जमाखोरी छूट कानून
सरकारी नाम : आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020
असली काम : जमाखोरी और कालाबाजारी पर रोक-टोक बंद।
फायदा : अडानी,बड़े स्टॉकिस्ट, थोक व्यापारी व एक्सपोर्ट कंपनी को।
नुकसान : छोटे किसान को, गरीब उपभोक्ता को, मध्यम वर्ग को।
कानून का ब्योरा : इस कानून से 1955 के जमाखोरी रोकनेवाले कानून में संशोधन किया गया है। पहले जरूरत पड़ने पर सरकार खाद्य पदार्थों जैसे अनाज, दाल, तेल, बीज, आलू, प्याज आदि का एक हद से ज्यादा स्टॉक इकट्ठा करने पर पाबंदी लगा सकती थी। अब यह पाबंदी लगभग हटा दी गई है। सिर्फ प्राकृतिक आपदा आदि में पाबंदी लग सकती है, या अगर अनाज का दाम डेढ़ गुना और सब्जी का दुगुना हो जाए। एक्सपोर्ट करनेवालों पर कोई पाबंदी नहीं लग सकती।
सरकारी तर्क
बड़ी कंपनियां अब खुलकर वेयरहाउस और कोल्ड स्टोर बनाएंगी। खाद्य पदार्थों का भंडारण बढ़ेगा, बर्बादी घटेगी। व्यापारी ज्यादा कमाएगा तो किसानों को भी बेहतर भाव देगा। किसान की आय बढ़ेगी।
पूरा सच
व्यापारी तो ज्यादा कमाएगा, लेकिन मुनाफा अपने पास रखेगा। किसान को बेहतर भाव नहीं देगा। असीमित स्टॉक रखने वाला व्यापारी बाजार से खेलेगा। फसल आने से पहले भाव गिरा देगा और उपभोक्ता को बेचने से पहले दाम बढ़ा देगा। खाद्य पदार्थों की महंगाई पर अंकुश नहीं रहेगा। वेयरहाउस और कोल्ड स्टोर में पैसा लगाने से सरकार हाथ खींच लेगी। सुविधा वहां बनेगी जहां कंपनी को मुनाफा मिलेगा, वहां नहीं जहां किसान को जरूरत है। छोटे किसान को सबसे ज्यादा नुकसान होगा। नए नियमों के तहत सरकार को स्टॉक और बाजार की सूचना ही नहीं होगी। जरूरत पड़ने पर भी सरकार दखल नहीं दे पाएगी। व्यवहार में इस कानून को एकतरफा तरीके से लागू किया जाएगा। जब स्टॉक की लिमिट हटाने से किसान को फायदा हो सकता है तब नहीं हटाई जाएगी। इस साल आलू और प्याज में यही हुआ। लेकिन जब व्यापारी को फायदा होगा तब लिमिट हटा ली जाएगी। एक्सपोर्ट की छूट के नाम पर अडाणी जैसे व्यापारियों पर कभी भी लिमिट नहीं लग सकेगी। यह कानून आने से पहले ही अडाणी एग्रो लॉजिस्टिक कंपनी ने बड़े-बड़े गोदाम (साइलो) बनाने शुरू कर दिए थे। लॉकडाउन के समय कंपनी को हरियाणा सरकार ने सी एल यू की अनुमति दी थी असली खेल यही है।
मंडी बंदी कानून
सरकारी नाम : कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम 2020
असली काम : सरकारी मंडी को धीरे-धीरे खत्म करना, ताकि सरकारी खरीद के सरदर्द से बचा जा सके।
फायदा : प्राइवेट मंडी के मालिकों और उनके कमीशन एजेंट को।
नुकसान : सरकारी मंडी पर निर्भर किसानों और आढ़तियों को।
कानून का ब्योरा : अब तक किसान की फसल को व्यापारी सिर्फ सरकारी मंडी (एपीएमसी) में ही खरीद-बेच सकता था। अब सरकारी मंडी के बाहर कहीं भी व्यापार हो सकेगा। प्राइवेट मंडी भी खुल सकेगी। दोनों मंडियों पर दो अलग तरह के नियम-कानून लागू होंगे। सरकारी मंडी के बाहर होनेवाले व्यापार पर न तो कोई फीस या टैक्स लगेगा, न ही रजिस्ट्रेशन या रिकॉर्डिग होगी, न ही सरकार उसकी निगरानी करेगी।
सरकारी तर्क
किसान को पहली बार फसल जहां मर्जी बेचने की आजादी होगी। किसान को एक से ज्यादा विकल्प मिलेगा जिससे वह बाजार में बेहतर भाव वसूल कर सकेगा। किसान बिचौलियों के चंगुल से मुक्त हो जाएगा। प्राइवेट मंडी का मुकाबला होने से सरकारी मंडी में फीस घटेगी, कमीशन कम होगा, भ्रष्टाचार कम होगा।
पूरा सच
