— अरविन्द मोहन —
कोरोना ने त्राहिमाम मचा रखा है। कमजोर और गरीब लोग ही नहीँ, देश छोड़कर विदेश चले जाने की हैसियत रखनेवाले गिनती के साधन-सम्पन्न लोगोँ को छोड़कर, सभी त्राहिमाम कर रहे हैँ। और मौत तथा बीमारी (और उससे शरीर को भारी नुकसान) से शायद ही कोई घर बचा हो। और यह भी माना जा रहा है कि आज न कल सबको करोना की कम या ज्यादा मार झेलना ही होगी। सरकार कहीँ है, विकास और विश्व की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना कहीँ है, इसका पता नहीँ है। और लोग अपनोँ के शव गंगा और नदियोँ मेँ बहाने, भगवान भरोसे छोड़ने, इलाज के नाम पर पैरासिटामोल जैसी दवाएँ फांकने के अलावा बस ईश्वर को याद कर रहे हैँ।
अगर कुछ बचा है या बच रहा है तो वह समाज के ही कुछ दिलेर और समर्पित हिस्से की सेवा भावना, निष्ठा और जान जोखिम मेँ डालकर दिन-रात कोविड मरीजोँ की सेवा करने से। इसमेँ सरकारी स्वास्थ्य सेवाओँ के लोग भी हैँ, निजी क्षेत्र के लोग भी और बिना डाक्टरी जाने सेवा मेँ समर्पित लोग भी। बहुत देर से सही, मीडिया जैसे कई क्षेत्रों के लोगोँ की नींद खुली है और वे भी शोर तो मचाने ही लगे हैँ, भले उससे खौफ ही ज्यादा फैला हो।
पर सरकार, उसके बड़बोले दावे, उसके आंकड़े, उसका निश्चय और उसकी मंशा, सब कुछ बेमानी हो गया है। और अब संघ परिवार और भाजपा के प्रचार विभाग से जो सामग्री सार्वजनिक की जा रही है वह जले पर नमक की तरह लग रही है। मंत्री यह तो कह रहे हैँ कि काम न हो पाने पर क्या फाँसी लगा लें लेकिन किसी में इतनी भी शर्म नहीं बची है कि असफलता स्वीकार करने के बाद पद छोड़ दें। पर जाहिर तौर पर इसकी शुरुआत नरेन्द्र मोदी से होनी चाहिए क्योंकि सबसे बड़े ‘डिजास्टर’ तो वे ही साबित हुए हैँ। चुनाव पूर्व के ही नहीं, कोरोना की पहली लहर के कमजोर पड़ने के बाद तक वे जो दावे करते रहे हैं उसमें बीमारी से ज्यादा लोगों का आक्सीजन की कमी से मरना, श्मशानोँ पर अंतिम संस्कार के लिए टोकन लेकर घंटों इंतजार करना, श्मशान बढ़ाने, कफन की चोरी से लेकर लाशों का अंतिम संस्कर न कर पाने की सूरत में उन्हें नदियों में प्रवाहित करने की स्थिति में चुल्लू भर पानी में डूबने से ही काम चलेगा। लकड़ियाँ कम पड़ना और लकड़ी/कफन के भी पैसे न होने की स्थिति विश्वगुरु और पांचवीं महाशक्ति के दावे को कहाँ खड़ा करती है यह भक्तों के अलावा सबको समझ आ गया है।
लेकिन मोदी सरकार सिर्फ फेल नहीं हुई है, यह महामारी को ऐसा खौफनाक स्वरूप देने और उससे हजारों लोगों की जान लेने की दोषी भी है। महामारी अपने हिसाब से आई, उसने सँभलने का पर्याप्त समय दिया लेकिन पिछली बार ट्रम्प के स्वागत से लेकर ताली-थाली बजवाने जैसे कई अन्य कामों से और असमय लाकडाउन लगाकर मोदी ने देश का भारी नुकसान किया-खासकर करोड़ों प्रवासी मजदूरों का, जिनकी चिंता सरकार को थी भी यह कहना मुश्किल है। उसके बाद जब बीमारी ने थोड़ी राहत दी तब मन्दिर का शिलान्यास (वह भी अधिमास में जब सामान्य हिन्दू कोई शुभ काम नहीँ करता), अपने लिए हजारों करोड़ के दो विशेष विमान खरीदने और दिल्ली की छाती पर मूंग दलने की तरह नया प्रधानमंत्री निवास समेत सेंट्रल विस्टा के निर्माण पर हजारों करोड़ का खर्च किया गया। बजट में टीकाकरण के नाम पर 35,000 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया पर टीकोँ के विकास पर एक पैसा खर्च नहीं हुआ और निजी कम्पनियों द्वारा किए गए आविष्कार पर अपनी तस्वीर लगवाकर दुनिया को कोविड से बचने की राह दिखाने का दावा किया गया। पर बात उससे भी नहीं बिगड़ी।
