लोग हैं, जिन्हें कोई भी बहला-फुसला लेगा। विधायकी के चुनाव में 40 रुपये की शराब की बोतल में बिककर वोट दे देते हैं लोग। और फिर पांच साल झेलते हैं निर्दयी शासक को। हम नशे में आकर वोट देते हैं। चाहे वो शराब का नशा हो या अंधभक्ति का। और यही चीज हमें गर्त में धकेल देती है। फिर हम तर्क करना भूल जाते हैं, सवाल पूछना भूल जाते हैं। जो बोल दिया जाता है, हम मान लेते हैं। और ऐसा करके नेता हमपर राज चलाते हैं।
यही काम हिटलर ने किया था, यही काम मुसोलिनी ने किया था। और यही काम आज हो रहा है। अगर हम नहीं संभले तो बहुत पछताएंगे।
चिंतक-विचारक छात्र-सुवा की जीवंत सामयिक सोच .
आयुष चतुर्वेदी जी को व ‘समता मार्ग ‘ को बहुत बहुत बधाई.🌷📖🌷