— रंजना अरगडे —
आखिर मैं इस रचना- ‘अथर्वा- मैं वही वन हूँ’ के बारे में क्यों लिख रही हूँ?
वह कृति जिसके पहले शब्द- अथर्वा- से ही मुझे संदर्भ देखने की आवश्यकता पड़ी हो और पहला ही वाक्य- मैं वही वन हूँ- मुझे बिल्कुल भी समझ में न आया हो; यह सही है कि इस पुस्तक में कवि ने यथासंभव संदर्भों को दिया है। लेकिन किताब का शीर्षक तो अपरिचय के आवरण में है। आरंभ में ही कवि अथर्वा का परिचय देते हैं जिससे हमें यह ज्ञान होता है कि अथर्वा ब्रह्मा का ज्येष्ठ पुत्र है जिसे वह अपनी ज्ञान परंपरा की विरासत सौंपते हैं; और ‘मैं वही वन हूँ’ की आध्यात्मिक अनुभूति की प्रभावशाली काव्यात्मक भूमि कुंडलवन में निर्मित करते हैं, फिर भी रहस्य तो बना ही रहता है, इसीलिए यह सवाल तो खड़ा ही रहता है कि ऐसे काव्य को पढ़ने का क्या अर्थ? इतना श्रम लेने का क्या आशय? जिस घर के द्वार पर अजनबी नाम की पट्टिका लटकी हो, उस दरवाजे को क्यों खटखटाऊं भला? इस काव्य के विचार-वन में प्रवेश और निर्गमन दोनों की एक ही चाभी है- और वह है इसकी संरचना। इसकी संरचना ही आपको प्रवेश का रास्ता दिखाएगी। संरचना कुछ ऐसी है-
सबसे पहले उपोद्घात्, महागल्प कथारंभ, उसके बाद 15 पांडुलिपियाँ और अंत में कथाविराम है जो षोडषी पांडुलिपि है। यह संभवतः वही पांडुलिपि है जो मिल नहीं रही है। किसी को भी नहीं मिली थी। जिसमें जीवन का रहस्य छिपा है। भविष्य के जीवन का रहस्य। कवि उसे लिख रहा है- अथर्वा- मैं वही वन हूँ के बहाने।। जो अप्राप्य है उसी में से प्राप्य को प्राप्त करना होता है। प्रत्येक पांडुलिपि के पहले उसका कथासूत्र गद्य में दिया हुआ है।
हमारी अध्ययन-स्मृति में इसके पूर्व लिखा गया पिछला महाकाव्य कामायनी है। 1936 में रचा हुआ। तब से इस बीच कई अच्छे प्रबंध भी लिखे गए। धर्मवीर भारती, नरेश मेहता कुँवरनारायण ने हमें अच्छी प्रबंध रचनाएं दी हैं, जो उपनिषद् पुराण और इतिहास से हमें वर्तमान को समझने की नई दृष्टि देती हैं। पर जो वितान और भावात्मक विस्तार कामायनी का है, जो कल्पना और काव्य की एक नई भाषा का उद्घटन हमारे सामने करती है, वह कामायनी को एक विशिष्ट स्थान प्रदान करती है। कामायनी में तो सीधी-सीधी बात है कि प्रलय के बाद मनु की नव-सृष्टि, उसका जीवन और संघर्षों के बाद श्रद्धा के सहयोग से आनंद की प्राप्ति होना। प्रलय के बारे में हम सब जानते हैं, चाहे पढ़ा न हो पर वह हमारी संचित सांस्कृतिक स्मृति का हिस्सा है। फिर चरित्र तीन ही, मनु श्रद्धा और इड़ा। अतः इनके विषय में जानना कोई दुरूह काम नहीं है। नचिकेता और वाजश्रवा भी कोई पराए नहीं हैं और उनकी कथा भी अपरिचित नहीं। महाभारत तो हमारा नित्य प्रति का साथी है अतः वहाँ भी कोई दिक्कत नहीं है। कवि केवल आज के संदर्भों के साथ जोड़ कर हमें नए अर्थ की ओर ले जाते हैं, और हमें बोधात्मक आनंद की प्राप्ति होती है।
