— राजू पाण्डेय —
यह स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना के बाद की दुनिया में श्रम का स्वरूप और श्रमिकों की स्थिति पूर्ववत नहीं रहेगी। जो परिवर्तन आएंगे उनका स्वरूप सकारात्मक कम और नकारात्मक अधिक होगा।
दरअसल इस दुनिया को कोरोना के बाद की दुनिया कहना भी शतप्रतिशत सही नहीं है। अब ऐसा लगने लगा है कि हमें एक लंबे समय तक कोरोना के साथ रहना होगा और इसके संक्रमण से बचने की युक्तियों का प्रयोग करते हुए अपने जीवन को पटरी पर लाना होगा। कोरोना से बचाव की हमारी यह कोशिशें हमारी आर्थिक गतिविधियों के स्वरूप में व्यापक और कई क्षेत्रों में तो आमूलचूल परिवर्तन ला रही हैं।
कोरोना मनुष्य से मनुष्य में फैलता है और जब एक स्थान पर मनुष्य अधिक संख्या में एकत्रित होंगे तो इसके प्रसार की आशंका अधिक होगी। यही कारण है कि नई कार्य संस्कृति तकनीकी के प्रयोग द्वारा एक ऐसी व्यवस्था बनाने की वकालत करती है जिसमें ह्यूमन इंटरफेज न्यूनतम हो। तकनीकी का प्रयोग धीरे धीरे मनुष्य की भूमिका को नगण्य और गौण बना देता है।
इस बार भी ऐसा ही होने वाला है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स के विकास के साथ ही उत्पादन, निर्माण, ट्रांसपोर्ट, पैकेजिंग, चिकित्सा और सेवा के क्षेत्र में मनुष्य की उपस्थिति की अनिवार्यता कम हुई है। अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने कारखानों में पूर्ण स्वचलन को बढ़ावा दिया है और भारी पैमानों पर श्रमिकों की छंटनी भी हुई है। कई बार उनके कार्य की प्रकृति बदली है और कार्य के घण्टे कम हुए हैं तदनुसार उनके वेतन में कटौती की गई है। उनकी नौकरी पर अनिश्चितता के बादल मंडराते रहे हैं और भविष्य की आशंकाएं उन्हें परेशान करती रही हैं। श्रमिकों को अब यह ध्यान रखना होगा कि कोरोना के आगमन के बाद बनने वाली कार्य संस्कृति में उनकी उपेक्षा न होने पाए।
कॉर्पोरेट जगत और उससे मित्रता रखने वाली विभिन्न देशों की सरकारें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, रोबोटिक्स आदि के प्रयोग द्वारा अनेक क्षेत्रों में कम्पलीट ऑटोमेशन लाने का प्रयास कभी मजदूरों की सुरक्षा का बहाना बनाकर तो कभी गुणवत्ता में सुधार का तर्क देकर करती रही हैं और इसमें वे कामयाब भी हुई हैं यद्यपि मजदूरों द्वारा किया जाने वाला प्रतिरोध पूर्ण स्वचलन के मार्ग में बाधक बना है। अब कोरोना ने हमारे सम्मुख मनुष्य रहित उत्पादन प्रणाली की स्थापना के पक्ष में मानव जाति की रक्षा जैसा प्रबल तर्क प्रस्तुत किया है जिसका आश्रय लेकर कॉरपोरेट कंपनियां श्रमिकों की भूमिका में अनावश्यक और अतिरिक्त कटौती कर सकती हैं।
भारत जैसे देश में ई कॉमर्स, डिजिटल बैंकिंग, ई लर्निंग, टेलीमेडिसिन आदि जैसे जैसे अपनी जड़ें जमाते जाएंगे वैसे वैसे कर्मचारियों की छंटनी और उनके वेतन भत्तों में कटौती के अवसर भी उत्पन्न होंगे। बहुत से कर्मचारी तो नवीन तकनीकी में दक्षता अर्जित न कर पाने के कारण अप्रासंगिक हो जाएंगे। कुछ कर्मचारियों की भूमिका इतनी सीमित, अस्थायी और अल्पकालिक हो जाएगी कि उन्हें अधिक वेतन पर स्थायी रूप से काम देना संभव नहीं होगा और वे जरूरत पड़ने पर याद किए जाने वाले पार्ट टाइमर का रूप ले लेंगे। तकनीकी के महत्व के बढ़ने का एक परिणाम यह होगा कि तकनीकी में दक्ष श्रमिकों और गैर तकनीकी श्रमिकों के मध्य की विभाजन रेखा अब और गहरी तथा स्पष्ट हो जाएगी तथा उनके जीवन स्तर एवं भविष्य की संभावनाओं में भी बड़ा अंतर देखा जाने लगेगा। तकनीकी रूप से कुशल श्रमिक बेहतर स्थिति में होते हुए भी निश्चिंत नहीं रह पाएंगे क्योंकि नए तकनीकी बदलावों के साथ अनुकूलन करने की शाश्वत चुनौती उनके सम्मुख बनी रहेगी। इन तकनीकी बदलावों से अनुकूलन करने में विफलता का अर्थ होगा – जॉब लॉस।
