1942 की एक समानांतर सरकार ‘स्वतंत्र बलिया प्रजातंत्र’

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— विवेकानंद सिंह —

1 सितंबर 1939,दिन शुक्रवार को पोलैंड पर जर्मनी के आक्रमण के साथ ही ही द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। ब्रितानिया सरकार ने हिंदुस्तानियों से बगैर किसी रायशुमारी के हिंदुस्तान को इस युद्ध में झोंक दिया। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने इसका पुरजोर विरोध करते हुए मांग रखी कि केंद्रीय विधानसभा के प्रति उत्तरदायी एक भारतीय सरकार स्थापित की जाए, साथ ही ब्रितानिया सरकार यह वचन दे कि युद्ध के समाप्त होने पर फौरन हिंदुस्तान को स्वतंत्र किया जाएगा। सरकार ने उक्त दोनों बातों को मानने से साफ इनकार कर दिया, तब कांग्रेस के प्रांतीय मंत्रिमंडलों ने इस्तीफा दे दिया।

इस गतिरोध को शांत करने के लिए 22 मार्च 1942, दिन रविवार को लंदन से सर स्टैफोर्ड क्रिप्स भारतीय नेताओं से बातचीत करने के लिए नयी दिल्ली आए, परंतु वार्ता विफल हो गयी, क्योंकि अंग्रेज सरकार उक्त दोनों प्रस्तावों को मानने के लिए तैयार नहीं थी। वार्ता भंग होने के बाद 12 अप्रैल 1942 को क्रिप्स वापस इंग्लैंड चले गये। इधर कांग्रेस कमेटी सरकार के विरुद्ध जन आंदोलन करने की तैयारी में जुट गयी। पहला असहयोग आंदोलन, दूसरा सविनय अवज्ञा आंदोलन के बाद, इस तीसरे महा आंदोलन को अंग्रेजो भारत छोड़ो का नाम दिया गया। 8 अगस्त 1942, दिन शनिवार को बंबई (मुंबई) में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में प्रस्ताव पारित किया गया। इस दौरान महात्मा गांधी ने देशवासियों को ‘करो या मरो’ का नारा दिया। अगले दिन प्रातः सरकार ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को प्रतिबंधित करके सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर कारावासों में भेज दिया। 9 अगस्त 1942, दिन रविवार को बंबई स्थित गवालिया टैंक मैदान (अब अगस्त क्रांति मैदान) में कांग्रेस की कार्यकर्ता अरुणा आसफ अली ने तिरंगा फहराकर आंदोलन का शुभारंभ कर दिया। देखते ही देखते देशभर में हजारों कार्यकर्ता पकड़े गए, पीटे गये, जेल भेजे गये, फांसी पर चढ़े, गोलियां खायीं। जुर्माना भरने के लिए घर के बर्तन-गहने बेचे गये। लेकिन देशवासियों का आक्रोश बढ़ता ही गया।

10 अगस्त 1942, दिन सोमवार को बलिया नगर स्थित चौक में उमाशंकर, श्रीकांत पांडेय, सूरज प्रसाद, रामनाथ प्रसाद व बिहारी पटहेरा ने इस आंदोलन की रणभेरी फूंक दी। नगर के साथ ही गांवों के स्कूलों के छात्र भी सड़कों पर निकल आए। महिलाएं घर का चूल्हा-चौका त्याग हाथ में चरखा वाला तिरंगा लिये कचहरी तक पहुंच गयीं।

पुरुषों ने थानों पर हमला किया, बीस गोदामों को लूट लिया गया, रेलवे स्टेशन, डाकघरों को जलाकर तहस-नहस किया गया, टेलीफोन तार काट दिये गये, रेल की पटरियां उखाड़ फेंकी गयीं, जिला प्रशासन पसीने पसीने कि क्या करें, आंदोलन को कैसे नियंत्रित किया जाए। बांसडीह, बैरिया, रसड़ा, बलिया नगर, सुखपुरा, गड़वार के साथ ही जनपद का हर गांव, कस्बा, चट्टी- चौराहा रणभूमि बन गया था।