पर इस कवि का इरादा तो कुछ और ही है। इसमें आए लगभग सभी चरित्र न ही सामान्य रूप से इतने जाने-पहचाने हैं और दूसरे इसमें आए संदर्भ भी इतने परिचित नहीं हैं कि कविता में हम सीधे प्रवेश कर जाएं। यानी कि यह महाकाव्य की परिधि और परिभाषा से बाहर है। कोई यह कह सकता है कि महत्वपूर्ण कृतियां नए पैमाने रचती हैं, तो इसका अभी परीक्षण होना बाकी है।
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‘अथर्वा – मैं वही वन हूँ’ का कथा-वितान बहुत लंबा है। यह सोलह पांडुलिपियों की कथा है। इन पांडुलिपियों को संसार भर के खोजी जैसे फाह्यान, ह्वेनसांग इत्सिंग मारकोपोलो, अलबरूनी, इब्नबतूता, ट्रैवर्नियर डोमिंगो पेज वगैरह संसार के तमाम खोजी इन्हें पाने के लिए भटके हैं। इन पांडुलिपियों के भीतर अथर्वा और उसके मित्रों-शिष्यों के संवाद हैं जिनसे कविता का वितान बुना गया है। प्रत्येक पांडुलिपि ही इसके अध्याय हैं। हर पांडुलिपि के पहले पांडुलिपियों को प्राप्त करने की कहानी है। पांडुलिपियों के कथा-बिंदु संक्षेप में इस तरह हैः
पांडुलिपि–
- हिरण्यगर्भ :अथर्वा एक द्रष्टा कवि के काव्यपाठ से कविता शुरू होती है। सृजन की पीड़ा। सृष्टि की प्रक्रिया में भूल। पिछली सृष्टि के विनाश के बाद पुनः सृजन की आकांक्षा। काव्य की शक्ति। कवियों-मित्रों से आत्मीय संवाद। दीर्घतमा एक संशयवादी पात्र का आगमन।
- वातायन :इतिहास बोध की खिड़की से व्यक्ति, सत्ता और समाज का संबंध। अथर्वा से दीर्घतमा का संवाद। एक भिन्न दलित चेतना की वर्चस्वकारी इतिहास से मुक्ति की कोशिश। उसे अथर्वा गुह्य साधना में दीक्षित करता है।
- कुंडलवन :दीर्घतमा की साधना। कुंडलिनी ऊर्जा का जागरण और चेतना का ऊँचाई पर पहुंचना। आत्म साक्षात्कार। इतिहास से मुक्ति। अस्मिता की तलाश। भारत की खोज।
- ब्रह्मावर्त :भारत का प्रागैतिहासिक निर्माण। पारंपरिक इतिहास दृष्टि में कमियां। संस्कृति और इतिहास को संरचित करने के लिए कुछ अन्य प्रमाणों की जरूरत जैसे नक्षत्रों के वैदिक प्रमाण आदि।
- स्त्रीसूक्त :अथर्वा की पालिता पुत्री अपाला से दीर्घतमा का प्रेम। दैहिक अनुराग-रति। प्रेम और विवाह की समस्याएँ। कोर्टशिप। माँ और बहन का प्रेम। विवाह की आध्यात्मिक चेतना। स्त्री मनोविज्ञान।
- तंत्रालोक :तंत्र या जीवन का जाल और उसका आलोक यानी प्रकाश। साधनात्मक विचरण और इतिहास में छलांग। फेंटेसी और स्वप्न। जीवन के मूल तत्त्वों को खोजने के लिए धर्मों के पैगंबरों से भेंट। पुनर्जन्म के स्मरण। प्रेम की साधनात्मक भूमिका।
- महाश्मशान: भारत का विभाजन। भारतीय इतिहास की समस्याएँ। नायक और प्रतिनायक। महात्मा गांधी की हत्या। सुभाष चंद्र बोस का इतिहास से पार गमन करना। इन दोनों का महत्त्व। जवाहरलाल जैसे लोगों का सत्ता प्रेम। भारत की आत्मा कहाँ है? जाहिर है यहाँ कवि की विचारधारा और आशय दोनों स्पष्ट होते हैं।