बंगाल जीतने का भूत ऐसा सवार हुआ कि वहाँ आठ चरण का चुनाव करवाने से लेकर कोई धूर्तता नहीं छोड़ी गई। लगभग पांच लाख बाहरी लोगों के साथ बंगाल का चुनावी अभियान तब तक चलता रहा जब तक देश में और बंगाल में भी कोरोना से त्राहिमाम नहीं मच गया। और इस काम के अगुआ खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो थे ही, गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा अंत तक खुद बिना मास्क प्रचार करते रहे। बाद के चरण खत्म करके एकसाथ चुनाव कराने या चुनाव टालने की बात पर कोई सुनवाई नहीं हुई। चुनाव ने महामारी को केरल, तमिलनाडु, पुदुच्चेरी और असम में भी काफी फैलाया। और जब पांच राज्य बीमारी फैलाने का अभियान ही चलाते रहे तो बाकी कहाँ बचते।
पर सबसे ज्यादा घातक तो उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव साबित हुए जिनकी चर्चा बंगाल की तरह नहीँ हुई लेकिन जिसने बीमारी को गांव गांव तक पहुंचा दिया। सिर्फ स्वास्थ्य साधनों की ही किल्लत नहीं, हर तरह के संसाधनों के अभाव वाले इस इलाके में कितने संक्रमित हुए,कितने बीमार और कितने मरे इसका कोई हिसाब नहीं है और गंगा समेत नदियों में लाशें बहाने की सबसे ज्यादा घटनाएँ यहीं हुईं। लगभग इसी तरह की जिद से कुम्भ भी आखिर तक चलाया गया और आईपीएल भी। कुम्भ भी कोरोना फैलाने वाला आयोजन ही बन गया।
कोरोना की पहली लहर में हमसे ज्यादा बुरी हालत वाले अमरीका और यूरोप के देशों ने जिस तेजी से अपनी स्थिति ठीक की और तेज टीकाकरण से अपने लोगों को सुरक्षित किया उससे हमारे प्रधान सेवक कुछ भी सबक नहीं सीख पाए। शायद सीखना उनको आता नहीं। वे उलटे 95 देशों को टीका निर्यात करके नाम कमाने का अवसर बना रहे थे। प्राणरक्षक रेमडेसिवर दवा से लेकर कुनैन तक का निर्यात करके दुनिया को कोविड प्रबन्धन का गुर सिखाने का दावा कर रहे थे। और खुद अपने यहाँ आक्सीजन बनाने का ठेका ऐसी कम्पनी को पकड़ा रहे थे जो पांच-सात फीसदी काम भी नहीं कर पाई। अस्पतालों के अन्य इंतजाम ठीक करने, दवा और इलाज के प्रबन्धन में दिखी कमजोरियों को दुरुस्त करने की जगह उनका सारा ध्यान कभी हैदराबाद नगर निगम चुनाव पर तो कभी बंगाल मेँ विपक्षी नेताओं को तोड़ने में लगा रहा। इसलिए जैसे ही महामारी पलटकर आई तो सिर्फ अस्पताल और आयुष्मान योजना (या केजरीवाल के मोहल्ला क्लीनिक) की ही पोल न खुली, दवाओं और स्वास्थ्य सुविधाओँ की कालाबाजारी और जमाखोरी शुरू हो गई।
हद तो तब हो गई जब लाश से कफन की चोरी और दोबारा बिक्री शुरू हो गई। एम्बुलेंस की कमी, बेड की कमी, आक्सीजन की कमी, वेंटिलेटर की कमी, जरूरी दवाओं की कमी और इन सबमें शुरू हुई लूट को रोकने की कोई व्यवस्था कहीं नहीं दिखी। बल्कि कई बार जो कुछ दिखा वह सरकार द्वारा आपदा में अवसर देखने का प्रमाण लगा। पहली लहर में मुफ्त राशन का चुनावी लाभ लिया गया तो कम्पनियों के साथ सरकार ने भी कमाई का कोई अवसर नहीं गंवाया। दवा और स्वास्थ्य सेवाओं पर कर वसूली अब भी जारी है। और जब खुद प्रधानमंत्री ने वैक्सीन के टीके की कीमत के मामले में दखल दिया तो उनकी कीमत दो से पांच गुना तक बढ़ गई। अब इसे अमीर चुकाएंगे या गरीब लेकिन कीमत तो कम्पनियोँ की जेब में जाएगी या उसका कुछ हिस्सा सरकारी खजाने में।
