गैर-भाजपावाद की कामयाबी के लिए समाजवादी एकजुटता की जरूरत

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— सुनीलम —

त्रह मई 1934 को कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ था, आज से 87 वर्ष पहले। यदि कोरोना काल नहीं होता तो हम पटना में समाजवादी समागम में अवश्य मिलते लेकिन सोमवार को सभी कार्यक्रम ऑनलाइन करने की मजबूरी थी। मैं सुबह से कई बैठकों में शामिल हुआ।

सभी बैठकों में समाजवादियों की एकजुटता की जरूरत महसूस की गई। सभी ने एक स्वर में कहा कि जिस तरह डॉ लोहिया ने गैरकांग्रेसवाद की रणनीति बनाई थी आज उसी तरह गैर-भाजपावाद की रणनीति बनाने और उसपर काम करने की जरूरत है।

आजादी के आंदोलन में समाजवादियों की स्वर्णिम भूमिका जगजाहिर है जिसपर हर समाजवादी गर्व कर सकता है।
यह भी सभी जानते हैं कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से कांग्रेस शब्द हटाने का निर्णय आजादी मिलने के बाद समाजवादियों को तब लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था जब कांग्रेस के दक्षिणपंथियों ने समाजवादियों को कहा था कि या तो वे अपनी पृथक पहचान समाप्त कर दें या फिर पार्टी के बाहर चले जाएं। समाजवादी चाहते थे कि विपक्ष का स्थान कोई कट्टरवादी ताकत न ले। इसलिए उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी का गठन कर विपक्ष की भूमिका अदा करने का निर्णय लिया ताकि देश में लोकतंत्र को मजबूत बनाया जा सके।

यह वह समय था जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेता जयप्रकाश, लोहिया, आचार्य नरेंद्रदेव अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे। इसलिए समाजवादियों को उम्मीद थी कि 1952 के चुनाव में अच्छे नतीजे निकलेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पार्टी को 10.5 फीसदी वोट मिले, सीटें बहुत कम आई। हालांकि आचार्य कृपलानी जी, सुभाषवादियों और एमएन रॉयवादियों के मिलने से पार्टी काफी मजबूत हो गई थी।

केरल में पहली सरकार पट्टमथानुपिल्लै के नेतृत्व में बनी लेकिन सरकार द्वारा गोली चालन किए जाने पर डॉ लोहिया ने अपनी ही सरकार से इस्तीफा मांग लिया। पार्टी का विशेष अधिवेशन हुआ, डॉ लोहिया पार्टी से बाहर कर दिए गए। समाजवादियों के बीच यह प्रश्न आज भी बहस का विषय बना हुआ है कि यदि कांग्रेस के भीतर 17 मई 1934 को अंजुमन इस्लामिया हॉल में सौ समाजवादियों द्वारा बनी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी यदि कांग्रेस से अलग नहीं हुई होती तो आज समाजवादियों की देश में कितनी बड़ी ताकत होती?

यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि समाजवादियों को कांग्रेस में शामिल करने के लिए उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष पद देने तक की पेशकश की गई थी। यह सिलसिला आजादी के बाद भी चलता रहा, अशोक मेहता जैसे दिग्गज समाजवादी नेता कांग्रेस में गए। हालांकि डॉ राममनोहर लोहिया ने कांग्रेस को पछाड़ने के लिए गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति बनाई जो 9 राज्यों में संविद सरकारों के गठन तथा 1977 में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनाने में कामयाब रही। इसके बावजूद तमाम समाजवादियों का कांग्रेस के प्रति मोह बना रहा।