- प्रतिनारायण: ईश्वर का विरोधी तत्त्व। एंटी क्राइस्ट। उसके प्रतिवादी क्रियाकलाप। उसकी मूल भूमिका है नारायण को विकसित करना। इसके लिए विरोधाभास पैदा करना।
- लोपामुद्रा: इतिहास को संचालित करने वाली सूक्ष्म चेतना जो लुप्त है। मनुष्य के जीवन में दुख की भूमिका। साथ लेने पर वह तीन स्तरों पर चैतन्य करती है- शक्ति ऐश्वर्य और ज्ञान (महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वती)। यह तीनों मिलकर ही ईश्वरीय शक्ति को प्रकट करती हैं।
- मायादर्श: फैंटेसी का मायावी शीशा। वही उत्तल है अवतल है समतल है। यह तीन तरह की इतिहास दृष्टियाँ हैं : प्राचीन मध्यकालीन और आधुनिक। लेकिन एक दूसरे में उनके हाथ फँसे हुए हैं। बेतरतीबी से गड्डमड्ड हैं।
- समुद्रकल्प: समुद्रकल्प यानी प्रलय में डूबकर नयी कल्पना। पूर्ण बदलाव। यह नए तरह की धर्म ज्योति है जिसका शिखर बौद्ध चेतना है। धर्म का वास्तविक स्वरूप संपूर्ण अस्तित्व से एकाकार होना है। वही प्रेम और उदारता बढ़ाती है। जो उसे विनष्ट करता है उसका प्रतिरोध भी आवश्यक है।
- पृथ्वीसूक्त: पृथ्वी की महागाथा। संघर्ष। वर्तमान की अराजकताएं जो संवेदनशील मन को तोड़ती हैं। पूँजीवादी संरचनाओं के कारण शोषण और अत्याचार। उपभोक्तावाद के कारण पर्यावरण का विनाश। दलित चेतना का इतिहास। स्वर्ण सत्ता का निषेध। क्रांति की जरूरत। महाक्रांति = पूर्ण रूपांतरण।
- अतिमानस: पृथ्वी के उद्धार के लिए महाचेतना की जरूरत। इक़बाल की दृष्टि में वह चेतना इस्लाम है। ईसाइयत की दृष्टि में ईसा की करुणा। आधुनिकता की चाह। सबाल्टर्न इतिहास। महाचेतना ही जनशक्ति है। वही इतिहास को बदलती है। अतिमानस से वह नीचे आयी है सबका न्याय करने। वह अपनी बाँह नीचे बढ़ाए हैं ऊपर उठाने के लिए।
- जंबूद्वीप: सृष्टि में अनेक लोक हैं। जीवन लगातार बढ़ रहा है। कविता कला उसे ही व्यक्त करते हैं। भारत के इतिहास पर दृष्टि। ब्राह्मणवाद और श्रमणवाद। दोनों की कमजोरियाँ। एक नए सामंजस्य की जरूरत। नयी मानवता को रचने वाला शिशु आ चुका है। वह धर्म मज़हब और संप्रदाय की संकीर्णताओं से बाहर है। दीर्घतमा का पुत्र चाक्षुष पैदा हो चुका है। अपाला उसे अथर्वा को सौंप देती है। अथर्वा उसे महाबुद्ध को देती है। वही चाक्षुष मन्वन्तर की शुरुआत करता है।
- आनंदवल्ली: लेखकीय उपस्थिति और आत्म संवाद। मनुष्यता के भविष्य के लिए आशा। शांति की कामना। शांतिपाठ पर कविता समाप्त होती है।
- षोडशी: केवल पांडुलिपियों की ही कहानी है इसमें। 16वीं पांडुलिपि मिली नहीं है। अनुमान है कि वह ऐसी विद्या है जो जीवन में संतुलन ला सकती है; भौतिकता और आध्यात्मिकता के तराजू पर ही यह संतुलन संभव है। यह एक महा-स्वप्न है जो कवि ने देखा है। उपरोक्त बिंदुओं में ही कथा को बुना गया है।
