यह सोचना कठिन है कि कोरोना प्रकोप जो कहर ढा रहा है उसने सत्ताधारियों की नींद हराम कर दी है। उनकी ओर से जो कार्रवाइयां हो रही हैं उनमें पहले की सी संकीर्णता, अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर ठेलने की वृत्ति, क्रूरता और असंवेदनशीलता बरकरार है। जैसे-जैसे ब्योरे सामने आ रहे हैं, वैसे-वैसे यह स्पष्ट हो रहा है कि कोरोना-विजय के झूठे अहंकार और सत्ता सर्वज्ञता के छद्म ने वे सारी चेतावनियां अनदेखी कर दीं जो इस नयी लहर के बारे में विशेषज्ञ दे रहे थे। स्वयं संसद की सलाहकार समिति की विस्तृत रिपोर्ट थी जिसे सरकार ने अनदेखा किया। जिस देश में आक्सीजन का उत्पादन हमारी आवश्यकता से कहीं अधिक था, वहां लोग आक्सीजन के अभाव में रोज बड़ी संख्या में मर रहे हैं।
पिछले दिनों हम पास के निजी अस्पताल में वैक्सीन की दूसरी डोज लेने गए। उसके पिछले दिन वैक्सीन की सप्लाई नहीं हुई थी। उस दिन वह देर से आयी। हम जिस समय गये, आमतौर पर भीड़ नहीं होती पर कल वैक्सीन के आने में देरी से हर चीज में देरी हुई। हमने दो घंटे इंतजार किया। फिर जब नंबर आया तो पता चला कि सरकारी पोर्टल काम नहीं कर रहा है। उसे गति पकड़ने में आधा घंटा लगा। हमने जब अस्पताल साढ़े पांच बजे छोड़ा तो तीसेक लोग तब भी इंतजार कर रहे थे। घर लौटने के कुछ ही समय बाद पत्नी रश्मि की बड़ी बहन उर्मि जी के, लंबी बीमारी के बाद, अस्पताल में देहावसान की खबर आयी। उनका अंतिम संस्कार बहुत विलंब से हो पाया। एक बार तो श्मशान से घर लौटना पड़ा। सैकड़ों ऐसे चित्र आ रहे हैं जिनमें शव रास्तों के किनारे पड़े हैं और उन्हें चिता के लिए जगह मिलने, अपनी बारी आने का इंतजार है। ऐसी स्थिति, जिसमें मृत्यु के बाद भी देह का अपमान इतने बड़े पैमाने पर हो, हृदयविदारक है। पूरी राजव्यवस्था असहाय, साधारण लोग दारुण स्थिति में और मीडिया सत्ता के साथ अपने झूठ में आश्वस्त नजर आ रहा है। भारत के साधारण नागरिक का जीवन में और मृत्यु के बाद भी ऐसा अभद्र अपमान अविस्मरणीय है। लोकतंत्र में राजनीति इतनी ओछी और अभद्र पहले कभी नहीं हुई थी। मनुष्यता, लग रहा है, अपने ध्रुवांत पर पहुंच गयी है।
ऐसे अभागे समय में, फिर भी कुछ व्यक्ति, कुछ संस्थाएं, कुछ धार्मिक हदारे, कुछ सजग नागरिक हैं जो लोगों की मदद और राहत के लिए सामने आये हैं। वे किसी एक धर्म, एक वर्ण, एक संप्रदाय या विचार के लोग नहीं हैं। उनमें सभी तरह के लोग शामिल हैं। उनके प्रति हम सभी को गहरे में कृतज्ञ होना चाहिए कि वे वह सब कर रहे हैं जो सत्ताएं और राजनीति करने में विफल रही हैं। इस समय के मुंह पर जो कालिख पुती है उसमें इनके नाम और काम सुनहरे अक्षरों में लिखे और दमकते रहेंगे। हम इन्हीं का उदाहरण देकर कहेंगे कि ऐसे काले समय में भारतीय मनुष्यता मरी नहीं थी और इन उजली शबीहों में जीवित और सक्रिय थी। हममें से कौन बचेगा यह कहना मुश्किल है। पर जो बचेंगे वे इन काले दिनों की तथा-कथा जब कहेंगे तो इन सबका जिक्र करना भी नहीं भूलेंगे। इन्हें भूलना अनैतिक होगा।