संविधान के अनुसार केंद्र सरकार कृषि व कृषि मंडियों पर कानून बना ही नहीं सकती, यह अधिकार सिर्फ राज्य सरकारों के पास है। व्यवहार में किसान को फसल जहां चाहे वहा बेचने की आजादी हमेशा रही है। आज भी 70 फीसदी फसल सरकारी मंडी के बाहर बिकती है। किसान को मंडी से आजादी नहीं चाहिए। उसे जितनी आज हैं उनसे ज्यादा व बेहतर मंडियां चाहिए जिनकी निगरानी अच्छे तरीके से हो। पहले एक-दो साल प्राइवेट मंडी में सरकारी मंडी से थोड़ा अधिक दाम दिया जाएगा। इससे सरकारी मंडी बैठ जाएगी। फिर प्राइवेट मंडी के व्यापारी किसान को मनमाने तरीके से लूटेंगे।
बिहार में 2006 में सरकारी मंडियां खत्म कर दी गई थी। आज बिहार के किसान को धान, मक्का, गेहूं का दाम बाकी देश से बहुत कम मिलता है। सरकारी मंडी के बाहर एक नहीं दो बिचौलिए होंगे। प्राइवेट मंडी खोलनेवाली कंपनी भी अपने एजेंट नियुक्त करेगी। वे भी अपना कमीशन लेंगे। ऊपर से प्राइवेट मंडी का मालिक भी अपना कट लेगा। सरकारी मंडी की फीस कम होने से सरकार के पास ग्रामीण इलाकों में सड़क और अन्य सुविधाएं बनाने के लिए पैसे नहीं बचेंगे। बिना लाइसेंस और रजिस्ट्रेशन के व्यापार करने की छूट का फायदा उठाकर नए व्यापारी किसान की फसल खरीदेंगे। पैसा देने के समय रातोंरात गायब हो जाएंगे।
बंधुआ किसान कानून
सरकारी नाम : कृषि (सशक्तीकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार आधिनियम, 2020
असली काम : बड़ी कंपनियों को सीलिंग के कानून से बचाकर उनके लिए बड़े पैमाने पर खेती का रास्ता साफ करना।
फायदा : रिलायंस जैसी बड़ी कंपनियों और वकीलों को।
नुकसान : अनपढ़ या भोले किसानों को।
कानून का ब्योरा : किसान और कंपनी पांच साल तक का कॉन्ट्रैक्ट कर सकेंगे। कॉन्ट्रैक्ट में पहले से लिख दिया जाएगा कि कंपनी किसान की कौन सी फसल, किस क्वालिटी की, कितने दाम पर खरीदेगी। अगर दोनों में विवाद होता है तो फैसला एसडीएम या कलेक्टर करेंगे।
सरकारी तर्क
किसान कॉन्टैक्ट तभी करेगा अगर उसे अपना फायदा दिखाई देगा। किसान और कंपनी दोनों भाव के उतार-चढाव के जोखिम से बचेंगे। कॉन्ट्रैक्ट के लिए किसान इकट्ठे होकर समूह बना लेंगे। इससे सहकारी खेती बढ़ेगी। सरकार कानून में संशोधन कर देगी ताकि कंपनी ज़मीन पर लोन ना ले सके, किसान की कुर्की ना हो सके।
पूरा सच
कॉन्ट्रैक्ट की कानूनी बारीकियां और पेच समझना किसान के बस की बात नहीं है। कंपनी के पास ज्यादा सूचना होगी, बेहतर वकील होंगे, ज्यादा ताकत होगी। इसलिए कॉन्ट्रैक्ट में किसान के ठगे जाने की आशंका है। अगर कंपनी को नुकसान होता दिखा तो वो कॉट्रैक्ट से हाथ झाड़ लेगी।
- पंजाब के किसानों के साथ यही हुआ। जब मंडी में आलू के दाम कॉन्ट्रैक्ट से ज्यादा मिल रहे थे तब तो कंपनी ने कॉन्ट्रैक्ट वाले रेट पर खरीदा। लेकिन जब दाम कम हो गए तो कंपनी ने आलू की क्वालिटी खराब होने का बहाना लगाकर हाथ झाड़ लिये।
- कॉन्ट्रैक्ट में किसान को न्यूनतम मूल्य की गारंटी नहीं है।
- कंपनी को अधिकार है कि वो किसान से अपना पूरा निवेश वसूले, चाहे किसान को अपना घर औरजमीन बेचनी पड़े।
- आमतौर पर कांट्रैक्ट महंगी फसलों का होता है जिसमें कंपनी के मुकरने पर किसान को भारी नुकसान होता है, जमीन बेचने की नौबत आ जाती है।
- सहकारी खेती को धक्का लगेगा, क्योंकि इस कानून में किसानों के संगठन और कंपनी को एक बराबर कर दिया गया है।