19 अगस्त 1942, दिन बुधवार। जनपद के विभिन्न क्षेत्रों से नौजवान, बूढ़े, स्त्री-बच्चों का जनसैलाब हाथों में लाठी, कुल्हाड़ी, गंडासा, हावड़ा, कुदाल, मूसल, गुलेल, भाला, खुरपी, हंसुआ, मेटा में हड्डा-बिरनी, सांप, बिच्छू आदि लेकर बलिया नगर की ओर बढ़े चले आ रहे थे। पल-पल की खबर तत्कालीन कलेक्टर मिस्टर जगदीश्वर निगम को मिल रही थी, साथ में थे पुलिस अधीक्षक रियाजुद्दीन अहमद- दोनों परेशान, क्या करें क्या ना करें। खुफिया रिपोर्ट के अनुसार 60-65 हजार लोग, बैरिया, सिकंदरपुर रसड़ा, उजियार, भरौली, शंकरपुर के रास्ते जेल को घेरकर अपने नेताओं को छुड़ाने के निमित्त बढ़ रहे थे। अंग्रेजों ने अपने दस्तावेजों में इस भीड़ की संख्या 20- 25 हजार बतायी है। कलेक्टर मिस्टर निगम ने पुलिस अधीक्षक रियाजुद्दीन अहमद से सलाह करके ट्रेजरी में रखे नगदी का नंबर नोट कराकर जलवा दिया ताकि नोट क्रांतिकारियों (बलवाइयों) के हाथ न लग जाए। आनन-फानन में निर्णय हुआ कि जेल पहुंचा जाए, फौरन डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सेक्रेटरी श्यामसुंदर उपाध्याय (दया छपरा) और सरकारी वकील नूरुल एन (सिकंदरपुर) को बुलाकर कलेक्टर निगम व पुलिस अधीक्षक रियाजुद्दीन अहमद जा पहुंचे बलिया जिला कारागार- जहां बंद थे चित्तू पांडेय, तत्कालीन अध्यक्ष, जिला कांग्रेस कमेटी, बलिया; राधामोहन सिंह, महानंद मिश्र, परमात्मानंद सिंह, राजेश्वर त्रिपाठी, विश्वनाथ चौबे, राम अनंत पांडेय और कई अन्य कांग्रेसी जन। कलेक्टर और एसपी ने नेताओं के समक्ष अपनी बात रखी लेकिन चित्तू पांडेय ने कुछ भी सुनने या कहने से मना करते हुए कहा कि मैं बिना अपने लोगों से बात किए कुछ नहीं कह सकता। बाहर के हालात क्या हैं, हम भीतर वालों को नहीं पता, इसलिए न तो किसी कागज पर दस्तखत करूंगा और न ही किसी प्रकार का वचन दूंगा।

बहुत मान-मनौवल के बाद चित्तू पांडेय अपने सहयोगियों के साथ बाहर आए। भारत माता की जय, महात्मा गांधी जिंदाबाद, चित्तू पांडेय जिंदाबाद, अंग्रेजो भारत छोड़ो, वंदे मातरम के नारे के संग सभी आंदोलनकारी आ गए टाउनहॉल के मैदान में। यहां सभा का आयोजन हुआ, गगनभेदी नारों के बीच जनता ने स्वतंत्र बलिया प्रजातंत्र के नाम से संप्रभु गणराज्य का गठन किया और सर्वसम्मति से चित्तू पांडेय को बनाया गया शासनाध्यक्ष। सभा में जुटे लोगों ने आगामी सरकार के कार्यों को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए तत्काल 2500 रु. का प्रबंध कर दिया। शासनाध्यक्ष चित्तू पांडेय जैसे ही जनसभा को संबोधित करने के लिए खड़े हुए वहां उपस्थित जनसमूह ने गगनभेदी नारा लगाते हुए धरती-आकाश एक कर दिया। लोगों को शांत कराने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ी। भारी कोलाहल के बीच चित्तू पांडेय ने गंभीर स्वर में बोलना प्रारंभ किया- “युवा हमें जवऽन कुछ कितनी, ओकरा खातिर हम युवा सभे के हिरदये से बधाई दे जानीं। हम। तऽ रउवा सभ के सेवक हीं, हमनी के अपना ओर से जेल से छुटे के कवनो जतऽन ना कितनी हैं जा, आ, हमनी के तऽ इसको नइखी जानऽत कि रिहाई काहे भइल। बाकिर बुझाइल कि रउवा सभे के ताकत, दबाव आ एतना जोरदार आंदोलन कइला से ई कुल भईल हऽ। ई सब रउवे सभे के मानल जाई। इहौं आज से सुराज माने गांधी के रामराज भइल, अब अपना इहां जाके सान्ति राखि हमें, संभलकर रक्षा करी हमें। इहवां से जवऽन सनेस जाई, ओकरे अनुसार काम करीं हमें।”

नगर में चारों ओर उत्साह भरा माहौल था। हनुमानगंज कोठी के शिवप्रसाद गुप्त और नगर के अन्य धनाढ्य व्यापारियों ने स्टेशन से लेकर चौक, गुदड़ी बाजार के हलवाइयों से कहा कि सभी को बगैर पैसा लिये पूरी-सब्जी खिलाएं।

बलिया के संप्रभु गणराज्य बनते ही, बलिया विश्व के मानचित्र पर ब्रिटानिया सरकार के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण स्थान के रूप में उभरकर सामने आया। इसी क्रम में पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में तामलुक महाराष्ट्र के सतारा और ओड़िशा के तलचर में भी समानांतर सरकारें बनीं और देशभर के क्रांतिवीरों की शहादत और संघर्ष के चलते देश 15 अगस्त 1947 दिन शुक्रवार को ब्रितानिया हुकूमत की चंगुल से हमेशा के लिए स्वतंत्र हो गया। इन तमाम जाने-अनजाने प्रातःस्मरणीय शहीदों एवं सेनानियों को, जिनके बलिदान से हम स्वतंत्र हुए हैं, कोटिश: नमन।

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