पर यह स्वप्न पहली बार ही नहीं देखा गया है। हमारी परंपरा में यह स्वप्न बार-बार देखा गया है। हर बार नए सिरे से इसकी आवश्यकता पड़ती है। हमारे इस दौर में भी है। अब विश्व का स्वरूप भिन्न हो गया है। इसलिए इसमें विश्व को समाहित करती भारतीय दृष्टि और प्रज्ञा की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कवि जहाँ पर खड़ा है, वहाँ से अपनी बात इसी तरह कर सकता है।
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मुझे यह भी बता देना जरूरी लगता है कि इस रचना में जितने भी चरित्र हैं और जो कई सारे संदर्भ हैं, उन्हें मुझे ढूँढ़ कर जानने की आवश्यकता पड़ी। कवि ने समग्र विश्व में फैले कई संदर्भों को इसमें शामिल किया है, जिन्हें हम नहीं जानते। पर इसकी भी एक परंपरा हिन्दी कविता में रही है। निराला के ‘कुकुरमुत्ता’, मुक्तिबोध के ‘अँधेरे में’ तथा ‘ब्रह्मराक्षस’ में, शमशेर के ‘अमन का राग’ में और नरेश मेहता के ‘समय देवता’ में भी ऐसे कई संदर्भ हैं जिन्हें जानने की आवश्यकता पड़ती है, काव्य को समझने के लिए। पर वे रचनाएं ऐसी हैं जिनमें उनको नजरअंदाज करके आगे बढ़ने की हमने सुविधाजनक आदत बना ली है। (इनको जाने बिना भी हम काव्यार्थ और तात्पर्यार्थ को समझने का दावा कर लेते हैं।) लेकिन इस काव्य में तो यही मुख्य पात्र और संदर्भ हैं। मुझे इसे पढ़ते हुए इसलिए भी आनंद आया कि मैंने इसके बहाने कई बातें जानीं। कवि ने स्वयं उपोद्घात और कथारंभ में इसके यथेष्ट संकेत दिए हैं। बहुत सारे नहीं भी हैं। लेकिन उन्हें जानना इसलिए जरूरी है क्योंकि इसके अभाव में हम काव्य में आगे नहीं बढ़ सकते।
ये सारे संदर्भ हमारी जानकारी को बेहद व्यापक बनाते हैं। यानी यह ज्ञान-काव्य है और विचार-काव्य भी है। कवि ने इसमें एक निरंतर चलनेवाली ज्ञान-परंपरा को रेखांकित किया है जिसके मूल में मन्वंतरों की हमारी भारतीय परिकल्पना से लेकर प्राचीन इतिहास के वैश्विक और वर्तमान संदर्भों को भी समेटा है। इसकी कथा पृथ्वी-पूर्व काल से संदर्भित होती चलती है। पर काव्य की वस्तु तो चीनी यात्री फाईहेन और हुएनसांग से आरंभ होती है। क्योंकि यहाँ बात तो ज्ञान परंपरा, पांडुलिपियों की खोज करने की है। ये पांडुलिपियाँ जो शनि ग्रह के चंद्रमा टीटेनम यानी तातनियम से सप्तऋषि बचाकर ले भागे थे उनमें लिखित जीवन के रहस्यों को खोजने की है। ज्ञान, काल की तरह किसी भी निर्माण के पूर्व से चला आ रहा है। उसका उद्घाटन समय-समय पर इस पृथ्वी-लोक के विभिन्न ज्ञानी करते आ रहे हैं।