जो है सो
जो हत्यारा है उसे हत्यारा कहा जायेगा। जो हिंसक और दंगाई है उसे हिंसक और दंगाई कहा जायेगा। जो अश्लील और अभद्र है उसे अश्लील और अभद्र कहा जायेगा। जो संकीर्ण है उसे संकीर्ण कहा जायेगा। जो अज्ञानी है उसे अज्ञानी कहा जायेगा। जो डंके की चोट पर झूठा है, उसे डंके की चोट पर झूठा कहा जायेगा। जो कायर है उसे कायर कहा जायेगा।
जो मददगार है उसे मददगार कहा जायेगा। जो साहसी है उसे साहसी कहा जायेगा। जो सच बोलता है, वही सच बोलने वाला कहा जायेगा। जो संस्कारी है, उसे संस्कारी कहा जायेगा। जो राहत देगा उसे राहत देनेवाला कहा जायेगा। जो भेदभाव से ऊपर रहेगा, उसे निष्पक्ष कहा जायेगा।
यह एक दिवास्वप्न है कि ऐसा होगा। जो यह मानता है कि सच वही होता है जिसका पहले सपना देखा गया हो, जैसे कि मैं, उसे यह दिवास्वप्न कल का सच लगता है। देर-सबेर ऐसा होकर रहेगा। हम कितने ही अधम और नीचे गिर गये हों, हम वापस, हर हालत में, सचाई पर लौटेंगे ही। इस होने को होने से रोकने के लिए कई शक्तियां सदल-बल सक्रिय हैं और उनकी व्याप्ति और प्रभाव बहुत विस्तृत है। बहुसंख्यक लोग, ऐसा लगता है, झूठ में भरोसा करने लग गये हैं और सच कम लोगों को मिल पा रहा है। लेकिन झूठ के राज का खोखलापन भी अब आम लोगों के सामने जाहिर हो रहा है। जिस मरणान्तक हाहाकार से अब हम हर रोज घिरे हैं उसकी जिम्मेदारी तय करने से साधारण लोग भी बहुत देर बच नहीं सकते। उन्हें समझ में आयेगा ही कि हमारे साथ कितना छल किया गया है और हम ऐसी हालत में पहुंच गये हैं कि जीना और मरना दोनों मुश्किल हो गये हैं। जीने के लिए, बीमारी की दशा में जो तेजी से फैल रही है।
आक्सीजन की कमी है और मर जायें तो अंतिम संस्कार के लिए श्मशान या कब्रिस्तान में जगह नहीं है। साधारण और साधनहीन लोगों की जान के साथ भयानक खिलवाड़ हो रहा है। इस सचाई से हम कब तक अपने को अनभिज्ञ या असूचित रखेंगे। यह हमारी अनिवार्य नश्वरता का मुकाम नहीं है। यह हम पर पूरी निर्ममता से लादी गई मृत्यु है जिसे दरअसल हत्या ही कहना चाहिए।
एक वरिष्ठ डॉक्टर-मित्र से बात हो रही थी, वे सपरिवार इस समय कोरोना-पीड़ित हैं। उन्होंने कहा कि आज देश में लोग कोरोना वायरस से नहीं आक्सीजन, वैंटीलेटर, दवाई की कमी के कारण मर रहे हैं जो सत्ता के कुप्रबंध और कल्पनाशून्यता के कारण हुआ है। वे यह भी बताते हैं कि दवाइयां कई गुना दामों पर कालाबाजारी में बेची जा रही हैं और इस कालाबाजारी में कंपनियों, दूकानों आदि की मिली-जुली भगत है। एक समाज के रूप में भारत का कितना पतन हो गया है और हमारी सत्ता इस पतन का ही एक उग्र संस्करण है।
मरि है संसारा