प्रबन्धन का हाल यह रहा कि कौन राज्य क्या कीमत चुकाए और क्या कोटा पाए इसका झगड़ा अब भी जारी है। और महान प्रधान सेवक खुद इतने आतंकित हैं कि अब न तो लाकडाउन पर कोई केन्द्रीय निर्णय लेना चाहते हैं न वैक्सीन और दवा या आक्सीजन के कोटे पर। कुछ चीजें अदालतें तय करा रही हैं कुछ राज्य सरकारें। और हालत यह है कि कहीं दूसरे राज्य के लोगों के पहचानपत्र उन्हें टीका से रोक रहे हैं तो कहीं मुर्दों के प्रदेश प्रवेश पर रोक लग रही है। काशी में अंतिम संस्कार की परम्परा हजारों साल पुरानी है और उसे उस मोदी-योगी राज में खत्म किया गया है जो खुद को हिन्दुत्व का ठेकेदार कहता है।
यह लिखते समय तक लग रहा है कि महामारी का दूसरा दौर शीर्ष पर आकर नीचे उतरने लगा है। पर दक्षिण के पांचों राज्यों और बंगाल, असम, ओड़िशा से लेकर उत्तर प्रदेश में अब भी जो स्थिति है उसे कहीं से ढलान नहीं कह सकते। दुखद यह है कि जिस तीसरी लहर का अंदेशा जताया जाने लगा है उसे रोकने की कोई तैयारी नहीं दिखती- खासकर टीकाकरण अभियान के सहारे। बल्कि जो बात भारत और अफ्रीकी देश अमरीका और यूरोप के विकसित देशों से पेटेंट के बारे में कह रहे हैं वह अपने यहाँ भी लागू करने की तैयारी नहीं दिखती। जरूरी दवाओं और टीकों का उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्हें पेटेंट से मुक्त करके सभी सक्षम कम्पनियों को बनाने की इजाजत देना एक तरीका है। दूसरी चीज टीके और दवाओं के निर्यात पर तत्काल रोक लगाना, जो अभी भी जारी है। फिर जिसे जरूरत नहीं है उसे ज्यादा आक्सीजन देना और जरूरत वाले को कम देना या आक्सीजन सिलेंडर बनानेवाले इलाके को लाकडाउन में डालने जैसी चूकें अब भी जारी हैं।
सारा प्रबंधन नौकरशाहों के जिम्मे सौंपकर राजनैतिक नेतृत्व जाने कहाँ छुप गया है। मोदी जी तो वर्चुअल मीटिंग के नाम पर कभी दिखते भी हैं, नए लौहपुरुष अमित शाह और दूसरे मंत्री ही नहीं, सांसद और विधायक भी गायब हैं। पूरी सरकार ही लापता दिखती है। पर अच्छी बात यह हुई है कि लोग सचेत हुए हैं। एक दूसरे की मदद के लिए आगे बढ़े हैं। विपक्ष पहली बार एकजुट हमले करने लगा है। वह कई रचनात्मक सुझाव लेकर भी आया है।
पर दूसरे पक्ष में सुधार नहीं दिखता। वह एक तरफ तो जिम्मेवारियों से मुँह छुपा रहा है तो दूसरी तरफ शरारतों से बाज नहीं आ रहा है। अब भी बंगाल का मुद्दा, विपक्ष शासित राज्यों की ही गलतियों और कमजोरियों को उजागर करने, मोदी के गुणगान का खेल तो खेल ही रहा है, श्मशान की तस्वीर से लेकर सेंट्रल विस्टा के निर्माण स्थल की तस्वीर पर रोक लगा रहा है। वह हजारों करोड़ की इस योजना को युद्ध स्तर पर चला रहा है। और जब इसी बीच कैबिनेट बैठी तो उसने आईडीबीआई बैंक बेचने जैसा फैसला ही किया जिसका महामारी से क्या रिश्ता है यह समझना मुश्किल है। उसे शेयर बाजार न गिरने देने की चिंता है, आईपीएल के बाकी मैच विदेश में कराने की चिंता है।