प्रागैतिहासिक विवरण तो हमें कई इतिहास पुस्तकों में और अन्यत्र भी मिल जाते हैं। आनंद सिंह ने ऐसे विलक्षण संदर्भ दिए हैं जो इस बात की ओर दृढता से निर्देश करते हैं कि ऐसी रचना करना सामान्य बात नहीं है। कवि की अपनी पूरी तैयारी है। ‘साक्षात्कार’ का तो एक विशिष्ट क्षण ही होता है, परन्तु उस क्षण को निरंतर बनाए रखने के लिए कवि या साधक को श्रम करना पड़ता है। वरना जितने अचानक और औचक साक्षात्कार का वह क्षण जीवन में उपस्थित हुआ होता है, उतनी ही सहजता से वह स्मृति से विलीन भी हो जाता है।
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महागल्प के अंतर्गत कथारंभ की संरचना भी विशिष्ट है। कवि ने दो पात्रों की कल्पना की है। इतिहास किशोर और हिन्दी शिशु। इस रचना में समय की संकल्पित अवधारणा इतनी व्यापक है कि इतिहास के रूप को किशोर अवस्था में ही कल्पित किया जा सकता है। पहली बार जब पढ़ते हैं तब हिन्दी शिशु बड़ा अजब लगता है। अब यह जो कवि का कथ्य है, जिसे वह हमारे सामने लाना चाहता है, जो काव्य-वस्तु है, वह मूल रूप से तो हिंदी में नहीं है। जब यह लिखा गया था संस्कृत-पाली-प्राकृत काल में, तब हिंदी तो थी नहीं। और कवि प्राचीन ग्रंथों का अनुवाद भी तो नहीं कर रहा, वह तो रच रहा है। अपने समय के अथर्वा की भूमिका निभा रहा है। तो कवि हिन्दी शिशु की कल्पना करते हैं और अथर्वा आदि प्राचीन कवियों के साथ नई सृष्टि के निर्माण की प्रक्रिया में ‘एक भारतीय आत्मा’ को भी शामिल कर लेते हैं।
एक भारतीय आत्मा यानी माखनलाल चतुर्वेदी को इस रचना का एक पात्र बनाना अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। कवि ने उल्लेख किया है कि इसमें जहाँ से पांडुलिपियां मिली हैं उसमें मध्यप्रदेश भी है। पर बात इतनी भर नहीं है। माखनलाल चतुर्वेदी को ही क्यों चुना होगा? लेखक के कारण तो लेखक जाने। पर इसे पढ़ने के बाद मेरा अनुमान भिन्न है। राजभाषा संविधान संशोधक विधेयक पारित होने के कारण हिन्दी को जो नुकसान हुआ उसके विरोध में माखनलालजी ने अपना पद्मविभूषण लौटा दिया था। इससे भी आगे फिराक़ गोरखपुरी ने उनके बारे में कहा है कि उनके लेखों को पढ़ते समय ऐसा मालूम होता था जैसे आदि शक्ति शब्दों के रूप में अवतरित हो रही है या गंगा स्वर्ग से उतर रही है। यह शैली हिन्दी में ही नहीं, भारत की दूसरी भाषाओं में भी विरले ही लोगों को नसीब हुई होगी। इस रचना के संदर्भ में फिराक़ गोरखपुरी के इस विधान का महत्त्व है क्योंकि इस रचना में एक नए कविता-देश के निर्माण की बात है।
इतिहास किशोर है, अतः इस काव्य का कथा समय इतिहास में अवस्थित है। इसकी जानकारी तब होती है जब बाहर से आए यात्रियों ने अपने वर्णनों, विधानों में इसका उल्लेख किया। हमारे यहाँ इतिहास के आलेखनों के रूप में शिलालेखों और ताम्रपत्रों की परंपरा थी। पर पांडुलिपियों में जो कथा है, वह तो प्रागैतिहासिक है। यानी इतिहास के कवच में प्रागैतिहासिक काव्य-वस्तु। कवि ने यह भी स्पष्ट कर ही दिया है कि इस रचना के प्रेरणा स्रोत उन्हें कहाँ-कहाँ से मिले हैं। कथारंभ और कथा विराम के बीच पूरा काव्य बुना गया है। बाणभट्ट की आत्मकथा की तरह।