जब देश में समाजवादियों की चमक तथा चुनाव जीतने की क्षमता कमजोर पड़ने लगी तब बहुत-से समाजवादी कांग्रेस में चले गए। सोशलिस्ट पार्टी के गठन के बाद से ही पार्टी के टूटने और जुड़ने का सिलसिला चलता रहा। कहा जाने लगा कि समाजवादी दो साल साथ नहीं रह सकते और एक साल अलग नहीं रह सकते। आज भी देश में ऐसे बहुत-से समाजवादी हैं जो डॉ लोहिया की 12 अक्टूबर 1967 को मृत्यु होने के बाद भी आज तक उन्हें गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति देने के लिए कोस रहे हैं।

जेपी के आग्रह पर सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय क्रांति दल, जनसंघ और कांग्रेस (ओ) का विलय कर जनता पार्टी का गठन किया गया। जनता पार्टी को पूंजीपतियों और सांप्रदायिक ताकतों ने नहीं चलने दिया। मधु लिमये ने दोहरी सदस्यता का सवाल उठाया तथा जनसंघ और आरएसएस के कार्यकलापों पर अंकुश लगाने का प्रयास किया। जनता पार्टी के बिखरने के बाद यदि समाजवादियों ने सोशलिस्ट पार्टी बना ली होती तो आज समाजवादी आंदोलन मजबूत स्थिति में होता। समाजवादियों ने जनता पार्टी में शामिल गैर-भाजपाई ताकतों को एकजुट करने की कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हुए। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि समाजवादियों ने ही इंदिरा गांधी के आपातकाल को चुनौती दी थी।

ऑल इंडिया रेलवे मेंस फेडरेशन द्वारा जॉर्ज फर्नांडीज के नेतृत्व में रेल हड़ताल की गई थी। बिहार छात्र आंदोलन का नेतृत्व भी युवा समाजवादियों ने किया जिसकी कमान जेपी को सौंपी गई, जिनकी प्रेरणा से 23 जनवरी 1977 को
जनता पार्टी बनी। समाजवादी नेता राजनारायण की चुनाव याचिका पर ही इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को भ्रष्ट तरीके अपनाने का दोषी पाया था, उसी के बाद इमरजेंसी लगी। राजनारायण ने चुनाव में इंदिरा गांधी को हराया।

जनता पार्टी के बिखर जाने के बाद फिर एक बार समाजवादियों ने एकजुट होकर जनता पार्टी के प्रयोग को दोहराया, जनता दल का वीपी सिंह के नेतृत्व में गठन करके। उस सरकार को भी पूंजीपतियों और साम्प्रदायिक ताकतों ने नहीं चलने दिया। लेकिन जिस तरह जनता पार्टी का गठन कर समाजवादियों ने लोकतंत्र को बहाल और मजबूत किया था, उसी तरह जनता दल ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर डॉ लोहिया के ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ के नारे को मूर्त रूप दिया।

सोशलिस्ट पार्टी और डॉ लोहिया के विचार को पुनर्स्थापित करने के लिए मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी का गठन किया। तीन बार देश के सबसे बड़े राज्य में सरकार भी बनाई। पार्टी को उत्तर प्रदेश में चौथी बार मौका मिला तो अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने। बिहार में भी समाजवादियों ने लालू यादव के नेतृत्व में भाजपा को रोके रखा। आडवाणी की रथयात्रा को रोकने का साहस दिखाया।

नीतीश कुमार पहले एनडीए में रहे फिर लालू यादव के साथ मिलकर फिर से मुख्यमंत्री बन गए। जनता ने उन्हें भाजपा के खिलाफ जिताया था लेकिन वे राजद का साथ छोड़कर एनडीए में चले गए। इस बार के चुनाव में बिहार की जनता ने तेजस्वी यादव के नेतृत्व को स्वीकार किया लेकिन भाजपा और चुनाव आयोग की मिलीजुली तिकड़म से नीतीश कुमार फिर मुख्यमंत्री बन गए। हाल ही में उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों में समाजवादी पार्टी फिर एक नंबर पर आ गई है।