जब श्रम शक्ति सीमित होगी और महत्वहीन भूमिकाओं का निर्वाह करेगी तब स्वाभाविक है कि अधिकारों की उसकी मांग की उपेक्षा करने की प्रवृत्ति भी बढ़ेगी। आने वाले लंबे समय तक श्रमिकों को कोरोना के कारण उत्पन्न हुए आर्थिक आपातकाल का हवाला देकर बहुत कम वेतन पर कार्य करने हेतु विवश किया जा सकता है। राष्ट्र हित के लिए पूंजीपति अपने मुनाफे के साथ कितना समझौता करेंगे यह कह पाना तो कठिन है किंतु यह अवश्य कहा जा सकता है कि राष्ट्र के पुनर्निर्माण हेतु श्रमिकों की कुर्बानी अवश्य मांगी जाएगी और इसके लिए उन पर भावनात्मक दबाव भी बनाया जाएगा।
कोरोना के कारण टूरिज्म, ट्रेवल और हॉस्पिटैलिटी सेक्टर बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। करोड़ों रोजगार समाप्त हो गए हैं। कोरोना की मार ऑटोमोबाइल, ऑटो कंपोनेंट, एमएसएमई, कंज़्यूमर ड्यूरेबल्स, केपिटल गुड्स और स्टार्टअपस पर सर्वाधिक पड़ी है। एविएशन और आईटी सेक्टर का हाल भी बुरा है। इनमें वित्तीय अनुशासन और खर्चों में मितव्ययिता के नाम पर मानव संसाधन में जो कटौती की गई है उसका सबसे पहला प्रभाव कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स पर हुआ है। जिन सेक्टर्स की हम चर्चा कर रहे हैं उनमें कार्य करने वाले मजदूरों और कर्मचारियों की स्थिति पहले ही बहुत अच्छी नहीं थी। चाहे कार्य के घंटों की बात हो, कार्य की दशाओं का पैमाना हो, आर्थिक सुरक्षा की कसौटी हो या स्थायित्व का प्रश्न हो इनकी स्थिति पहले से ही चिंताजनक ही रही है। ठेकेदारी प्रथा आदि के प्रयोग द्वारा श्रम कानूनों की परिधि से ये बहुत चतुराईपूर्वक बाहर रखे गए हैं। इनमें से बहुत लोगों के साथ तो किसी प्रकार का लिखित अनुबंध भी नहीं किया जाता। यदि किया भी जाता है तो उसका पालन नहीं किया जाता। इनका अपने मालिकों के साथ विवशता का संबंध होता है, इन्हें रोजगार चाहिए होता है और मालिकों को कम पैसे में अधिक कार्य करने वाले मजदूर।
उदारवादी अर्थव्यवस्था की परिवर्तनशील रणनीतियों से हतप्रभ ट्रेड यूनियनें इनमें श्रमिक आंदोलन के संस्कार डालने में विफल रही हैं और वर्तमान मालिक के प्रति इनके असंतोष की अभिव्यक्ति चंद ज्यादा रुपए ऑफर करने वाले दूसरे मालिक की शरण में जाने की अवसरवादिता तक ही सीमित हो गई है। सरकारें इनसे कोई वास्ता नहीं रखना चाहतीं और यह मानती हैं कि इनकी समस्याओं का निपटारा करने में इनके मालिक सक्षम हैं। ट्रेड यूनियनें इन तक पहुंच पाने में नाकाम रही हैं। और यह स्वयं कॉरपोरेट संस्कृति की निर्मम स्वार्थपरता के इतने आदी हो गए हैं कि इनमें सामूहिक संघर्ष की प्रवृत्ति ही समाप्त हो गई है। यह डिमांड और सप्लाई के मंत्र को आधार मानने वाली आर्थिक व्यवस्था के नियमों पर इतना भरोसा करने लगे हैं कि इसमें निहित अमानवीयता और क्रूरता अब उन्हें खटकती नहीं।