- कॉन्ट्रैक्ट के बहाने चोर दरवाजे से कंपनियां खेती की जमीन पर धीरे-धीरे कब्जा शुरू कर सकती हैं।
अपराधी किसान कानून
सरकारी नाम : राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और इससे जुड़े क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन के लिए आयोग अध्यादेश, 2020
असली काम : वायु प्रदूषण रोकने में सरकारों के निकम्मेपन से जनता का ध्यान हटा कर किसान पर दोष डाल देना।
फायदा : दिल्ली के अमीरों का, प्रदूषण कमीशन के इंस्पेक्टरों का।
नुकसान : दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश के किसानों का।
कानून का ब्योरा : दिल्ली और एनसीआर इलाके में वायु प्रदूषण को रोकने के लिए केंद्र सरकार ने एक कमीशन बनाया है। यह कमीशन दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में कहीं भी प्रदूषण कम करने के लिए कोई भी आदेश दे सकेगा। आदेश न मानने पर एक करोड़ रुपए तक का जुर्माना और पांच साल तक की सजा होगी। अपील सिर्फ एनजीटी में होगी।
सरकारी तर्क
दिल्ली और आसपास के इलाकों की हवा में भयानक प्रदूषण को कम करने के लिए सख्ती से किसानों द्वारा पराली जलाना रोकना पड़ेगा।
पूरा सच
वायु प्रदूषण के सबसे बड़े स्रोत उद्योग, वाहन व भवन निर्माण हैं, पराली का धुंआं नहीं। अगर किसान को पराली जलाने से रोकना है तो उसे नई मशीन देनी होगी, मुआवजा देना होगा। उस खर्चे के लिए सरकार तैयार नहीं है। इतनी कड़ी सजा देने की ताकत कमीशन को देने से दलाल व इंस्पेक्टर किसान को हमेशा परेशान करेंगे।
बिजली झटका कानून
सरकारी नाम : विद्युत अधिनियम (संशोधन) विधेयक, 2020
असली काम : बिजली के वितरण का धंधा प्राइवेट कंपनियों को सौंपना।
फायदा : बिजली वितरण के बिजनेस में घुसने को बेताब प्राइवेट कंपनियों को।
नुकसान : सस्ती बिजली पानेवाले किसान और शहरी गरीब को, सरकारी बिजली कंपनियों को।
कानून का ब्योरा : बिजली के बिजनेस में सबसे ज्यादा मुनाफा वितरण यानी ग्राहकों तक बिजली पहुंचाने के काम में है। यह प्रस्तावित कानून अभी संसद में पेश नहीं हुआ है, लेकिन अगर यह कानून बन गया तो बिजली वितरण में प्राइवेट कंपनियों के घुसने का रास्ता साफ हो जाएगा। साथ में उन्हें गरीबों, किसानों और गाँव को सस्ती बिजली देने की झंझट से मुक्ति मिल जाएगी। राज्य सरकारों पर पाबंदी लग जाएगी कि वो अपनी जेब से भी सस्ती या मुफ्त बिजली नहीं दे सकेंगी।
सरकारी तर्क : सरकारी बिजली बोर्ड और कंपनियों के घाटे और बिजली की चोरी को रोकने के लिए यह जरूरी है।
पूरा सच : यह राज्य सरकार का फैसला होना चाहिए, केंद्र सरकार का नहीं। इससे किसान का खर्चा और बढ़ेगा। गाँव-कस्बे और गरीब बस्तियों में बिजली की सप्लाई खराब होगी। कंपनियां सिर्फ वहीं ट्रांसफार्मर लगाएंगी और मरम्मत करेंगी जहां उन्हें मुनाफा हो। जहां पैसा होगा वहीं उजाला होगा।
एक कानून जो किसान चाहते हैं
एमएसपी गारंटी कानून
प्रस्तावित नाम : कृषि उत्पादों का न्यूनतम लाभकारी समर्थन मूल्य गारंटी विधेयक, 2021
असली काम : सरकार की ओर से किसान को कानूनी गारंटी देना कि उसे हर फसल का कम से कम एमएसपी के बराबर दाम मिलेगा।
फायदा : किसान, ग्रामीण समाज और देश की अर्थव्यवस्था को।
नुकसान : किसान को लूटनेवाले व्यापारियों और कंपनियों को।
प्रस्तावित कानून की जरूरत