मुझे यह भी लगता है कि जैसे सूत्रधार होते हैं उसी तरह इतिहास किशोर और हिंदी शिशु कथा के आरंभ और अंत में आते हैं। बीच में भी आते हैं। गुजराती भवाई में जैसे रंगला-रंगली होते हैं। या आज की भूमि पर कहें तो ये दोनों पात्र एंकर की भूमिका निभाते हैं। ये दोनों एक नितांत अनजान विश्व या कहें खेल पर से पर्दा उठाते हैं, फिर गिराते हैं जो अनादि काल से इस सृष्टि में, ब्रह्मांड में अहो-रात्र मन्वंतरों से चलता चला आ रहा है। प्रेम, आकर्षण, संघर्ष, द्वंद्व का यह खेल जो शांति और करुणा में समारोपित होना चाहता है सदैव से।
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अंत में, कुल मिलाकर इस कृति का जो चित्र मेरे समक्ष बना है वह इस तरह है –
कवि ने इस रचना को इसलिए लिखा क्योंकि कवि के पास लिखने के सिवा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं था। यह ठीक वैसा ही प्रश्न है कि यह सृष्टि क्यों है? क्या इसका कोई अर्थ है? जीवन क्यों है, क्या उसका कोई उद्देश्य है? ऐसे कितने लोग हैं जिनके मन में इस तरह का प्रश्न भी उठता होगा? तो कवि के पास कोई विकल्प नहीं था। इसमें जो कवि को कहना है उसके लिए वे एक प्रकल्प रचते हैं। यह प्रकल्प कई स्तरों पर है। काल का स्तर, देश का स्तर और कथा का स्तर। इतिहास-पूर्व-इतिहास और भविष्य। ज्ञान-कथा और सौन्दर्य का स्तर। ज्ञान, जो वास्तव में परम सत्य है, वह इस सृष्टि में आदिकाल से अवस्थित है। ज्ञान तभी साक्षात्कृत हो सकता है जब उसके पास कोई स्वरूप हो, प्रारूप हो। ज्ञान की उपस्थिति उसके संकलन में है।
अतः कवि ने पुराण और इतिहास के सायुज्य से पात्रों की रचना की। इसमें मुख्य पात्र तो अथर्वा ही है। तो एक कथा-स्तर है अथर्वा का। सृष्टि विषयक ज्ञान और रहस्य जो हवाओं में फैला हुआ है, और जो पूरे विश्व में परिव्याप्त है। पर इसका उद्गम तो भारत भूमि ही है। यह तभी संभव है कि हवा में प्रसरा यह ज्ञान कहीं पर बद्ध और संकलित होना चाहिए। तो पांडुलिपियों की कल्पना। इतिहास गवाह है कि इसी भूमि पर ज्ञान खोजने यात्री आए थे। अब पांडुलिपियाँ छिपाई गई हैं, खो गई हैं, प्रतिलिपित हुई हैं आदि-आदि को ऐतिहासिक परिवेश में रखा गया है। इसीलिए सारे बद्ध संदर्भ सहज ही प्राप्य हैं। पांडुलिपियों में क्या है, यही काव्य-वस्तु है। इसी को अनेक रोचक प्रसंगों में बुन कर प्रत्येक अध्याय का गद्य देश बनता है। जो कविता देश है वह तो पांडुलिपियों के अनुवाद में है- हिंदी भाषा में। उसी में काव्य-सौन्दर्य है। यह सौन्दर्य खोजना पाठक का काम है।
पुस्तक – अथर्वा
लेखक- आनंद
प्रकाशक- नयी किताब, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32
मूल्य- 995 रु.