— मिताली चक्रवर्ती —
कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़न के लिए
दो गज ज़मीन भी ना मिली कु-ए-यार में।
ये पंक्तियाँ आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह जफ़र की हैं। उन्होंने तब कही थीं जब उन्हें औपनिवेशिक ब्रिटिश भारत में रंगून निर्वासित कर दिया गया था। इन पंक्तियों में उनकी यह पीड़ा गहराई से व्यक्त होती है कि उन्हें अपने प्रिय देश में कब्र के लिए भी जगह नहीं मिली। वे 1857 में हुए विद्रोह के प्रतीकात्मक नायक थे, और लाल किला के अंतिम बादशाह। वह मुग़ल शासक और हिंदू राजपूत राजकुमारी के पुत्र थे।
लाल किला की भूमिका हमेशा ही ऐतिहासिक रही है। इसने कई बार देश की दिशा को बदल दिया है। यहाँ पर की गई दमन की कार्रवाई ने बहादुर शाह ज़फ़र को बेदखल कर दिया तो 1945 में आजाद हिंद फौज के सैनिकों की दमनकारी सुनवाई ने राष्ट्रव्यापी असंतोष को जन्म दिया और अंततः उपनिवेशवाद से मुक्ति मिली। ऐतिहासिक रूप से लाल किला ने न सिर्फ मुगलों का स्वागत किया बल्कि 1911 में किंग जॉर्ज और क्वीन मेरी का भी स्वागत किया। इसके बाद प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू ने और उसके बाद कई नेताओं ने यहाँ से झंडा फहराया। सभी ने भारत की समन्वयवादी बहुसांस्कृतिक पहचान को मजबूत किया। इसका प्रतीकात्मक महत्त्व इतना ज्यादा है कि जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ‘दिल्ली’ चलो का नारा दिया तो अपनी सेना को लाल किला पहुँचने का ही संदेश दिया। उनके तीन सैनिकों को वहाँ फाँसी दी गई और इस फाँसी से उठी राष्ट्रवाद की लहर ने पूरे भारत में उथल-पुथल मचा दी और देश एक नए भारत की ओर बढ़ा।
मुझे याद है, बचपन में मैं न केवल लाल किला की प्राचीर से दिए गए भाषण को सुनती थी बल्कि वहाँ घूमने भी जाती थी। हाल के वर्षों में मैं दोबारा वहाँ गई। यह एक जीवंत इतिहास है, जो हमारे बच्चों को काफी-कुछ बताता है। वे देखते हैं कि कैसे इसके ठीक दाएं नदी बह रही है। कैसे इस किले ने दो सगे भाइयों- दारा शिकोह और औरंगजेब- को एकसाथ पाला-पोसा। एक ही परिवार के होते हुए भी उनके विचार एकदम भिन्न थे। किस चीज ने एक को सहिष्णु बनाया तो दूसरे को असहिष्णु? इतिहास यही सिखाता है। अवीक चंदा की किताब ‘दारा शिकोह : द मैन हू वुड बी किंग’ में राजकुमार दारा को एक इंसान के रूप में दिखाया गया है, सिर्फ आदर्श के रूप में नहीं। यदि राजा के रूप में औरंगजेब की नृशंसता को न दर्ज किया गया होता तो किताब दाराशिकोह के उपेक्षित सगे भाई के रूप में औरंगजेब के प्रति संवेदना जगाती। उसकी नृशंसता से एक असहिष्णु और क्रूर राजा के रूप में ही उसकी पहचान हुई। लेकिन किताब के अंत में हम एक और विस्मित करनेवाली बात को महसूस करते हैं। यदि उसका बौद्धिक उदार भाई दाराशिकोह, जिसे रूढ़िवादियों और उलेमाओं से चिढ़ थी, राजा बनता तो क्या वह अपने से भिन्न विचार रखनेवालों के प्रति सहिष्णु होता? क्या हम भिन्न विचार वालों की निंदा करते-करते स्वयं असहिष्णुता के जाल में नहीं फँस जाते हैं?