पिछले पचास साल से केंद्र सरकार एक रस्म पूरी करती है। हर साल रबी और खरीफ की बुवाई से पहले मुख्य फसलों का “न्यूनतम समर्थन मूल्य” ( अंग्रेजी में मिनिमम सपोर्ट प्राइस या एमएसपी) घोषित करती है। इसके पीछे नीयत तो यह थी कि किसान को हर हालत में अपनी मेहनत का एक न्यूनतम लाभकारी दाम जरूर मिले। अगर बाजार में ना मिले तो सरकार दिलवाए। लेकिन वास्तव में यह घोषणा किसान के लिए एक मजाक बनकर रह गई है। एक तो सरकार जो एमएसपी घोषित करती है वो बहुत कम है। सरकार के अपने कमीशन (स्वामीनाथन आयोग) ने कहा था कि किसान को कम से कम फसल की पूरी लागत का डेढ़ गुना दाम मिलना चाहिए। उस सिफारिश को न कांग्रेस सरकार ने लागू किया, ना बीजेपी सरकार ने। दूसरी और सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि सरकार एमएसपी की घोषणा करके सो जाती है। सरकार इसकी कोई व्यवस्था नहीं करती कि किसान को कम से कम घोषित एमएसपी के बराबर मूल्य तो मिले। इसलिए किसान आंदोलन बहुत समय से मांग कर रहे हैं कि ऐसा कानून बने जिससे सरकार को स्वामीनाथन आयोग के हिसाब से एमएसपी घोषित करनी पड़े और जो एमएसपी घोषित हो किसान को कम से कम उतना दाम मिलने की गारंटी हो।
प्रस्तावित कानून का ब्योरा : एमएसपी की कानूनी गारंटी देने के लिए इस कानून में यह व्यवस्था होगी :
- एक स्वतंत्र और कानूनी दर्जा प्राप्त कमीशन बनेगा जो हर फसल की एमएसपी को तय करेगा। इसकी सिफारिश सरकार को माननी पड़ेगी।
- स्वामीनाथन आयोग के फार्मूले के हिसाब से एमएसपी कम से कम किसान की सम्पूर्ण लागत (सरकारी भाषा में सी2 लागत) की डेढ़ गुना होगी।
- सरकार द्वारा घोषित एमएसपी किसान को सचमुच मिले, गारंटी से मिले, इसके लिए सरकारी खरीद में गेहूं और धान के अलावा दाल, तिलहन और मोटे अनाज को भी शामिल किया जाएगा।
- बाकी फसलों में सरकार बाजार में चुनिंदा तौर पर दखल देगी, ताकि बाजार भाव एमएसपी से नीचे ना गिरे।
- विदेशों से आयात निर्यात नीति भी इसी उद्देश्य से बनेगी।
- अगर फसल एमएसपी से नीचे बिके तो सरकार किसान की भरपाई करेगी।
- मंडी में बोली एमएसपी से ही शुरू होगी।
ऐसे कानून के खिलाफ सरकारी तर्क
- सारी फसलें खरीदना सरकार के लिए संभव नहीं है। इस भंडार का सरकार क्या करेगी?
- किसान को एमएसपी दिलाने के लिए जितना पैसा चाहिए वह सरकार के पास नहीं है। सरकार का सारा बजट इसी में खर्च हो जाएगा।
- न्यूनतम रेट फिक्स कर देने से बाजार बिगड़ जाएगा। मांग आपूर्ति का संतुलन नहीं बचेगा। हमारे दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार से ज्यादा हो जाएंगे।
- गरीब के लिए रसोई का सामान महंगा हो जाएगा।
पूरा सच
- सरकार को सभी फसलें पूरी खरीदना जरूरी नहीं है। इस कानून में किसान को फसल का रेट दिलाने के कई और तरीके सुझाए गए हैं।
- अगर सरकार सचमुच चाहे तो बजट में पैसा निकल आएगा। वर्तमान एमएसपी दिलाने के लिए 50 हजार करोड़रु. खर्च होगा। स्वामीनाथन कमीशन के हिसाब से एमएसपी दिलाने के लिए लगभग 3 लाख करोड़ रु. खर्च होगा। केंद्र सरकार कुल बजट 34 लाख करोड़ रु. है।
- अगर बाजार व्यवस्था में उपभोक्ताओं के लिए एमआरपी फिक्स हो सकती है, मजदूर के लिए न्यूनतम मजदूरी तय हो सकती है, तो किसान के लिए एमएसपी क्यों नहीं?
- दुनिया भर की सरकारें अपने किसानों को विदेशी बाजार की मार से बचाने की नीतियां बनाती हैं, हम ऐसा क्यों न करें?
अगर बिचौलिए के मुनाफे पर लगाम लगाई जाय तो किसान को फसल का बेहतर दाम देने से महंगाई नहीं बढ़ेगी। गरीबों को सस्ता अनाज देना सरकार की जिम्मेवारी है, किसान की नहीं।