कॉरपोरेट जगत हमेशा यह दम्भोक्ति करता रहा है कि हर संकट को वह अवसर में बदलने की कला में पारंगत है और हम इसे कोरोना का उपयोग भी अपने फायदे के लिए करता देख रहे हैं । कोरोना से बचाव के लिए आवश्यक सोशल डिस्टेन्सिंग को आधार बनाकर श्रमिकों की संख्या कम की जा रही है। जब कंपनियों को सीमित कर्मचारियों से शतप्रतिशत आउट पुट प्राप्त करना होगा तो वे योग्यतम कर्मचारियों का चयन करेंगी। सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट के सिद्धांत के साथ उन लोगों विनाश अपरिहार्य रूप से जुड़ा होता है जो श्रेष्ठता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। अब कंपनियों द्वारा स्वास्थ्यगत कारणों से श्रमिकों को आसानी से अयोग्य ठहराया जा सकता है। शासन कोविड-19 से मजदूरों के बचाव का उत्तरदायित्व कॉरपोरेट मालिकों पर डालेगा। पूर्व में भी हमने कार्य स्थल पर औद्योगिक सुरक्षा नियमों की आपराधिक अनदेखी के उदाहरण देखे हैं और अब भी इस बात की पूरी आशंका बनी रहेगी कि कोविड-19 से बचाव की सावधानियों को दरकिनार करते हुए श्रमिकों और कर्मचारियों से अमानवीय परिस्थिति में कार्य लिया जाता रहेगा। यदि वे कोविड-19 से संक्रमित हो जाएंगे तो इसे उनकी लापरवाही का नतीजा बता दिया जाएगा।
वर्क फ्रॉम होम जैसे जैसे लोकप्रिय होता जाएगा कर्मचारियों के एक स्थान पर एकत्रीकरण के अवसर घटते जाएंगे। इससे ट्रेड यूनियनों की संगठन शक्ति प्रभावित होगी और उन्हें विरोध प्रदर्शन के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का सहारा लेना होगा। ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में ट्रेड यूनियन आंदोलन से जुड़े बुद्धिजीवी अब साइबर पिकेटिंग की कल्पना करने लगे हैं जब लोग किसी सामान या सेवा के लिए भारी संख्या में प्री आर्डर करेंगे और इसके बाद आखिर में भुगतान करने से इनकार कर देंगे। अथवा कंपनी की वेबसाइट को भारी संख्या में आर्डर और पूछताछ द्वारा अवरुद्ध कर देंगे। बहरहाल यह भी सच है कि वर्क फ्रॉम होम कर्मचारियों को परिवार के साथ समय व्यतीत करने का अवसर प्रदान करेगा। इससे उन्हें मानसिक परितुष्टि भी मिलेगी और गृह कार्यों के लिए समय भी उपलब्ध होगा। इस कारण वह कम वेतन में भी कार्य करने को सहमत हो सकते हैं।
कोरोना काल में अनेक सेवाओं का महत्व बढ़ा है और इनमें कार्यरत श्रमिक वर्ग और कर्मचारियों के प्रशस्ति गान में सरकारें और आम जन कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं। अस्पतालों में कार्य करने वाले सफाई कर्मचारी और सपोर्ट स्टॉफ, लैब टेस्टिंग से संबंधित कर्मचारी, स्वच्छता उत्पादों के निर्माण में जुड़े श्रमिक, जल-विद्युत-सफाई आदि आवश्यक सेवाओं के सुचारू संचालन में लगे कर्मचारी, निर्धनों तक अन्न पहुंचाने में लगी श्रम शक्ति, अन्न उत्पादन में जुटे किसान, धन हस्तांतरण योजनाओं का लाभ लाखों जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाते बैंक एम्प्लॉयी, वेयर हाउसिंग से जुड़े तथा ऑन लाइन खरीदे गए सामानों की होम डिलीवरी करने वाले कर्मचारी, फ़ूड रिटेलर्स, इंटरनेट और ब्रॉड बैंड सेवा प्रदाताओं के कर्मचारी – यह सब इस कोरोना काल में अपने प्राणों की बाजी लगाकर कार्य कर रहे हैं। किन्तु क्या यह अपने बढ़े हुए महत्व के साथ कोई जायज मांग रखने की स्थिति में हैं? दुर्भाग्यवश इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है।