मैं जिस भारत में पली-बढ़ी और जिसे मैं दिल से प्यार करती हूँ, वह समन्वयवादी था, विविधता के रंगों से भरपूर था, न सिर्फ संस्कृति के मामले में बल्कि धर्म के मामले में भी। मेरे दिल का देश अनेक पुरस्कारों के विजेता रस्किन बांड की उन कहानियों से निर्मित हुआ था, जिनमें अच्छाई, हँसी-खुशी, सहिष्णुता, और मानवता के बहुरंगी चित्र थे।
मेरे एक कैथोलिक इटैलियन मित्र को इस बात का बड़ा आश्चर्य हुआ कि भारतीय कैथोलिक ने हिंदू से विवाह किया। उनके देश में इस बात की अनुमति नहीं है। मैंने उन्हें गर्व से बताया कि कैसे हम भारतीय अंतरधार्मिक विवाह में शामिल होते हैं और मेरे परिवार, परिचितों और मित्रों में ऐसे विवाह हुए हैं। यहाँ तक कि कई हिंदू और मुस्लिम परिवार ऐसे हैं, जिन्होंने अंतरधार्मिक विवाह करने के दशकों बाद भी एक दूसरे का धर्म परिवर्तन नहीं कराया। यही वह भारत है, जहाँ मैं लौटना चाहूँगी और ऐसे ही भारत के प्रति मेरे मन में गहरा सम्मान है। औपनिवेशिक घुसपैठ के दौरान दी गई आहुति से हमारे मन और चित्त में यह बात बहुत गहराई से बैठ जानी चाहिए कि हम सभी एक ही जाति के हैं। यदि हम एक दूसरे के प्रति असहिष्णु रहेंगे और नफरत की सवारी करेंगे तो हम अपनी ही संख्या कम करेंगे और अपने को ही नुकसान पहुँचाएंगे। हम सभी एक हैं।
विभिन्नता को इंद्रधनुष की तरह ही समझना चाहिए। जब हम रंगों को प्रदूषण फैलानेवाला समझेंगे, जैसे कि पानी में गिरे हुए तेल से उठते रंग को समझते हैं तो हम अपनी जाति के अस्तित्व को खतरे में डालेंगे। लेकिन जब हम अपने आपको श्वेत रंग की तरह से समझेंगे, जिससे अनेक रंग प्रस्फुटित होते हैं तो हमें अपनी विभिन्नताएं अपनी जिंदगी में नया रंग भरती हुई मालूम पड़ेंगी। नफरत, हिंसा और हत्या का कारण नहीं बनेंगी।
मानव जाति के रूप में यह सब हमारी साझी विरासत है। इसे हम प्रकृति और इतिहास से सीखते हैं। इतिहास एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, जिससे हम सीख सकते हैं कि हमको अतीत की किन गलतियों को नहीं दोहराना है, अतीत की बहुत-सी ऐसी दैदीप्यमान घटनाएं हैं, जिनसे हम बाधाओं को पार कर सकते हैं और नया करने की प्रेरणा ले सकते हैं। हमें अतीत को गरिमामंडित करते हुए वर्तमान की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। कोई भी देश केवल अतीत का गुणगान करने से महान नहीं बनता है।
मेरे लिए तो महानता इस बात में है कि विविधता के रंगों को पहचाना जाए और एक दूसरे के प्रति सहिष्णु रहा जाए, आपस में लड़ने की बजाय उन खतरों के खिलाफ संयुक्त रूप से व्यापक युद्ध छेड़ा जाय जो आज मनुष्यता के सिर पर मँडरा रहे हैं, जैसे पर्यावरण में परिवर्तन और महामारी। आज मनुष्य की उत्तरजीविता का युद्ध सामने है और इसके खिलाफ सभी सक्षम लोगों को एकजुट होकर लड़ना है। और यही वह आह्वान है, जिसे लाल किले की प्राचीर से किया जाना चाहिए और जिसे सारे समुद्रों को पार कर पूरी दुनिया के संसदों के गलियारों में गूँजना चाहिए।
‘जनता वीकली’ से साभार, अँगरेजी से अनुवाद – संजय गौतम