यह कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजवादी चुनाव हारें या जीतें लेकिन उनकी बड़ी ताकत आज भी है। यहां यह उल्लेख करना भी आवश्यक है कि भाजपा पर रोक लगाने का काम कम से कम यूपी और बिहार में समाजवादियों ने किया है और कांग्रेस पार्टी हर समय इस प्रयास में अड़ंगेबाजी करती आई है।

यह सही है कि समाजवादी आंदोलन के 86 वर्ष पूरे होने के समय देश के स्तर पर समाजवादी की कोई बड़ी राजनीतिक पार्टी नहीं है लेकिन यह भी तथ्य है कि केंद्रीय स्तर पर कोई भी गैर-भाजपाई विकल्प समाजवादियों के बिना बनाया जाना संभव नहीं है। समाजवादियों के लिए यह फख्र का विषय होना चाहिए। उन्हें बिहार, उत्तर प्रदेश सहित देश भर में अल्पसंख्यकों, गरीबों, महिलाओं, पिछड़े वर्गों के हितैषी समूह के तौर पर देखा जाता है। कोई कितना भी समाजवादियों का विरोधी हो लेकिन वह समाजवादियों की आजादी के आंदोलन विशेष तौर पर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में गौरवशाली भूमिका को न तो झुठला सकता है, न ही नकार सकता है। 97 वर्ष के डॉ जीजी पारिख जी आज भी सशरीर हमारे बीच मौजूद हैं। वे यूसुफ मेहर अली सेंटर, समाजवादी समागम तथा हम समाजवादी संस्थाएं की सरपरस्ती कर रहे हैं। इसी तरह आजादी मिलने के बाद से इमरजेंसी तक समाजवादियों ने विपक्ष की राजनीति को अपने संघर्षों से धार देने का काम किया है।

जनता पार्टी के बिखराव के बाद से अब तक समाजवादी अलग-अलग क्षेत्रों में डॉ लोहिया के जेल, वोट और फावड़ा के सूत्र को लेकर समाज और देश के पुनर्निर्माण के काम में लगे दिखाई देते हैं। समाजवादियों ने पूर्वोत्तर, कश्मीर, बर्मा, तिब्बत, फिलिस्तीन आदि के सवालों को कभी नजर से ओझल नहीं होने दिया है। जेपी के द्वारा गठित हिंद मजदूर सभा (एचएमएस) आज भी 92 लाख की भारी-भरकम सदस्यता के साथ केंद्रीय श्रमिक संगठनों में एक अहम श्रमिक संगठन बना हुआ है। राष्ट्र सेवा दल आज भी, 75 वर्ष पूरे होने के बाद भी, छात्र-छात्राओं और युवाओं के बीच सक्रिय है। आजादी के पहले से चल रही ‘जनता वीकली’ आज भी प्रकाशित हो रही है। देश के जन आंदोलनों में लोकतांत्रिक समाजवादी विचार के साथी आज भी अपना स्थान बनाए हुए हैं।

समाजवादी विचार के इन सभी दलों, संगठनों, व्यक्तियों, संस्थाओं को एक संगठनात्मक स्वरूप के साथ आगे बढ़ने की जरूरत है। देश ‘हम दो हमारे दो’ से मुक्ति के लिए बेचैन है। जरूरत केवल इन चार के खिलाफ बिखरी ताकतों को एकजुट करने की है। वोट की दृष्टि से भी विकल्प दिया जा सकता है।

विगत 172 दिनों से चल रहे किसान आंदोलन ने देश में यह परिस्थिति बना दी है कि लोग इन चारों से मुक्ति का रास्ता तलाशने के लिए आगे बढ़ रहे हैं। हाल ही में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल के नतीजे यही बताते हैं। किसान आंदोलन ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा को हराने के लिए पूरी ताकत झोंकने की घोषणा कर दी है जिससे मोदी सरकार की विदाई की संभावना प्रबल हो गई है। समाजवादी उत्तर प्रदेश में इसका नेतृत्व करेंगे यह भी स्पष्ट दिखाई देने लगा है।

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