यदि यह श्रमिक और कर्मचारी अपने स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त साधनों की मांग करें या कोविड-19 के कारण अपनी मृत्यु के बाद परिजनों के लिए विशेष आर्थिक सुरक्षा की अपेक्षा करें अथवा बढ़े हुए वेतन भत्तों की डिमांड करें तो अधिकांश बार सरकार उनकी आवाज़ को अनसुना कर देगी। उन्हें राष्ट्र के प्रति उनके कर्त्तव्य का स्मरण दिलाया जाएगा और यह बताया जाएगा कि उनका बलिदान देश के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित होगा। आम जनता का एक बड़ा वर्ग भी इन्हें स्वार्थी एवं अवसरवादी ठहरा सकता है। इन श्रमिकों के विषय में यह धारणा भी बन सकती है कि राष्ट्र हित इनके लिए कोई मायने नहीं रखता। यह भी संभव है कि आवश्यक सेवा संरक्षण अधिनियम का प्रयोग कर इनके विरोध प्रदर्शन और हड़ताल पर रोक लगा दी जाए।
कोरोना की पहली लहर के दौरान लगाए गए आकस्मिक और अविचारित लॉक डाउन के बाद महानगरों और अन्य प्रमुख शहरों में असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले प्रवासी मजदूरों के सम्मुख आजीविका का भयानक संकट उत्पन्न हो गया था। यह प्रवासी श्रमिक शहरों को छोड़कर भीषण गर्मी में सड़कों पर पैदल चलकर अपने गृह ग्राम की ओर लौटे। प्रधानमंत्री समेत अनेक राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने यह दावा किया था कि अब इन श्रमिकों को पलायन नहीं करना पड़ेगा। अपने प्रदेश में ही अपने गांव और शहर के पास उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार उपलब्ध कराया जाएगा। महानगरों में उन्होंने जो स्किल्स अर्जित की हैं उनका उपयोग राज्य की तस्वीर बदलने के लिए किया जाएगा। स्वास्थ्य और राशन संबंधी योजनाओं की पोर्टेबिलिटी की भी बड़ी जोर शोर से चर्चा की गई थी।
किंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं थी। जिन राज्यों से श्रमिकों का पलायन होता है वे प्रायः लेबर सरप्लस स्टेट हैं। सरकारों की कोशिश कृषि क्षेत्र को निजीकरण की ओर ले जाने और कृषि से जुड़े वर्कफ़ोर्स को शहरों की धकेलने की रही है ताकि कारखानों को सस्ते मजदूर मिल सकें। विवादित कृषि कानूनों का भी मूल उद्देश्य यही है। श्रमिकों के सर्वाधिक पलायन वाले राज्यों में कृषि एक फायदे का सौदा तो बिलकुल नहीं है। इन श्रमिकों ने महानगरों में जिन कार्यों में कुशलता अर्जित की थी वे कार्य ग्रामों में उपलब्ध नहीं होने के कारण इनकी स्थिति एक अकुशल श्रमिक की भांति हो गई।
जब यह श्रमिक ग्रामों में वापस लौटे तो लेबर सरप्लस राज्यों में श्रमिकों की अधिकता के कारण उन्हें कम मजदूरी पर कार्य करने पर विवश होना पड़ा। नतीजा यह हुआ कि जैसे ही कोरोना की पहली लहर कमजोर हुई उन्हें पुनः महानगरों की ओर पलायन करना पड़ा जहां उन्हें फिर से धारावी जैसे स्लमों में निवास करना था और वैसी ही आर्थिक और स्वास्थ्यगत असुरक्षा के बीच कार्य करना था। एक वर्ष बाद जब कोरोना की दूसरी अधिक विनाशक लहर आई है तब श्रमिकों के पलायन के दृश्य पुनः उपस्थित हो रहे हैं। अंतर केवल इतना है अब हम इस घटनाक्रम के इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि इसे चर्चा के योग्य भी नहीं मानते।
( लेख का बाकी हिस्सा कल )