कबीर की प्रसिद्ध उक्ति है- ‘हम न मरैं मरिहै संसारा, हमका मिला जियावनहारा।’ इन दिनों, लगता है, स्थिति इन पंक्तियों का एक भयानक कुपाठ हो गयी है। सत्ताधारी राजनेता अपने लाव-लश्कर के साथ सुरक्षित हैं और बाकी भारत मर रहा है। मर न भी रहा हो, मरने के लिए छोड़ दिया गया है। इस सचाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि इस समय भारतीय जन, लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गयी सत्ता द्वारा, अपने हाल पर छोड़ दिये गये जन हैं। लोकतंत्र ही हम पर ऐसा कहर बरपा करेगा हमने सोचा नहीं था।
हमें बड़ा नाज़ था अपने एक खुले और नियमित लोकतंत्र होने पर और उचित नाज़ था। संसार भर के मीडिया द्वारा जब हमारी लोकतांत्रिक सत्ता की प्रशंसा होती थी तो हम फूले नहीं समाते थे। इस समय वही मीडिया भारत में सत्ता द्वारा किये गये ग़ैर-जिम्मेदार कुप्रबंध के लिए हमारी थू-थू कर रहा है। हमारे पास उसका प्रतिकार करने के लिए लफ्फाजी भर है, सचाई नहीं। संसार में जिन अखबारों की वस्तुनिष्ठता की बड़ी प्रतिष्ठा और ख्याति है, जिनमें न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, ल मोन्द, गार्डियन आदि शामिल हैं, भारत में कोरोना की दूसरी लहर की मरणान्तक व्याप्ति के लिए कुप्रबंध, सर्वज्ञता के अहंकार, विशेषज्ञों की सलाह की अवमानना, समय रहते आवश्यक प्रबंध न कर पाने की चूक, राज्यों के चुनाव और रैलियों और कुम्भ मेले में लाखों के जमावड़े को न रोक पाने को दोषी माना जा रहा है। याद नहीं आता कि इधर तीनेक दशकों में भारत की ऐसी निन्दा विश्व मीडिया में, संपादकीयों और रिपोर्टों के माध्यम से, इतने व्यापक पैमाने पर की गयी हो। षड्यंत्रकारी मानसिकता इस सब को विश्वव्यापी षड्यंत्र करार देकर इसका दंश झुठलाने की चेष्टा कर रही है। पर विश्वगुरु होने का दम्भ चकनाचूर हो गया है। अनेक देशों ने भारत से हवाई उड़ानें बंद कर दी हैं और सत्ताधारियों द्वारा अहर्निश वंदित अमरीका ने अपने नागरिकों को इस समय भारत न जाने की सलाह दी है। कहां कोरोना से लड़ने में विश्व की सहायता करने में अग्रणी होने का दम्भ लेकर हम मुखर थे, और कहां अब हम कई देशों से टीका, आक्सीजन आदि लेने पर विवश हैं। हमारे लिए यह मुंह छिपाने का समय है।
अब भी समय है जब हम अपने अहंकारी पूर्वग्रहों से अपने को विनम्रता में मुक्त कर वह सब तेजी और जिम्मेदारी से करें जो अब भी किया जा सकता है ताकि लोगों की जान बच सके। यह लिखते हुए जी बैठ गया जब यह खबर आयी कि उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव बदस्तूर चल रहे हैं जबकि चुनाव ड्यूटी पर लगे 600 से अधिक शिक्षकों की मृत्यु हो चुकी है। क्या किसी योगी को यह याद दिलाने से कुछ होगा कि हमारी परंपरा में याज्ञवल्क्य ने वर्जित मांस खाया था और कहा था कि जीवन सबसे बड़ा धर्म है।